विपक्ष एकजुट न सही, लेकिन जागरूक होने लगा है और ये बीजेपी के लिए अलर्ट है
संसद के बजट सत्र (Budget Session of Parliament) में जिस तरीके से विपक्षी नेताओं (Opposition Voices) ने अलग अलग मुद्दे उठाते हुए मोदी सरकार (Modi Government) को टारगेट किया है, बीजेपी के लिए फिक्र वाली बात लगती - खासकर 2024 के आम चुनाव के हिसाब से.
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बजट सेशन में विपक्ष की आवाज (Opposition Voices) का असर देखने को मिला है. बड़े दिनों बाद विपक्ष की खामोशी टूटती नजर आयी है. सोशल मीडिया पर भी लोगों के रिएक्शन पर गौर करें तो वे भी विपक्षी नेताओं की तरफ से उठाये गये मुद्दों पर ध्यान देते नजर आये हैं.
सत्ता पक्ष की तरफ से विपक्ष को मुद्दा विहीन बता कर खारिज करने की कोशिश भी की गयी है. फिर भी बीजेपी के प्रभाव में न आकर लोग संसद में उठाये गये मुद्दों को नजरअंदाज करने के मूड में नहीं दिखे हैं.
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के बजट (Budget Session of Parliament) पर रिएक्शन के बाद वित्त मंत्री की टिप्पणी 'यूपी टाइप' का ढंग से विरोध हुआ है - और संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने जिस तरीके से मोदी और राहुल गांधी में फर्क समझाया, वो भी बेअसर रहा.
सिर्फ राहुल गांधी के भाषण की ही कौन कहे, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा और आरजेडी सांसद मनोज झा के संसद में दिये भाषण की भी खूब चर्चा और तारीफ हुई है. ये सभी लोग अपनी अपनी पार्टियों की तरफ से राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में शामिल थे.
2021 के विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद से 2022 के विधानसभा चुनावों की शुरुआत के बीच विपक्षी खेमे में काफी उठापटक देखने को मिली है - और कदम कदम पर राहुल गांधी और ममता बनर्जी के बीच सीधा टकराव महसूस किया गया है, लेकिन संसद के भीतर तो नजारा अलग ही देखने को मिला.
क्या ये सोनिया गांधी की पहल का नतीजा हो सकता है? ममता बनर्जी की शरद पवार से मुलाकात और यूपीए को नकार देने के बाद सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलायी थी - जिसमें कांग्रेस और टीएमसी के बीच महत्वपूर्ण कड़ी बने शरद पवार भी शामिल हुए थे.
ये तभी की बात है जब शीतकालीमन सत्र में राज्य सभा के कई सदस्यों को निलंबित कर दिया गया था, लेकिन विरोध प्रदर्शन में राहुल गांधी भी देखे गये और टीएमसी सांसद भी - क्योंकि निलंबित सांसदों में टीएमसी के नेता भी थे.
सोनिया गांधी की बुलायी मीटिंग से जो खबर निकल कर आयी, पता चला चर्चा के प्रमुख मुद्दों में ममता बनर्जी भी शामिल थीं और संसद में मोदी सरकार को घेरने की रणनीति पर भी बात हुई.
लेकिन जिस तरह गोवा में ममता बनर्जी और राहुल गांधी फिर से आमने सामने देखे गये - और मोदी सरकार (Modi Government) के खिलाफ विपक्ष के इरादे पर उठते सवालों में निशाने पर राहुल गांधी नजर आये, लगा नहीं कि कुछ फर्क पड़ने वाला है.
बजट सत्र का नजारा काफी अलग है. ऊपर से विपक्ष वैसे ही बिखरा नजर आ रहा है, जैसे पहले था, लेकिन एजेंडा कॉमन लग रहा है. विपक्षी दलों के नेताओं ने मुद्दे अलग अलग उठाये हैं, लेकिन सभी के भाषण में बेरोजगारी, संविधान, पेगासस पर फोकस देखने को मिला है - और ये सब अगले आम चुनाव तक जारी रहा तो लगता नहीं परिस्थितियां 2019 जैसी फिर से हो सकती हैं.
क्या विपक्ष एकजुट हो रहा है?
विपक्ष के एकजुट न होने का सत्ता पक्ष हमेशा ही फायदा उठाता रहा है. पहले ऐसा फायदा कांग्रेस उठाया करती थी, अब वही काम बीजेपी कर रही है - लोकतंत्र की तमाम खूबसूरत चीजों के बीच ये एक आवश्यक बुराई की तरह ही लगता है.
चल क्या रहा है: किरदार बदल जाते हैं, परिस्थितियां वही रहती हैं. विपक्ष में अब साफ साफ दो धड़े बन चुके हैं. एक तो पहले से ही कांग्रेस और गांधी परिवार है, मुकाबले में पश्चिम बंगाल में चुनावी जीत के बाद ममता बनर्जी भी खड़ी हो गयी हैं. साथ में दो फैक्टर और भी जुड़ गये हैं, जिनके अपने अपने राजनीतिक गुणा-गणित हैं - शरद पवार और प्रशांत किशोर.
