कांग्रेस से समर्थन लेना कुमारस्वामी के लिए आत्मघाती न बन जाए
कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस द्वारा मुख्यमंत्री पद के लिए जेडीएस अध्यक्ष कुमारस्वामी का नाम प्रस्तावित करना ये बताता है कि कर्नाटक की राजनीति में अभी कई दिलचस्प मोड़ आने बाक़ी हैं.
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कर्नाटक चुनाव के नतीजे आख़िर में अपनी बेवफाई साबित करने में सफल हुए. दोपहर तक ढोल-नगाड़ा बजा रहे भाजपा के कार्यकर्ता घनघोर चिंतन में डूब चुके हैं. कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने चुनाव के दौरान जितनी मेहनत नहीं की थी, उससे ज्यादा अब कर रहे हैं. लोगों के बीच अफवाहों का बाजार गर्म है कि कौन किसके साथ जायेगा. कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए जेडीएस से ज्यादा कांग्रेस के नेता चिंतित लग रहे हैं. निर्दलीय विधायक धन-वर्षा के इंतज़ार में लार टपका रहे होंगे. बाज़ीगरी के सारे पैमानों को फिर से परिभाषित किया जा रहा होगा.
दरअसल राजनीतिक लड़ाई अपने अंतिम सांस तक लड़ी जाती है, वही आज कांग्रेस पार्टी कर रही है. जब सत्ता में वापस आने का कोई आसरा नहीं बचा तो जिसकी वजह से मुंह की खायी है उसी को रोक लिया जाये तो कार्यकर्ताओं को सेलिब्रेट करने का एक मौका तो कम से कम मिल ही जायेगा. भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सत्ता की हक़दार होने का दावा कर सकती है लेकिन चुनावी बिसात में बाज़ी तो अंतिम चाल तक चली जाती है जो राजा को रंक बना देती है. बात अगर चाल की हो तो भारतीय राजनीति के सबसे बड़े चालबाज़ तो खुद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तो फिर लड़ाई दिलचस्प होगी.
आखिरकार वो घड़ी आ गयी जिसका इंतेजार एचडी कुमारस्वामी को कई दिनों से था
मुख्यमंत्री पद के मोह में कुमारस्वामी को कांग्रेस का सपोर्ट लेने से पहले अपने पिता के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि का एक बार विश्लेषण तो कर ही लेना चाहिए था. भारत के सर्वोच्च पद पर बैठाने के लिए पहले समर्थन करना और चंद महीनों के बाद वापस जमीन पर पटक देने का कारनामा कांग्रेस 1996 में ही दोहरा चुकी है. तात्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में समर्थन वापसी के साथ ही देवेगौड़ा के अस्तित्व को नकार दिया था. खैर राजनीति में अपमान का घूंट पीना नारियल पानी पीने के बराबर है.
कांग्रेस का रिकॉर्ड इस मामले में दागदार ही रहा है. दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल को समर्थन देना और उसके बाद अराजकता के नाम पर ललकारना कौन भूल सकता है. दरअसल भाजपा को कर्नाटक में रोककर कांग्रेस गोवा और मणिपुर का बदला लेना चाहती है जहां सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद वो सरकार बनाने से चूक गयी थी. इनके नेता जानते हैं की राहुल गांधी की इज़्ज़त बचाने का एक और मात्र विकल्प यही बचा है.
एक बात याद रखना होगा की बेंगलुरु की दो विधानसभा सीटों पर चुनाव अभी बाकी है और यदि भारतीय जनता पार्टी इन दोनों सीटों को जीत लेती है तो फिर निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाने के और करीब पहुंच सकती है. ज़रूरत पड़ने पर भाजपा जेडीएस और कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने का प्रबल प्रयास कर सकती है. कुल मिलाकर अगले कुछ घंटों में तस्वीर साफ़ होगी लेकिन धनबल और ज़ोर आजमाइश का ये खेल 'गार्डन सिटी' के गलियारे में शुरू हो चुका है.
कंटेंट - विकास कुमार, इंटर्न इंडिया टुडे
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