सचिन पायलट-सोनिया गांधी की मुलाकात क्या पंजाब कांग्रेस का सबक है?
सचिन पायलट (Sachin Pilot) भले ही सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) से मिल कर कुछ बेहतर उम्मीद कर रहे हों, लेकिन अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के तेवर बता रहे हैं कि वो हर कदम पर आड़े आएंगे ही - क्या सोनिया गांधी पंजाब से सबक लेते हुए बच्चों से बेहतर फैसला नहीं लेना चाहेंगी?
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सचिन पायलट (Sachin Pilot) की सोनिया गांधी से अरसा बाद मुलाकात हुई है. कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से पहले सचिन पायलट कुछ ही दिन पहले राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से भी मिले थे.
आलाकमान के साथ मीटिंग के लायक सचिन पायलट को यूपी चुनाव कैंपेन में टेस्ट लेने के बाद समझा गया. सोनिया गांधी के साथ सचिन पायलट का संपर्क जुलाई, 2020 में कांग्रेस के कुछ विधायकों के साथ उनकी बगावत से छह महीने पहले ही पहले ही टूट चुका था.
जनवरी, 2020 में अस्पताल में 100 से ज्यादा बच्चों की मौत के बाद सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने सचिन पायलट को कोटा भेजा था. तब सचिन पायलट राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे. वो दिल्ली में थे और सोनिया गांधी के निर्देश पर तत्काल जयपुर पहुंचे और फिर कोटा अस्पताल. जान गंवाने वाले बच्चों के परिवारवालों से भी मुलाकात की.
बच्चों की मौत पर सोनिया गांधी ने तत्कालीन राजस्थान प्रभारी अविनाश पांडे के माध्यम से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के प्रति नाखुशी जाहिर की और रिपोर्ट भी मांगी थी. सचिन पायलट को अलग से मौके पर भेज कर सोनिया गांधी रिपोर्ट देने को कहा था.
रिपोर्ट देने की नौबत आने से पहले ही सचिन पायलट अस्पताल में ही मीडिया के सामने अशोक गहलोत पर बरस पड़े - और अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. सोनिया गांधी के सचिन पायलट से नाराज हो जाने के लिए ये काफी था. हुआ भी वही.
तब से लेकर अभी तक सचिन पायलट के खिलाफ अशोक गहलोत लगे रहे. सोनिया गांधी के साथ साथ राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी अशोक गहलोत की बातों को ही तरजीह देते दिखे. फर्क बस ये था कि राहुल और प्रियंका विधायकों के साथ बगावत के बावजूद सचिन पायलट ने मिले थे, लेकिन सोनिया गांधी तैयार नहीं हुईं.
अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) ने निकम्मा और नालायक जैसे क्या क्या न कहा, लेकिन सचिन पायलट अपनी बात पर टिके रहे. ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह बीजेपी ज्वाइन करने के सवाल पर हमेशा ही जवाब रहा, मैं कहीं नहीं जा रहा हूं. फिर भी सचिन पायलट से डिप्टी सीएम की कुर्सी और राजस्थान कांग्रेस की कमान दोनों छीन ली गयी. करीब दो साल के वनवास के बाद यूपी चुनाव में सचिन पायलट को कैंपेन में शामिल किया गया था - और उसके बाद ही सोनिया गांधी से मुलाकात का रास्ता साफ हो सका.
अभी ये तो नहीं लगता कि राजस्थान का झगड़ा सुलझ जाएगा. क्योंकि अशोक गहलोत के तेवर अभी बदले नहीं हैं. सचिन पायलट से पहले सोनिया गांधी, अशोक गहलोत से भी मिली थीं. अब जबकि प्रशांत किशोर को पार्टी में लाकर कांग्रेस को ठोक बजा कर ठीक करने की नये सिरे से कोशिश हो रही है, सचिन पायलट निश्चित तौर पर कुछ उम्मीद तो कर ही सकते हैं.
