एमके स्टालिन का दिल्ली प्लान भी ममता जैसा ही है, लेकिन दोनों के एजेंडे में फर्क है!
एमके स्टालिन (Mk Stalin) भी देश के उन मुख्यमंत्रियों की कतार में शामिल हो गये हैं जिन्हें दिल्ली की राजनीति (National Politics) खींचने लगी है, लेकिन ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और स्टालिन में बड़ा फर्क ये है कि डीएमके सोशल जस्टिस के मुद्दे पर आगे बढ़ रही है.
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एमके स्टालिन (Mk Stalin) ने मई, 2021 में अपनी कैबिनेट के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और मार्च, 2022 के आखिर में जो कदम उठाया उसे मंत्रिमंडल में पहले फेरबदल के तौर पर भी समझा जा सकता है - लेकिन जो वजह सामने आ रही है वो काफी दिलचस्प है.
एक छोटी सी फेरबदल के केंद्र में स्टालिन के कैबिनेट साथी आरएस राजकनप्पन हैं - और डीएमके नेता ने जो फैसला लिया है उसका मकसद मंत्री को सबक सिखाना भर है, लेकिन तरीका बेहद नायाब है.
राजकनप्पन के पास शुरू से ही परिवहन विभाग रहा, लेकिन स्टालिन ने उनसे वापस लेकर एसएस शिवशंकर को परिवहन मंत्री बना दिया है. राजकनप्पन को मंत्रिमंडल से हटाया भी नहीं गया है - बल्कि उनको अब पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री बना दिया गया है.
इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाल से खबर दी है कि राजकनप्पन पर अपने इलाके के एक बीडीओ को बेइज्जत करने का आरोप लगा था. घटना 27 मार्च की बतायी जाती है और दो दिन बाद ही ये मंत्री राजकनप्पन के खिलाफ एक्शन हो गया. राजकनप्पन पहले भी काफी विवादों में रहे हैं और गुजरते वक्त के साथ पार्टियां भी बदलते रहे हैं. 1991 में जब जे. जयललिता तमिलनाडु में पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं तो राजकनप्पन कैबिनेट का हिस्सा रहे - बाद में उन पर भी आय से अधिक संपत्ति जुटाने का आरोप लगा, लेकिन 2015 में अदालत से बरी हो गये थे.
बताते हैं कि राजकनप्पन ने 57 साल के बीडीओ को अपने घर बुलाया था और डांट फटकार के साथ ही उसे शिड्यूल कास्ट बीडीओ कह कर संबोधित किया. मामला जब मुख्यमंत्री तक पहुंचा तो अपने मंत्री को सजा देने का ये तरीका अपनाया - अब स्टालिन ने राजकनप्पन को अपने हिसाब से भूल सुधार का मौका दिया है और मंत्री को अपने काम से खुद को नये सिरे से साबित करना होगा.
मुख्यमंत्री बनने के बाद से स्टालिन को लेकर ऐसी खबरें आती रही हैं. पहली खबर तो अम्मा कैंटीन को लेकर रही. जब डीएमके कार्यकर्ताओं ने अम्मा कैंटीन में तोड़ फोड़ मचाते हुए AIADMK नेता जयललिता के पोस्टर बैनर फाड़ डाले थे. जब स्टालिन को जानकारी मिली तो फिर से जयललिता का पोस्टर और बैनर वैसे ही लगाया गया - और हंगामा करने वाले डीएमके कार्यकर्ताओं के खिलाफ एक्शन भी लिया गया था.
चाहे वो मेडिकल कोर्स में ओबीसी कोटे का मामला हो या फिर तमिलनाडु के मंदिरों में गैर-ब्राह्मणों को पुजारी बनाने का डीएमके सरकार का फैसला, स्टालिन अपने फैसलों से बार बार ध्यान खींच रहे हैं.
और ये सब तब हो रहा है जब जातीय जनगणना की मांग करने वाले नेता ट्विटर पर बयान जारी करने से ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं. केंद्र की मोदी सरकार ने तो पहले ही साफ कर दिया है कि वो अगले सेंसस में जातीय जनगणना नहीं कराने जा रही है. ऐसा न कराये जाने पर पिछड़ी जातियों की तरफ से जनगणना के विरोध करने की बात करने वाले लालू यादव फिर से जेल पहुंच गये हैं और इसी मुद्दे पर राजनीति को आगे बढ़ाते हुए एक प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करने वाले नीतीश कुमार अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आये संकट से ही उबरने में लगे हुए हैं.