विपक्ष यूपी चुनाव के समानांतर मोदी सरकार को घेरने की तैयारी में जुटा हुआ है - चुनाव नतीजे निर्णायक होंगे
प्रशांत किशोर, थोड़ थोड़े दिन के अंतराल पर विपक्ष से जुड़े मुद्दों पर बहस को किसी न किसी बहाने आगे बढ़ाते रहते हैं. कभी ऑडियो के जरिये तो कभी वीडियो लीक करा कर और जब ये सब थमता है तो ट्विटर पर - हाल फिलहाल वो अलग अलग मीडिया फोरम पर इंटरव्यू देकर चर्चा को बरकरार रखे हुए हैं.
महुआ मोइत्रा की तरफ से अभी जिन 200 सीटों का जिक्र सुनने को मिला है, वो थ्योरी भी प्रशांत किशोर की ही है - और उसकी चर्चा ममता बनर्जी और शरद पवार की मुलाकात में भी हो चुकी है. शरद पवार का स्टैंड भी साफ ही हो चुका है कि वो ममता बनर्जी की तरह कांग्रेस मुक्त विपक्षी एकता के खिलाफ हैं - लेकिन वो गांधी परिवार की तरफ से नेतृत्व की दावेदारी से पीछे हट जाने का इंतजार भी कर रहे हैं.
कांग्रेस के भरोसे कब तक: सीपीएम का ड्राफ्ट राजनीतिक प्रस्ताव भी अभी चर्चा में शामिल हो गया है. राजनीतिक प्रस्ताव को अप्रैल में होने वाले सीपीएम के सम्मेलन में अंतिम रूप दिया जाना है और फिलहाल ये फीडबैक के लिए पेश किया गया है.
सीपीएम के इस ड्राफ्ट में निशाने पर कांग्रेस ही है. कहा गया है कि कांग्रेस कमजोर हो गयी है. कांग्रेस की संगठनात्मक शक्ति और प्रभाव दोनों ही कम हो गये हैं. लिहाजा बीजेपी के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों को एकजुट करने में नाकाम रही है. प्रस्ताव मसौदे में कहा गया है कि कांग्रेस को बीजेपी के बराबर खतरनाक तो नहीं माना जा सकता - लेकिन कांग्रेस के साथ राजनीतिक गठबंधन भी नहीं किया जा सकता. ध्यान रहे, केरल तो नहीं लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव में सीपीएम ने कांग्रेस के साथ ही गठबंधन किया था.
अब सवाल ये है कि कांग्रेस के कमजोर होने से भी बाकियों को फर्क क्यों पड़ना चाहिये?
ऐसा भी तो नहीं कि कांग्रेस खत्म हो जाएगी तो क्या विपक्ष भी नहीं बचेगा?
जब तक लोक तंत्र में लोगों की आस्था बनी हुई है, ये भी ऊर्जा की तरह ही शाश्वत है - न तो नष्ट किया जा सकता है और न ही क्रिएट किया जा सकता है. बस उसे इधर उधर शिफ्ट होते देखा जा सकता है.
कांग्रेस कमजोर पड़ी और 2014 में सत्ता गवां दी. सत्ता पर कोई और काबिज हो गया - भारतीय जनता पार्टी.
अगर कांग्रेस और कमजोर पड़ती है तो विपक्ष का नेतृत्व भी हाथ से फिसल जाएगा - कोई और नेतृत्व करेगा.
विपक्ष मजबूत होना चाहिये, सत्ता की निगरानी के लिए. सत्ता पक्ष मजबूत होना चाहिये देश के लिए सही और जरूरी फैसले लेने के लिए - अति सर्वत्र वजर्येत्, इसलिए बैलेंस बना रहे वही बेहतर होगा.
विपक्ष में सबकी बराबर भागीदारी है. किसी को कांग्रेस के भरोसे बैठे रहने की जरूरत नहीं होनी चाहिये - महुआ मोइत्रा भी तो कह ही रही हैं, हम यहां सरकार को लड्डू-पेड़े खिलाने के लिए बैठे हैं.
जो बेहतर, वही सिकंदर!
विपक्षी खेमा भले ही बहुत मजबूत नहीं हो सका हो, लेकिन जागरुक होता नजर आने लगा है - जाहिर है बीजेपी भी महसूस कर रही होगी अगर अब भी सतर्क नहीं है तो जितना जल्दी हो सके, हो ही जाना चाहिये.
निशाने पर बीजेपी: संसद से सड़क तक, यानी चुनाव मैदान में बीजेपी के प्रति मायावती का व्यवहार एक जैसा नजर आता है - और बिलकुल वैसे ही पार्टी के खिलाफ बाकी राजनीतिक दलों का भी.
अगर यूपी विधानसभा चुनाव की बात करें तो, ध्यान रहे, जैसे संसद में विपक्ष अलग अलग खेमे में बंटा नजर आया है, चुनावी मैदान में भी प्रमुख दलों का आपस में गठबंधन नहीं हुआ है - लेकिन कोई अंडरस्टैंडिंग तो बन ही चुकी है. ऐसा कदम कदम पर लग रहा है.
