Mayawati की मुलायम पर मेहरबानी यूं ही तो नहीं लगती!
ऐसा नहीं है कि मायावती (Mayawati) ने मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) को लेकर नये सिरे से कोई कदम उठाया है, बल्कि ये कहा जा सकता है कि वो अपने वादे से पीछे नहीं हटी हैं - सवाल है कि सपा (Samajwadi Party) और बसपा (BSP) का रिश्ता आगे कैसा रहने वाला है?
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अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के साथ गठबंधन तोड़ देने के बाद भी मायावती (Mayawati) का मन न बदलना थोड़ा चौंकाने वाला है. खुद अखिलेश यादव को भी इसे लेकर हैरानी हो रही होगी. मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) के खिलाफ गेस्ट हाउस कांड (Guest House Case) में मुकदमा वापस लिये जाने पर अखिलेश यादव ने मायावती के प्रति आभार जताया है. गेस्ट हाउस कांड से जुड़े जिस मुकदमे के वापस लिये जाने की खबर आई है उसमें बहुत कुछ नया नहीं है. अखिलेश यादव की गुजारिश पर मायावती की तरफ से मुकदमा वापस लेने की अर्जी अदालत में तभी दी गयी थी जब 2019 की शुरुआत में सपा-बसपा गठबंधन बना था.
खास बात ये है कि सपा-बसपा गठबंधन टूट जाने के बाद भी मायावती ने इस मामले में अपने कदम पीछे नहीं खींचे - और मुकदमा वापस लेने का वादा निभाया है.
अब सवाल ये है कि मायावती ने ऐसा करके क्या गठबंधन के मामले में अपने फैसले पर पुर्नविचार का कोई संकेत दिया है क्या?
मायावती गेस्ट हाउस कांड नहीं भूलने वाली
मायावती ने कभी ये नहीं कहा कि गेस्ट हाउस कांड को वो कभी भूल पाएंगी. यहां तक कि 19 अप्रैल, 2019 को मैनपुरी में भी. मायावती मुलायम सिंह के लिए वोट मांगने गयीं थीं. करीब ढाई दशक बाद ये मौका आया था जब मायावती और मुलायम सिंह सार्वजनिक रूप से एक साथ मंच शेयर किये थे. मंच पर अखिलेश यादव की मौजूदगी में मायावती ने दोबारा गेस्ट हाउस कांड न भूलने की बात कही. उससे पहले 12 जनवरी को जब मायावती जब अखिलेश यादव के साथ सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा कर रही थीं, बताया कि बहुजन समाज और पिछड़े लोगों के व्यापक हित में दिल पर पत्थर रख कर वो फैसला ले पायी हैं. अखिलेश यादव तो गदगद रहे ही, मुलायम सिंह यादव ने भी हर तरीके से मायावती की मौजूदगी को एहसान माना.
2 जून 1995 को लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस में मायावती पर समाजवादी कार्यकर्ताओं ने हल्ला बोल दिया था - और उसी के बाद मायावती ने मुलायम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव, बेनी प्रसाद वर्मा और आजम खां सहित समाजवादी पार्टी के कई नेताओं के खिलाफ हजरतगंज थाने में केस दर्ज कराया था.
अखिलेश यादव दूध के जले हैं, छाछ भी यूं ही नहीं पीने वाले...
दरअसल, मायावती ने गेस्ट हाउस में बीएसपी विधायकों की मीटिंग बुलायी थी. उससे पहले 1993 में सपा-बसपा गठजोड़ हुआ था और मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने थे. कहते हैं सपा कार्यकर्ताओं को किसी तरह भनक लगी कि मायावती गठजोड़ तोड़ने वाली हैं और वे धावा बोल दिये. बहरहाल, बीजेपी के सपोर्ट से मायावती फौरन ही मुख्यमंत्री बन गयी थीं.
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो मायावती के इस सद्भाव के लिए आभार जताया है लेकिन उनके चाचा ने इसे जरा भी अहमियत नहीं दी है. मायावती की ओर से सिर्फ मुलायम सिंह यादव के खिलाफ केस वापस लेने की अर्जी दी गयी है, बाकी के खिलाफ मुकदमे का भविष्य कोर्ट सामान्य प्रक्रिया के तहत ही तय करेगा.
अपनी प्रतिक्रिया में शिवपाल यादव ने कहा कि ये मामला नौ महीने पहले ही कोर्ट से खत्म हो चुका है. शिवपाल यादव ने कहा, 'इसमें नया कुछ नहीं है. जब ये घटना हुई थी तब मैं उस समय था ही नहीं. झूठी रिपोर्ट लिखाई गई थी.'
गठबंधन की फिर कोई संभावना है क्या?
सपा-बसपा गठबंधन की नींव एक खास डील के तहत पड़ी थी. तय था कि समाजवादी पार्टी बीएसपी नेता को प्रधानमंत्री बनवाने में मदद करेगी - और बदले में 2022 में मायावती अखिलेश यादव के यूपी का सीएम बनने में मददगार साबित होंगी.
आम चुनाव के नतीजे भी ऐसे रहे कि शिकायत अखिलेश यादव को रही होगी. 2019 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन को 15 सीटें मिलीं. मायावती की बीएसपी को 10 और अखिलेश यादव के खाते में महज पांच. अखिलेश यादव के साथ इतना बुरा हुआ कि उनकी पत्नी डिंपल यादव को तो हार का मुंह देखना ही पड़ा, एक भाई भी चुनाव हार गया.
