क्या "सत्य और अहिंसा" की आड़ में अपनी राजनीति चमका रहे थे गांधी ?
गांधी को लेकर समाज के अलग-अलग वर्गों में अलग-अलग राय है. कुछ लोग गांधी को अहिंसा का पक्षधर मानते हैं तो वहीं कुछ ये कहते हैं कि अहिंसा की आड़ लेकर ही गांधी ने अपनी राजनीति की शुरुआत की थी.
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फेबियन सोसाइटी का, और कुछ भारतीय नेताओं का भी नारा था कि 'शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो'. मूर्तियां लगाकर, उन मूर्तियों को माला पहनाने और नेताओं का रसूलिकरण करने में भारतीय नेताओं का कहा-किया देखना ही भूल गए. आज भी जब माहौल गांधीमय करने का प्रयास हो रहा होगा तो मेरी सलाह 'सत्य के प्रयोग पढ़ लेने की ही है. कम से कम गांधी की जीवनी में वो जो अपने और अपने आन्दोलन के बारे में लिखकर गए हैं उनको पढ़कर तो सीखना ही चाहिए.
इसे पढ़कर गांधी के बारे में ही नहीं, उनकी 'अहिंसा' का जो बखान किया जाता है उसके बारे में भी जानने समझने का मौका मिल जाता है. वो शुरू से ही 'अहिंसा' के पक्षधर रहे थे और फिरंगियों की मदद के लिए बोअर युद्ध में 1899 के दौरान एम्बुलेंस कॉर्प्स बनाने में जमकर काम किया. उनका मानना था कि प्रजा की राज्य के प्रति स्पष्ट जिम्मेदारी होती है. साउथ अफ्रीका में 1913 में एक विरोध मार्च उन्होंने इसलिए रोक दिया था क्योंकि गोरे इसाई रेलवे कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे.
आज गांधी का तो नहीं हां मगर उनकी अहिंसा का बखान किया जाता है
गोरे ईसाईयों की हड़ताल से हो रही सरकार को असुविधा का फायदा उठाना उनके हिसाब से उचित नहीं था. उन्होंने पहले विश्व युद्ध में, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की सेना की मदद के लिए हर संभव प्रयास किया और लोगों को सेना में भर्ती करवाने में भी मदद की. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अहिंसक गांधी ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को सार्वजनिक मंच से शर्मिंदा ना करने की शपथ ली थी और अलाइड सेनाओं को नैतिक समर्थन देने का भी वादा किया था. उनके आंदोलनों का समय भी गौर करने लायक है.
वो मौके का फायदा उठाना नहीं जानते थे ऐसा नहीं है. जब भी ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा (1920-1922, 1930-1933,1942) गांधी ने अपने आन्दोलन उसी समय चलाये. जाहिर है इस से ब्रिटिश उपनिवेशवादी पूंजीपतियों को और नुकसान हुआ और भारतीय व्यापारियों का फायदा. कौन परोक्ष-सम्मुख मदद कर रहा है ये पहचानना व्यापारियों के लिए कभी मुश्किल नहीं रहा है. टाटा-बिड़ला जैसे घरानों ने जहां महात्मा गांधी के आन्दोलन को आर्थिक बल दिया वहीं मध्यमवर्गीय व्यापारियों से उन्हें संख्याबल और समर्थक भी मिले.
राजनैतिक रूप से महत्वाकांक्षी कांग्रेस के नेताओं को भी शुरूआती पंद्रह साल में समझ में आ गया था कि गांधी नाम के बरगद के नीचे उनका पनपना संभव नहीं है. करीब उसी दौर में गांधी से ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की पार्लियामेंट्री कमीशन के भारत दौरे का विरोध करने में देरी हो गई. सन 1928 के बदले 1930 में उन्होंने इसका विरोध शुरू किया. उनके निर्मोही स्वभाव से और खुद आगे बढ़ते रहने, चाहे किसी का साथ छूट भी जाए, वाले बर्ताव से भी कांग्रेस वाकिफ हो चुकी थी. लिहाजा उनके तौर तरीकों से कईयों ने सुरक्षित दूरी बनानी भी शुरू कर दी. आख़िरकार अप्रैल 1936 में गांधी ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया और वर्धा जाकर रहने लगे.