जैसे माायावती यूपी में बीजेपी के प्रति नरम रुख अपनाये हुए नजर आती हैं, संसद में भी बीएसपी सांसद मलूक नागर बता रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की कोई काट नहीं है. संसद में धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा में मलूक नागर कहते हैं, देश में पिछले 70 साल से दलितों, पिछड़ों के साथ अन्याय होता रहा है, लेकिन अब जाकर लगता है... ऐसा माहौल बना है... पिछड़ों और दलितों को न्याय मिलने वाला है क्योंकि इसी सदन में आकर प्रधानमंत्री बोलते हैं कि इतने दलित मंत्री बने हैं और इतने पिछड़ों को मंत्री बनाया गया है.'
बाकी बीजेपी विरोधी दलों को देखें तो अलग ही भाव नजर आता है. उन्नाव में समाजवादी पार्टी के सपोर्ट के बदले कांग्रेस करहल में अखिलेश यादव के खिलाफ कोई उम्मीदवार खड़ा न करने का फैसला करती है. जब बुलंदशहर में भी प्रियंका गांधी वाड्रा और अखिलेश यादव का चुनाव प्रचार करते करते आमना सामना हो जाता है तो फिर से मुलाकात होती है. दुआ सलाम होती है. अखिलेश यादव ट्विटर पर लिखते हैं, 'एक दुआ-सलाम... तहजीब के नाम', तो प्रियंका गांधी की तरफ से जवाब मिलता है, 'हमारी भी आपको राम राम.'
टीम भावना जरूरी, हेकड़ी नहीं चलेगी: राहुल गांधी भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शहंशाह बताने लगे हों, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व का व्यवहार पहले से ही सवालों के घेरे में रहा है - और ये महज हिमंत बिस्वा सरमा के कुत्तों वाले बिस्कुट तक ही सीमित नहीं है.
अगर ममता बनर्जी के दिल्ली में कदम रखते ही राहुल गांधी अचानक एक्टिव हो जाते हैं और विपक्षी दलों के साथ मीटिंग करने लगते हैं, तो क्या दिखाने की कोशिश होती है - यही ना कि विपक्ष के नेतृत्व की जिम्मेदारी कांग्रेस की जागीर है और इसे वो शेयर नहीं करने वाली है. अगर कांग्रेस कार्यकारिणी में ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह जम्मू-कश्मीर से 370 हटाने जैसे मु्द्दों का विरोध न करने की सलाह देते हैं और उनकी आवाज दबा दी जाती है, क्या समझा जाये?
गुजरते वक्त के साथ जैसे सिंधिया, जितिन और आरपीएन कांग्रेस का साथ छोड़ दिये, विपक्षी खेमे के नेता भी तो वैसा ही करेंगे. ये सच्चाई कांग्रेस नेतृत्व जितना जल्दी समझ ले बेहतर होगा. जिस मीटिंग में ये तीनों नेताओं को चुप कराने की कोशिश की गयी थी, प्रियंका गांधी वाड्रा भी राहुल गांधी के साथ मजबूती से खड़ी रहीं.
बाद में राहुल गांधी ऐसे नेताओं को डरपोक बताने लगे और हाल ही में प्रियंका गांधी की भी ऐसी ही राय रही. प्रियंका के मुताबिक कांग्रेस मुश्किल लड़ाई लड़ रही है और हर किसी के लिए टिके रहना आसान नहीं है. ऐसे में अगर कोई कांग्रेस छोड़ कर कहीं और ठिकाना ठीक समझता है तो चलेगा.
कांग्रेस नेतृत्व को भी अब टीम भावना के साथ विपक्ष के सपोर्ट में खड़े रहने की जरूरत है. दमखम बरकरार रहा तो जैसे दस साल तक यूपीए चेयरपर्सन के तौर पर विपक्ष के बड़े बड़े दिग्गज सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार किये रहे - आगे भी कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरने लगे तो अपनेआप बाकी नेता पीछे लाइन लगा कर खड़े हो जाएंगे.
लेकिन लाइन वहीं से शुरू होगी जहां राहुल गांधी खड़े होंगे, अभी तो नहीं चलने वाला है. अभी के हिसाब से देखें तो आगे भी नहीं चलने वाला. कहने का मतलब जल्दी नहीं चलने वाला है - हालांकि, संसद में राहुल गांधी ने जिस तरह गंभीर होकर मुद्दों पर बात की है, वो यूं ही नहीं लगता.
अब विपक्षी दलों के सभी नेताओं को हकीकत समझने की कोशिश करनी चाहिये. अगर प्रशांत किशोर कह रहे हैं कि ये एक चुनाव या पांच महीने का संघर्ष नहीं है. पांच साल भी लग सकते हैं और उससे ज्यादा भी लगे रहना पड़ेगा - फिर तो जिसका भी प्रदर्शन बेहतर होगा, सिकंदर भी वही बनेगा.
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