सोनिया गांधी के सीधे हस्तक्षेप से एक बात तो साफ हो ही गयी है, पंजाब की तरह वो बच्चों की जिद के आगे आंख मूंद कर कांग्रेस के निर्देशों पर दस्तखत नहीं करने वाली हैं. पंजाब में तमाम एक्सपेरिमेंट के बाद सत्ता भी गंवा डालने का राहुल-प्रियंका को मलाल हो न हो, सोनिया गांधी को अफसोस तो हुआ ही होगा - ऐसे में लग रहा है कि सोनिया गांधी पंजाब में कांग्रेस को मिली सबक के हिसाब से ही सोच समझ कर कोई फैसला लेंगी.
अभी तो राजस्थान में यथास्थिति लगती है
शुरू से लेकर अब तक देखें तो सचिन पायलट ज्यादातर खामोश ही रहे. जब कभी बोलते थे तो बड़े ही नपे तुले शब्दों में अपनी बात कहते. मुद्दे पर फोकस. अपने स्टैंड पर सफाई देने से ज्यादा कुछ भी बोलने से परहेज करते - लेकिन अशोक गहलोत हमेशा ही सचिन पायलट के प्रति आक्रामक हो जाते. धोखेबाज. पीठ में छुरा भोंकने वाला न जाने क्या क्या कह जाते रहे.
कांग्रेस वाकई बदल रही है या सिर्फ विपक्षी खेमे को मैसेज देने की कोशिश भर है?
सोनिया गांधी से मिलने के बाद सचिन पायलट जब सामने आये तो उसी पुराने अंदाज में दिखे. जो अंदाज अशोक गहलोत को फूटी आंख नहीं सुहाता - 'अच्छा दिखने से कुछ नहीं होता. अच्छी अंग्रेजी बोलने से कुछ नहीं होता.'
सचिन पायलट ने बताया कि संगठन के चुनाव चल रहे हैं और पार्टी को मजबूत करने पर चर्चा हुई है. राजस्थान के राजनीतिक हालात पर उनके फीडबैक पर भी बात हुई है. बोले, 'AICC ने करीब दो साल पहले जो कमेटी बनाई थी, उसके माध्यम से हमने सरकार के भीतर कुछ उपयोगी कदम उठाये हैं... आगे काम करना है ताकि संगठित होकर 2023 के विधानसभा चुनाव में दोबारा सरकार बना सकें.'
मुलाकात का लब्बोलुआब सचिन पायलट ने एक लाइन में बता दिया, 'अच्छी मुलाकात हुई... मुझे लगता है कि आने वाले समय में मिलकर आगे बढ़ेंगे.'
अब भला ये सब अशोक गहलोत को कैसे बर्दाश्त हो, सिविल सर्विसेज डे पर अफसरों से मुखातिब हुए तो मुद्दे पर आ गये, निशाने पर सचिन पायलट ही रहे. कहने लगे, 'मैं लिखाकर लाया हूं... तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गया... देश में नेता कहते रहते हैं कि उनकी जाति के 35 एमएलए हैं... कोई कहता है 45 एमएलए हैं... मैं कहता हूं, मेरी जाति का राजस्थान में एक ही एमएलए है और वो मैं खुद ही हूं - चल रही है दुकानदारी!'
अशोक गहलोत का लहजा बदला हुआ था. साफ संकेत था कि सोनिया गांधी के दरबार में सचिन पायलट की पहुंच रोक पाने में वो नाकाम हुए हैं. सोनिया गांधी अब एकतरफा कुछ नहीं करने वाली हैं. दोनों को पक्षों को सुन कर और सोच समझ कर ही कोई फैसला लेने वाली हैं.
अपनी बातों से. अपने शब्दों से अशोक गहलोत विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि अभी वो चूके नहीं हैं. अब भी उनको भरोसा है कि जहां वो खड़े हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है, लेकिन ये सब किस्मत की बात है. और किस्मत का क्या, किसे मालूम कब तक किसका साथ दे.
अशोक गहलोत ने कुछ देर के लिए माहौल को इमोशनल भी बना डाला था. कह रहे थे, 'मेरे दिल में क्या है, वो मैं जुबां पर ला रहा हूं... जो संकट हुआ था... तब 34 दिन हम होटल में रहे थे... तब मैं सुबह होटल से आता, कुछ ऑफिशियल काम करता... शाम को पॉलिटिकल एक्टिविटी करते... क्राइसिस मैनेजमेंट करते... क्राइसिस बड़ी थी वो... आप सबकी दुआओं से बच गये - आज यहां खड़े हैं वरना यहां कोई और खड़ा होता... मेरा ही लिखा था, यहां खड़ा होना.'