यही वजह थी कि 1942 के आंदोलनों की बैठकों के बारे में जब आप पढ़ेंगे तो वो कांग्रेस ऑफिस में नहीं होती थीं, वो वर्धा में हो रही होती थी. सन 1936 के बाद गांधी कभी कांग्रेसी नहीं हुए. उनके निर्मोही स्वभाव का इस से भी पता चलेगा कि विरोध करने वालों की गिरफ़्तारी को वो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का अधिकार मानते थे. वो गिरफ्तार हुए सेनानियों को जेल में निर्विकार भाव से रिहाई की प्रतीक्षा करने कहते. जिस आन्दोलन में चौरीचौरा कांड की हिंसा हुई वहां भी यही हुआ था और उन्होंने आन्दोलन वापस ले लिया. इस सत्याग्रह में गिरफ्तार हुए लोगों के साथ एक ख़ास बात ये भी थी कि इनमें से ज्यादातर के हाथ में गिरफ़्तारी के समय भगवद्गीता थी.
समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी गांधी की नीतियों से खुश नहीं दिखता
हिन्दुत्ववादियों को चौरीचौरा काण्ड की वजह से इस आन्दोलन को वापस लिया जाना रास नहीं आया. इस वजह से गोरखपुर मठ के महन्त और अन्य कई हिन्दुत्ववादी भी गांधी से अलग हो गए थे. आज भी गोरखपुर (योगी आदित्यनाथ के चुनावी क्षेत्र) में चौरीचौरा में मारे गए पुलिसकर्मियों की मूर्तियां तो हैं लेकिन इस कांड में जिन लोगों को फांसी की सजा हुई थी, उन स्वतंत्रता सेनानियों का क्या हुआ ये पता नहीं. कांग्रेस और गांधी का अलगाव 1942 के आन्दोलन के दौर में और भी स्पष्ट नजर आएगा. इस आन्दोलन में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की पुलिस ने दस हज़ार से ज्यादा आन्दोलनकारियों को मार डाला था. इन दस हज़ार में आपको कोई भी कांग्रेसी नाम नहीं मिलेगा. कांग्रेस के नेताओं ने गांधी के लिए जान देना छोड़ दिया था.
अप्रैल 1946 में जब बम्बई (अब मुंबई) के भारतीय जहाजियों ने काम से इनकार यानि हड़ताल कर दी तो सैनिकों को नौसैनिकों पर गोली चलाने का आदेश दिया गया. जब भारतीय सैनिकों ने अपने ही देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया तो हड़ताल और भी बढ़ गई. कांग्रेस पार्टी और गांधी ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के समर्थन वाली 'अहिंसा' की नीति का पालन करते हुए नौसेना-सेना के इस विद्रोह का समर्थन करने से इनकार कर दिया. थोड़े समय में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को इस विद्रोह को कुचलने में कामयाबी मिल गई. कामगारों और मजदूरों के आंदोलनों / समस्याओं से गांधी की इस दूरी के कारण भारत में कॉमरेडों को पनपने का भरपूर मौका मिला.
अपनी सुविधा के हिसाब से गांधी को परिभाषित करने वालों के लिए गांधी की हत्या बड़े काम आई. कांग्रेस ने भी इस हत्या की कहानी को यथासंभव जनता की जानकारी से दूर रखा. बाद में इसपर एक किताब और फिल्म भी आई थी (Nine Hours to Rama – Stanley Wolpert) भी आई जिसमें सुरक्षा में हुई चूकों को बताया गया था.
चूंकि इसमें सरकार की गलतियों को उजागर कर दिया गया था इसलिए ये भारत में सबसे पहले प्रतिबंधित किताबों और फिल्मों में से एक हो गई. अभी भी ये किताब भारत नहीं आती. तब से अब तक में अपनी अपनी सुविधा के लिए गांधी की व्याख्या करने वालों की गिनती बढ़ी ही है, कम नहीं हुई. ऐसे दौर में गांधी को सिर्फ याद करने से कहीं अच्छा होगा कि गांधी को पढ़ ही लीजिये. कम से कम सत्य और उसके प्रयोगों के बारे में जानिये, लोगों को बताइये.
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