फिर भी मायावती ने गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया. तब यूपी की दर्जन भर सीटों पर उपचुनाव होने वाले थे और मायावती ने कह दिया कि बीएसपी मैदान में अकेले उतरेगी. ये हर किसी के लिए सुनने में थोड़ा अजीब रहा क्योंकि जो मायावती उपचुनावों से दूरी बनाये रहती रहीं वो गठबंधन तोड़ डालीं.
अखिलेश यादव ने खुल कर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन समाजवादी पार्टी के नेता इसे मायावती की वादा खिलाफी के तौर पर पेश कर रहे थे. वैसे भी अखिलेश यादव ने तो मायावती को प्रधानमंत्री बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. जब अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने की बारी आती उससे बहुत पहले ही मायावती ने अपने कदम पीछे खींच लिये.
बहरहाल, अखिलेश यादव उपचुनाव की तैयारियों में जुट गये. मायावती तो पहले से ही तैयारी कर चुकी थीं. चुनाव हुए भी. सबसे ज्यादा सीटें तो बीजेपी को ही मिली - लेकिन मायावती एक बार फिर जीरो पर आउट हो गयीं. दूसरी तरह, अखिलेश यादव अपने तीन उम्मीवार जिताने में कामयाब रहे. 90 के दशक के राजनीतिक प्रयोग को छोड़ दें तो मौजूदा मोदी लहर में अखिलेश यादव और मायावती साथ और अलग होकर मोटे तौर पर तीन प्रयोग किये - और तीनों बार नतीजे अलग अलग रहे. देखा जाये तो मायावती का ही पलड़ा हल्का रहा जबकि वोट ट्रांसफर को लेकर वो हमेशा दूसरों पर शक करती रही हैं.
1. जब सपा को बसपा का सपोर्ट मिला : 2018 के तीन उपचुनावों में मायावती ने अखिलेश यादव के उम्मीदवारों को सपोर्ट किया - और वे तीनों जीत गये. पहले गोरखपुर और फूलपुर लोक सभा सीट पर और बाद में कैराना उपचुनाव में.
2. जब सपा-बसपा गठबंधन बना : 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन बना और नतीजों से मालूम हुआ कि बीएसपी के वोट समाजवादी पार्टी को ट्रांसफर नहीं हो पाये, जबकि बीएसपी को अखिलेश यादव समर्थकों के भी वोट मिले. आम चुनाव में मायावती ने पहले ही लड़ने से मना कर दिया था जबकि अखिलेश यादव आजमगढ़ से चुनाव जीते.
3. जब गठबंधन टूट गया : गठबंधन टूट जाने के बाद दोनों दल अपने अपने तरीके से पूरी ताकत आजमाये. अखिलेश यादव ने तो तीन सीटें जीत भी लीं, मायावती के हाथ तो सिर्फ सिफर ही लगा.
अब सवाल ये है कि मायावती को क्या अपने करिश्मे को लेकर गलतफहमी दूर होने लगी है? क्या मायावती को लगने लगा है कि अकेले दम पर यूपी के रण में बीएसपी के लिए दो कदम भी आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा है?
मायावती को मालूम है कि 2022 की लड़ाई और भी ज्यादा मुश्किल होने वाली है. बीजेपी सरकारों का प्रदर्शन जैसा भी हो हरियाणा में पार्टी सत्ता में लौट आयी है और महाराष्ट्र में भी बहुमत ही हासिल हुआ है - और अभी के हिसाब से ऐसी कोई वजह नहीं है कि यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार के तीन साल बाद चुनाव जीतने पर कोई शक शुबहा हो.
बीजेपी से मुकाबले से पहले मायावती के सामने समाजवादी पार्टी के अलावा कांग्रेस भी चुनौती बनेगी. नतीजे जो भी आयें लेकिन प्रियंका गांधी गलतियों से सबक लेते हुए यूपी के लिए नये सिरे से तैयारी कर रही हैं. कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा होगा ये नहीं, महत्वपूर्ण तो ये है कि वोट तो बीजेपी के खिलाफ वाले ही बंटेंगे.
अब सवाल उठता है कि दूध के जले अखिलेश यादव छाछ के साथ कैसा व्यवहार करेंगे?
ऐसा भी नहीं कि अखिलेश यादव को मायावती के सपोर्ट की कोई जरूरत नहीं है. वैसे भी गठबंधन की पहल अखिलेश यादव की ही तरफ से हुई थी. बल्कि अखिलेश यादव तो कई साल से मन में संजोये हुए थे कि अगर गठबंधन हो जाये तो पूरे हिंदुस्तान पर राज कर सकते हैं - लेकिन अब तक तो सब उलटा पुलटा ही होता आया है.
रही बात मायावती के दोबारा साथ आने की तो मान कर चलना होगा अखिलेश यादव मनमानी नहीं बर्दाश्त करने वाले. अगर मायावती गेस्ट हाउस कांड नहीं भुला सकतीं तो अखिलेश यादव भी डिंपल यादव की शिकस्त नहीं भूल सकते. ये डिंपल यादव की पहली हार ही रही जिसके गुस्से में अखिलेश यादव साइकिल लेकर निकल पड़े और 2012 में पार्टी को सत्ता में लाकर ही दम लिये - अगर फिर से सपा-बसपा गठबंधन खड़ा हुआ तो अखिलेश यादव अपनी मर्जी के खिलाफ किसी की एक नहीं सुनने वाले. फिर तो समाजवादी कार्यकर्ताओं को बीएसपी वर्कर से सीखने की नसीहत देने से पहले भी मायावती को दो बार सोचना होगा.
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