पंजाब से सबक, राजस्थान में क्या होगा
पंजाब विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जो हालत हुई, हर किसी को आशंका भी वैसी ही रही होगी. सर्वे में तो नतीजों की झलक शुरू से ही मिलने लगी थी. अगर किसी ने सोचा नहीं होगा तो वो है आम आदमी पार्टी. आप को उम्मीदों से ज्यादा मिलने की उम्मीद तो नहीं ही रही होगा.
कांग्रेस की तरफ से पंजाब में खूब सारे प्रयोग हुए. यहां तक कि पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देने का क्रेडिट भी कांग्रेस को ही मिला, लेकिन जरा सा भी फायदा नहीं उठा सकी - और जो भी नुकसान हुए वो फैसलों की वजह से ही हुए.
पंजाब संकट के बीच ही नये कांग्रेस नेतृत्व के रूप में भाई-बहन की नयी जोड़ी की ताकत को महसूस किया गया. हर किसी ने यही समझा कि पंजाब को लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ही मिल कर सारे फैसले ले रहे हैं - और सोनिय गांधी तो बच्चों की बात मान कर बस दस्तखत कर देती हैं. भले ही बाद में बोलना पड़ा है, सॉरी अमरिंदर!
और तभी G-23 के नेता कपिल सिब्बल तो आगे बढ़ कर सवाल ही पूछने लगे - कांग्रेस में जब कोई स्थायी अध्यक्ष है ही नहीं तो फैसले कौन ले रहा है? और फिर सोनिया गांधी को CWC की बैठक में बड़े ही अदब के साथ बोलना पड़ा - अगर आप सब की अनुमति हो तो कहूं... मैं ही हूं कांग्रेस अध्यक्ष! ये सुनने में भी अजीब ही लगा कि CWC ने ही सोनिया गांधी को आंतरिक अध्यक्ष नियुक्त किया है - और वो खुद को लेकर अलग ही दावे कर बैठीं.
बेशक राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने स्टैंड पर कायम हैं, लेकिन लगता नहीं कि पहले की ही तरह राजस्थान में आगे भी सब कुछ उनके मनमाफिक ही होने जा रहा है - अगर ऐसी स्थिति रहती तो गांधी परिवार के दरबार में सचिन पायलट की एंट्री वो रोक पाने में सफल रहते.
1. आगे से वो सब नहीं चलेगा: अशोक गहलोत की बातों से तो ऐसा ही लगता है कि वो अभी हथियार नहीं डालने वाले. वजह जो भी रही हो, लेकिन सचिन पायलट का ये कहना कि वैभव गहलोत को टिकट दिये जाने के लिए पैरवी वो खुद किये थे. वैभव गहलोत, अशोक गहलोत के बेटे हैं.
बेटे को टिकट दिलाने के लिए दवाब बनाने को लेकर CWC की मीटिंग में राहुल गांधी ने खुद अशोक गहलोत का नाम लिया था. ये राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से पेशकश वाली मीटिंग का वाकया है. तब अशोक गहलोत के साथ साथ राहुल गांधी ने कमलनाथ का भी नाम लिया था.
कांग्रेस की मौजूदा गतिविधियों में कमलनाथ की गैरमौजूदगी को अलग से नोटिस किया जा रहा है. क्योंकि हाल की ज्यादातर बैठकों में दिग्विजय सिंह दिखायी देने लगे हैं. कमलनाथ ने अहमद पटेल की जगह लेने की भरपूर कोशिश की थी. हालांकि, अशोक गहलोत के साथ अलग व्यवहार देखा गया है.
मुख्यमंत्री होने के नाते अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल दोनों से प्रशांत किशोर पर अलग से राज ली गयी है - और अशोक गहलोत ने तो जोरदार पैरवी भी की है. देखना है, उनके मामले में क्या होता है?
