2019 का चुनाव भाजपा की जीत से ज़्यादा संघ की प्रतिष्ठा का सवाल है
आज पार्टी के भीतर नरेंद्र मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब तो संघ के लिए भी नमो का गुणगान करना उनकी ज़रूरत से ज्यादा मज़बूरी लगता है.
-
Total Shares
याद कीजिये 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी की तरफ़ से जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुना गया तो पार्टी के भीष्म पितामह बिना किसी को बताये अज्ञातवास पर चले गए, सारे रिश्ते नाते तोड़ लिए. अब लगने लगा था की पार्टी को उनकी इस ज़िद के आगे झुकना ही पड़ेगा और मोदी को भी पीछे हटना होगा. ऐसे में संघ ने मोर्चा संभाला और पार्टी के सीनियर नेताओं के विरोध को दरकिनार करते हुए उन्हें जनभावनाओं का सम्मान करने की नसीहत तक दे डाली. तमाम बाधाओं को पार कर 2014 में 16 मई की तारीख को नरेंद्र मोदी ने संघ के फैसले को हमेशा के लिए ऐतिहासिक बना दिया. उनके प्रचंड बहुमत के सामने उनके विपक्षी विलुप्त हो चुके थे. अच्छे दिन की आस में जनता उनके लिए विजय जुलूस निकाल रही थी. कुल मिलाकर आरम्भ प्रचंड था.
नरेंद्र मोदी ने भी हमेशा अपनी तरफ़ से संघ को रिटर्न गिफ्ट देने का कोई मौका नहीं गंवाया. चाहे वो 'अंतराष्ट्रीय योग दिवस' के रूप में हो या अपने विदेशी मेहमानों को 'भगवद गीता' की प्रति भेंट करना हो. संघ से वरदान के रूप में मिले विचारों को हमेशा सहेज कर रखा और समय-समय पर उसका प्रदर्शन भी किया. दशहरे के मौके पर मोहन भागवत के भाषण का सीधा प्रसारण दूरदर्शन पर बस इसका एक बानगी भर था. ये प्यार-दुलार का सिलसिला दोनों तरफ से लगातार चलता रहा.
अपने चुनावी भाषणों में देश की दशा और दिशा बदलने का दम्भ भरने वाले नेता के लिए अब कठिन फैसले लेने का वक़्त आ गया था. अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति के लिए मशहूर नरेंद्र मोदी ने एक के बाद एक कड़े फैसले लेना शुरू कर दिया. कुछ फैसले उनके हक में गए तो कुछ उनके विरोध में. एक तरफ काले धन पर प्रहार करने के इरादे से 'प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना' शुरू की गई, जिसके तहत हज़ारों लोगों ने 70 हज़ार करोड़ से ज़्यादा की अघोषित आय घोषित की. इस योजना की सफलता से उत्साहित सरकार ने नोटबंदी करने का जोखिम उठाया और ऐसा दावा किया गया की सरकार के इस फैसले से 15 लाख लोगों से उनका रोज़गार छिन गया.
ऐसे में पूरे देश में मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ लोग लामबंद होने लगे. निष्क्रिय हो चुकी विपक्षी पार्टियों में अचानक से जान आ गई और सरकार के ख़िलाफ़ एक बैनर के तले इकट्ठा होने लगे. संसद से लेकर सड़क तक धरना-प्रदर्शनों का एक लम्बा दौर चला. प्रधानमंत्री का गोवा में दिया गया भावनात्मक भाषण भी उनके काम नहीं आया. पार्टी के 'मार्गदर्शक मंडल' के लोग ही सरकार के फैसले और मंशा पर सवाल उठाने लगे. ऐसे में एक बार फिर से संघ ने मोर्चा संभाला और सरकार के फैसले को जनहित में उठाया गया एक ऐतिहासिक कदम बताया.
पिछले 4 वर्षों में संघ के लोगों ने नरेंद्र मोदी को हर बार नैतिक प्रोत्साहन देने में कभी कोई कमी नहीं रहने दी. अपने वंशानुगत संगठनों जैसे 'भारतीय मज़दूर संघ', विश्व हिन्दू परिषद् की आलोचनाओं को भी हमेशा ख़ारिज किया. इनके और सरकार के बीच में हमेशा ढाल का काम किया और यथास्थिति को बनाये रखी. दरअसल, बार-बार सरकार का बचाव करके संघ अपने उस फैसले को सही साबित करने की कोशिश करता रहा जो उसने 2013 में तमाम विरोधों के बावजूद लिया था. संगठन और पार्टी के बीच में समन्वय का काम संघ ने बखूबी निभाया और उसी का नतीजा है की आज लाख बातें होने के बावजूद पार्टी और संघ के कैडर में नरेंद्र मोदी के प्रति विश्वसनीयता अभी भी बरक़रार है.
इसमें कोई शक नहीं है कि 2019 का लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी की जीत से ज़्यादा संघ की प्रतिष्ठा का सवाल है. अपने वैचारिक सिपाही का समर्थन ही तो आरएसएस के सपनों की मंज़िल है. हां एक बात और है कि आज पार्टी के भीतर नरेंद्र मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब तो संघ के लिए भी नमो का गुणगान करना उनकी ज़रूरत से ज्यादा मज़बूरी लगता है. एक गुरू के लिए अगर उसका चेला अनुशासित है और संगठन के विचारों के प्रति श्रद्धा भाव रखता है तो संघ के लिए इससे बड़ी बात क्या होगी? तभी तो उत्साह से लबरेज़ स्वयंसेवक और पार्टी के कार्यकर्ता 2019 में भी विजय पताका लहराने को लेकर आश्वस्त हैं.
कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न, इंडिया टुडे रिसर्च टीम )
ये भी पढ़ें-
10 फायदे, जो कांग्रेस को कर्नाटक में लिंगायत धर्म बनाने से मिलेंगे
राहुल गांधी को अब गुजरात टेस्ट में पास कांग्रेस नेताओं का ही साथ पसंद है
बीजेपी-कांग्रेस के सोशल मीडिया प्रमुखों ने एक दूसरे को ही ट्रोल कर दिया!
आपकी राय