देखा जाये तो एमके स्टालिन ने राष्ट्रीय राजनीति (National Politics) में जो दस्तक दी है, वो भी उनके समकालीन मुख्यमंत्रियों की कोशिशों जैसा ही लगता है, लेकिन अगर ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) से तुलना की जाये तो बड़ा फर्क ये है कि डीएमके सोशल जस्टिस के मुद्दे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है.
स्टालिन का दिल्ली प्लान क्या है
ममता बनर्जी और एमके स्टालिन के दिल्ली के कार्यक्रमों की तुलना करें तो, मालूम होता है कि तीन दिन के दौरे में डीएमके नेता ने जो शक्ति प्रदर्शन किया है - ममता बनर्जी को उतनी अहमियत अब तक नहीं मिल पायी है.
स्टालिन और ममता से मिलने वाले नेताओं में कॉमन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जरूर रहे हैं. 2021 का बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी पहली बार दिल्ली आयी थीं तो अरविंद केजरीवाल उनके खुल मिलने पहुंचे थे - जरूरी नहीं कि अब भी वैसा ही नजारा देखने को मिले.
डीएमके के दफ्तर का उद्घाटन या शक्ति प्रदर्शन: डीएमके के दफ्तर 'अन्ना-कलैगनार अरिवलयम' के उद्घाटन से एक दिन पहले ही स्टालिन ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ मुलाकात का प्रोग्राम रख लिया था. मान कर चलना चाहिये स्टालिन ने ऐसा टकराव से बचने के लिए किया होगा - क्योंकि उद्घाटन कार्यक्रम में कांग्रेस और दूसरे नेताओं के साथ वो एडजस्ट शायद ही कर पाते.
विपक्ष की राजनीति में स्टालिन के मुकाबले ममता की राह ज्यादा मुश्किल लगती है
दीन दयाल मार्ग पर डीएमके दफ्तर के उद्धाटन के मौके पर मेहमानों के आवभगत में कनिमोझी आगे नजर आयीं और सबसे बड़ी मौजूदगी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की लगी. सोनिया गांधी संसद जाने के अलावा सार्वजनिक कार्यक्रमों में इन दिनों कम ही नजर आती हैं. सेहत सही न होने की वजह से चुनावों से तो पहले से ही दूरी बना ली है.
सोनिया गांधी के अलावा उद्धाटन कार्यक्रम में शामिल होने के लिए लखनऊ से समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव भी पहुंचे थे. लेफ्ट नेताओं में सीपीएम नेता सीताराम येचुरी और सीपीआई के डी. राजा ने भी शिरकत की.
ऐसी धमक ममता बनर्जी की तो हाल फिलहाल नहीं ही देखने को मिली है. पश्चिम बंगाल में तीसरा चुनाव जीतने के बाद पहले दौरे में तो ममता बनर्जी ने 10, जनपथ जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात की थी, लेकिन जब दोबारा पहुंची तो कहने लगीं बार बार मिलना जरूरी है क्या - संविधान में तो ऐसा कुछ लिखा नहीं.
पहली बार भी जब ममता बनर्जी ने दिल्ली का दौरा प्लान किया था तो एनसीपी नेता शरद पवार और कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम से विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाने की सलाह दी थी. मीटिंग बुलाना तो दूर, दिल्ली में रहते हुए भी शरद पवार ने तो मिलने तक का वक्त नहीं दिया.
बाद में ममता बनर्जी ने शरद पवार से मिलने के लिए मुंबई का कार्यक्रम बनाया और विपक्षी धड़े से कांग्रेस को अलग रखने की मांग की. लेकिन शरद पवार नहीं माने और उसके तत्काल बाद जब सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलायी तो दौड़े दौड़े पहुंचे. उस मीटिंग से ममता बनर्जी को भी दूर रखा गया था. बल्कि मीटिंग में हंसी मजाक भी हुआ कि अगर ममता बनर्जी को कुछ समझाना होगा तो प्रशांत किशोर से बात कर ली जाएगी.
मोहल्ला क्लिनिक और स्कूल भ्रमण: दिल्ली में स्टालिन और केजरीवाल की मुलाकात का बहाना राजधानी के मॉडल स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक. स्टालिन के साथ अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया भी मौके पर मौजूद रहे जहां स्कूल स्टाफ और अधिकारियों से भी स्टालिन को मिलवाया गया.
स्टालिन का कहना रहा कि तमिलनाडु में डीएमके सरकार बनने के बाद वो शिक्षा और मेडिकल क्षेत्रों को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहे हैं. स्टालिन ने बताया कि जैसे दिल्ली में मॉडल स्कूल चल रहे हैं वैसी ही कोशिशें तमिलनाडु में भी हो रही हैं. दिल्ली के स्कूलों को देखने के बाद स्टालिन ने उस मॉडल पर और फोकस करने का संकेत दिया है.