अलग अलग छोर पर होने के बावजूद राजस्थान में गहलोत और पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू की बातों पर कांग्रेस नेतृत्व आंख मूंद कर भरोसा करते देखा गया था. जो सलूक सचिन पायलट के साथ हो रहा था, करीब करीब वैसा ही मुख्यमंत्री रहने के बावजूद तब कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ होता रहा. आखिरकार वो नौबत भी आयी जब सोनिया गांधी ने सिद्धू से इस्तीफा भी मांग लिया - और अब तो नयी नियुक्ति भी हो चुकी है.
2. सोनिया ने कमान अपने हाथ में ले ली है: असर तो प्रशांत किशोर का ही लगता है. ये भी हो सकता है कि सोनिया गांधी ने पंजाब को लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के हड़बड़ी में लिये गये फैसलों की भी समीक्षा करायी हो.
सोनिया गांधी ज्यादातर मामलों में पहले एक कमेटी बनाती हैं और उसके फीडबैक के बाद ही कोई फैसला लेती हैं. हो सकता है ये ज्यादा वक्त लेने की कोई ट्रिक भी हो. दूसरी तरफ, राहुल और प्रियंका फटाफट फैसले लेते रहे.
सोनिया गांधी की मौजूदा सक्रियता से लगता है कि अब कमान वो खुद अपने हाथ में ले चुकी हैं. फिर तो राजस्थान में वो सब नहीं होने जा रहा है जो अब तक पंजाब में होता आया है - मतलब, अब सोनिया गांधी भाई-बहन लीडरशिप पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करने वाली है.
3. न कोई 'सिद्धू' बनेगा, न 'गहलोत': ये तो नहीं कहा जा सकता कि पंजाब में कैप्टन कांग्रेस में रहे होते तो नतीजे ऐसे नहीं आते, लेकिन ये तो माना ही जा सकता है कि इतनी बुरी हालत तो नहीं ही होती. कैप्टन के कांग्रेस से चले जाने की वजह से डबल डैमेज हुआ है, ये तो सोनिया गांधी को भी लगता ही होगा.
सचिन पायलट तो वैसे भी सिद्धू जैसे नहीं हैं, लेकिन आगे से सोनिया गांधी, अशोक गहलोत को भी कैप्टन नहीं बनने देंगी. दोनों में मुख्यमंत्री रहते हुए एक कॉमन चीज भी महसूस की गयी थी, दोनों ही आलाकमान की परवाह नहीं करते रहे. अशोक गहलोत पहले तो नहीं, लेकिन जब सचिन पायलट से राहुल गांधी के किये गये वादे लागू करने की बात आयी तो, खबरें आयी कि वो अजय माकन के फोन नहीं उठा रहे थे. अजय माकन अपनी तरफ से तो कुछ कह नहीं रहे थे, वो तो बस गांधी परिवार के मैसेंजर की भूमिका में थे.
अब तो यही लगता है कि सोनिया गांधी अब न तो किसी को सिद्धू की तरह मनमानी की छूट देने वाली हैं, न ही अशोक गहलोत की तरह - और हां, सचिन पायलट की ही तरह बाकी मामलों में भी दोनों पक्षों को सुना जाएगा.
4. झगड़े भले न सुलझा पायें, कोशिश तो हो: सिर्फ पंजाब या राजस्थान ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी बिलकुल वैसा ही झगड़ा है. वहां भी भूपेश बघेल किसी की भी नहीं सुन रहे हैं. टीएस सिंह देव के तो सब्र का बांध ही टूट चुका है. कहां ढाई साल बाद मुख्यमंत्री बनने के ख्वाब संजोये हुए थे, कहां अगले चुनाव की तैयारी शुरू हो गयी.
मध्य प्रदेश में कमलनाथ का हाल भी अशोक गहलोत जैसा ही होने वाला है. लक्षण तो अभी से दिखायी पड़ रहे हैं. हरियाणा में भी मिलती जुलती ही हलचल है. ऐसा लगता है जैसे नेताओं के कांग्रेस छोड़ने के फैसले पर फिर से सोचने का माहौल बनाने की कोशिश हो रही है. ऐसा लगता है राहुल और प्रियंका गांधी के निडर और डरपोक नेताओं के पैरामीटर से ही अब सब कुछ तय नहीं होने वाला है - क्या राहुल गांधी को अब तक मिली मनमानी की छूट भी प्रभावित होने वाली है?
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