राहुल गांधी के सामने अब आई है करो या मरो की स्थिति
राहुल गांधी में भी पापा राजीव की तरह राजनेता बनने में दिलचस्पी नहीं थी. 34 साल तक राहुल गांधी ने इसे नजरअंदाज किया. इस उम्र में चाचा संजय गांधी की मौत हो गई थी और अब तक वो राजनीति के क्षेत्र में दस साल बिता चुके थे.
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क्या राहुल गांधी घर के शेर साबित होंगे? ऐसा लगता तो नहीं है. लेकिन खैर गुजरात में कांग्रेस पार्टी 1995 से सत्ता से बाहर है. इसके मद्देनजर पार्टी ने राहुल गांधी की सफलता के लिए बहुत ही छोटा मानक तय किया है. अगर कांग्रेस राज्य में भाजपा को 115 सीटों (2012 में भाजपा ने 115 सीटें पाई थी) पर रोकने में कामयाब रही तो इसे राहुल गांधी की सफलता मान लिया जाएगा. ये मान लिया जाएगा कि राहुल गांधी गुजरात में पार्टी को कुशल नेतृत्व देने में सफल रहे.
अध्यक्ष पद के लिए राहलु ने सही समय नहीं चुना
यूपी निकाय चुनावों में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन और अपने गढ़ अमेठी में भी सीट बचाने में नाकाम रहने के बाद अब कांग्रेस के कार्यकर्ता गुजरात में हार को स्वीकार चुके हैं. देखना बस ये है कि भाजपा कितने मार्जिन से जीतती है.
यहां पर तीन बातें उठती हैं-
पहला- बीजेपी 130 सीटें जीत लेती है. ये आंकड़ा राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पर बैठते ही सबसे बड़ा झटका होगा.
दूसरा- बीजेपी अपने 2012 के आंकड़े 115-120 सीटों पर ही रूक जाती है. राहुल गांधी के सोशल मीडिया संभालने वाले लोग इसे राहुल बाबा की जीत की तरह पेश करेंगे. हालांकि ऐसा करने के पीछे वो इस सच्चाई से आंखें मोड़ लेंगे की 115 सीटों के साथ भी गुजरात विधानसभा में बीजेपी के पास दो-तिहाई बहुमत होगा.
तीसरा- बीजेपी गिरते पड़ते 100 का आंकड़ा पार करती है और 182 सीटों में से 105 सीटें ही पाती है. अब राहुल की टीम इसे कांग्रेस की बड़ी जीत की तरह पेश करेगी और बीजेपी का मजाक उड़ाएगी. दावे करेगी की गुजरात सरकार में बीजेपी का ये आखिरी कार्यकाल होगा.
हिमाचल और गुजरात चुनावों के रिजल्ट आने के समय पार्टी अध्यक्ष का पद लेकर राहुल गांधी ने एक जुआ खेला है. राहुल गांधी जानते हैं कि हिमाचल में पार्टी की हार तय है. और गुजरात में, हार्दिक पटेल चाहे बीजेपी को कितना ही नुकसान पहुंचा दें, इससे उन्हें कोई फायदा मिलने वाला नहीं है. 18 दिसंबर को काउंटिंग के दिन दोनों ही राज्यों में हार का ठीकरा राहुल गांधी के सिर पर ही फूटना है. तो ऐसे में क्या राहुल गांधी को अप्रैल 2018 में होने वाले कर्नाटक चुनावों तक इंतजार नहीं करना चाहिए था? यहां पार्टी के अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है.
इस सवाल के जवाब के लिए राहुल गांधी के व्यक्तित्व पर एक नजर डालते हैं-
दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की नृशंस हत्या का घाव लिए राहुल का व्यवहार अप्रत्याशित ही रहा है. 2013 में उन्होंने अपने इस व्यवहार का प्रदर्शन किया. तब उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अध्यादेश को भरे प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ दिया था. इस अध्यादेश के पास होने के बाद लालू प्रसाद यादव को चुनाव लड़ने का मौका मिल जाता. इस घटना से ये तो पता चला कि राहुल गांधी में सही और गलत है लेकिन उनमें राजवंश के गुण भी मौजूद हैं जिसकी वजह से ही उन्होंने सरेआम अपने ही प्रधानमंत्री को अपमानित कर दिया. तो राहुल ने सही काम को गलत तरीके से किया.
दादी और पिता की नृशंस हत्या ने राहुल गांधी के व्यक्तित्व पर प्रभाव डाला
राहुल का ये अहंकार उनके अंदर की असुरक्षा की भावना को छुपा देता है. उनकी असुरक्षा की ये भावना खुलकर तब सामने आई जब कुछ साल पहले मां सोनिया गांधी ने इशारा दिया कि राहुल के लिए वो कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ने को तैयार हैं. लेकिन राहुल गांधी ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से उनका मतभेद अब बहुत हद तक दूर हो चुका है.