ममता बनर्जी और स्टालिन में फर्क
एमके स्टालिन भी देश के उन मौजूदा मुख्यमंत्रियों के क्लब में शामिल हो गये हैं जो राष्ट्रीय राजनीति में अपना दखल बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं. ममता बनर्जी तो ये काम पहले से ही कर रही हैं, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने भी काफी दिनों से सक्रिय बताये जाते हैं.
हालांकि, सार्वजनिक तौर पर केसीआर को ऐसा प्रयास करते 2019 के बाद पहली बार उनके मुंबई दौरे में देखा गया. केसीआर ने वहां एनसीपी नेता शरद पवार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से बात कर अपना एक्शन प्लान भी समझाया - और बाद में मीडिया को बताया कि जल्द ही विपक्ष का एजेंडा पेश किया जाएगा. ये तभी की बात है जब देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे थे. वैसे एजेंडा अभी तक सामने नहीं आया है.
वैसी ही छपटाहट बिहार के सीएम नीतीश कुमार में भी देखी जाती है, लेकिन बढ़ती उम्र और घटती लोकप्रियता से जूझ रहे जेडीयू नेता के लिए ये राह दिन ब दिन ज्यादा ही मुश्किल होती जा रही है. जब केसीआर मुंबई पहुंचे थे तभी नीतीश के पुराने सहयोगी प्रशांत किशोर दिल्ली में उनको विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति की उम्मीदवारी ऑफर कर रहे थे. नीतीश कुमार को कुछ ही दिन पहले हरियाणा के नेता ओम प्रकाश चौटाला की तरफ से भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की पेशकश की गयी थी.
पंजाब में सरकार बना लेने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में अगर कोई मजबूती से कदम बढ़ाते हुए नजर आ रहा है तो वो हैं - दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. अब तो वो गुजरात के लोगों से भी पंजाब जैसा ही एक बार सेवा का मौका मांगने लगे हैं - जाहिर है नजर तो 2024 के आम चुनाव पर ही टिकी है.
ममता बनर्जी हों या केसीआर दोनों में से किसी की तरफ से ऐसा कोई प्रस्ताव सामने नहीं आया है कि वे देश के लिए नया क्या करन चाहते हैं? अरविंद केजरीवाल जरूर ईमानदारी और विकास की राजनीति करने की बात कर रहे हैं.
लेकिन स्टालिन सबमें अलग नजर आते हैं. स्टालिन जो तमिलनाडु में कर रहे हैं उसे ही राष्ट्रीय फलक पर पेश करना चाहते हैं, ऐसा लगता है. अम्मा कैंटीन का मामला हो या फिर बीडीओ के बेइज्जती का केस, स्टालिन का स्टैंड न्यायप्रिय लगता है - और वो सोशल जस्टिस के अपने एजेंडे के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में दखल चाहते हैं.
स्टालिन और ममता बनर्जी की विपक्ष की राजनीति में तो सबसे बड़ा फर्क यही है कि स्टालिन सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं - और ममता बनर्जी जैसे भी मुमकिन हो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी को केंद्र के साथ साथ देश के तमाम हिस्सों से बेदखल करने का मुहिम चला रही हैं - और यही वो बिंदु है जहां स्टालिन, ममता पर भारी पड़ते लगते हैं.
ममता बनर्जी की तरह ही स्टालिन की भी हदें हैं. क्षेत्रीयता से उबर पाना उनके लिए सबसे बड़ी मुश्किल लगती है. हिंदी विरोध पर कायम लगते हैं, हालांकि, संजीदगी के साथ ये भी कहते हैं कि वो किसी भाषा विशेष के विरोधी नहीं हैं. लेकिन ममता बनर्जी की 2019 में हुई कोलकाता रैली में भी हिंदी तो दूर वो अंग्रेजी में भी नहीं बोले - तमिल में ही पूरा भाषण दिया और बांग्ला में उसका अनुवाद सुनाया गया.
ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और केसीआर से तुलना करें तो विपक्षी गठबंधन को लेकर एमके स्टालिन की पॉलिटिक्स भी बिलकुल अलग नजर आती है. ममता बनर्जी और केसीआर दोनों ही गैर-बीजेपी के साथ साथ गैर-कांग्रेस विपक्षी गठबंधन चाहते हैं, अरविंद केजरीवाल तो बिलकुल अलग ही रहना चाहते हैं - लेकिन स्टालिन कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के साथ चल रहे हैं.
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