अब अगर राहुल गांधी के पृष्ठभूमि पर नजर डालते हैं. उनके पिता राजीव गांधी भी जबरदस्ती बनाए गए राजनेता थे. जून 1980 में भाई संजय गांधी की मौत के बाद, मां इंदिरा गांधी ने महीनों राजीव को मनाया और राजनीति में आने के लिए तैयार कराया. राजीव गांधी पायलट की अपनी नौकरी (1968-1980) से बहुत खुश थे और राजनीति से दूर ही रहते थे. अंतत: 1981 में कांग्रेस के गढ़ अमेठी से चुनाव लड़ने के लिए वो तैयार हो गए. हालांकि सोनिया गांधी ने पति के फैसले को पुरजोर विरोध किया था.
1984 में जब इंदिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया गया, तब सोनिया ने राजीव से प्रधानमंत्री का पद स्वीकार नहीं करने की मिन्नतें की थी. राहुल गांधी में भी पापा राजीव की तरह राजनेता बनने में दिलचस्पी नहीं थी. 34 साल तक राहुल गांधी ने इसे नजरअंदाज किया. इस उम्र में चाचा संजय गांधी की मौत हो गई थी और अब तक वो राजनीति के क्षेत्र में दस साल बिता चुके थे. 13 साल बाद वो अमेठी से सांसद बने. 47 की उम्र में राहुल गांधी ने अपनी अनिच्छा का चोला तो उतार फेंका लेकिन अपने अधिकार क्षेत्र को नहीं छोड़ा.
यह एक वंशवादी रोग है. इसके कीड़े ने सबसे पहले 1959 में अपना जहर फैलाया था जब जवाहर लाल नेहरू ने बेटी इंदिरा गांधी को अध्यक्ष पद सौंप दिया था. इंदिरा तब 41 साल की थी. इसके बाद से इस रोग ने हर पार्टी को अपनी जद में ले लिया. लेकिन भारतीय राजनीति के इस सामंती विचारधारा की पथ-प्रदर्शक कांग्रेस पार्टी ही रही.
हिमाचल और गुजरात चुनावों में तय हार के समय पार्टी अध्यक्ष का पद संभालकर राहुल गांधी ने कोई बहादुरी नहीं दिखाई है. राजीव गांधी बहादुर थे. उन्होंने देश में कंप्यूटर क्रांति लाई और प्रशासन का आधुनिकीकरण करने की कोशिश की. लेकिन उनके सलाहकार सही नहीं थे. फिर चाहे अरुण नेहरु हों या इटली के बिजनेसमैन ओटावियो क्वात्रोची.
पिता की तरह राहुल को भी नहीं थी राजनीति में रुचि
राहुल 2019 के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं. कांग्रेस को भरोसा है कि पांच मुख्य राज्यों में वो बीजेपी को टक्कर दे सकती है: उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़. यहां कांग्रेस 282 सीटों में से 60 सीटें छीन सकती है. 220 सीटों के साथ मोदी की एनडीए सरकार मुश्किल में आ जाएगी अगर शिव सेना ने साथ छोड़ दिया तब. इसके बाद भाजपा के पास दो ही प्रमुक पार्टियों का समर्थन हासिल होगा- जदयू और टीडीपी. एनडीए की सरकार के सीटों की संख्या 272 के नीचे सिमट जाएगी.
अगर विपक्ष एकजुट होकर बहुमत पा लेती है तो 1996-98 का इतिहास दोहराकर कांग्रेस इस सरकार को बाहर से समर्थन दे देगी. हालांकि ये सब्जबाग ही है. क्योंकि खुद कांग्रेस 2014 के अपने 44 सीटों की दयनीय स्थिति को सुधारने की हालत में नहीं दिख रही. इसके सारे समर्थक दल क्षेत्रीय पार्टी हैं और जिनमें से सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ही 30 लोकसभा सीट का आंकड़ा पार कर पाएगी.
अगर अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आती है तो हो सकता है मोदी का जादू फिर से लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगे. कांग्रेस ने चायवाला जैसे गलतियां अगर दोहरा दी तो बहुत मुमकिन है कि एनडीए एक बार फिर से 300 से ज्यादा सीटें ले जाए.
हालांकि इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी. हिमाचल और गुजरात के नतीजे लेकिन थोड़ा इशारा तो दे ही देंगे. राजनीति की हवा किस ओर बह रही है ये देखने के लिए हमें दिसंबर 2018 तक का इंतजार करना होगा जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव होंगे. ये चुनाव 2019 में राहुल गांधी के भविष्य को तय कर देंगे.
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