बेगूसराय में तेजस्वी यादव क्यों गिरिराज सिंह को जिताने पर तुले हुए हैं
बेगूसराय को लेकर तेजस्वी यादव काफी सक्रिय देखे गये हैं. हैरानी की बात ये है कि तेजस्वी यादव की सक्रियता आरजेडी उम्मीदवार तनवीर हसन की जीत सुनिश्चित करने में नहीं रही - बल्कि निशाना कहीं और रहा.
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बेगूसराय में 29 अप्रैल को वोटिंग होनी है. मुकाबला तो त्रिकोणीय है लेकिन कन्हैया कुमार और गिरिराज सिंह को लड़ाई में आगे मानकर तनवीर हसन को तीसरे नंबर पर रखा जा रहा है. ऐसे चुनावी आकलन कई बार फेल हो जाते हैं लेकिन जातीय समीकरण ही मजबूत इसका आधार बन रहे हैं. असलियत तो 23 मई को ही मालूम हो पाएगी.
आरजेडी उम्मीदवार तनवीर हसन को भले ही तीसरे स्थान पर रखा जा रहा हो, लेकिन वो ही इस लड़ाई की मुख्य कड़ी बने हुए हैं. बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह के वोट तयशुदा तो हैं ही, तनवीर हसन के भी हैं. तय वोट तो कन्हैया के भी हैं क्योंकि बेगूसराय सीपीआई का गढ़ रहा है.
कन्हैया कुमार और गिरिराज सिंह की हार जीत का फैसला मुख्य तौर पर भूमिहार और मुस्लिम वोटों पर निर्भर है. राष्ट्रवाद के नाम पर जो धारणा बनी हुई है उसमें एक छोर पर गिरिराज सिंह तो दूसरी छोर पर कन्हैया कुमार खड़े हैं. गिरिराज सिंह की सबको पाकिस्तान भेजने वाली छवि बनी हुई है तो कन्हैया कुमार देशद्रोह के आरोपी हैं, जो जमानत पर हैं. तनवीर हसन के समर्थक मुस्लिम वोटों को लेकर माना जाता है कि वे उस उम्मीदवार के हिस्से में आते हैं जो बीजेपी को शिकस्त देने का माद्दा रखता हो.
यही वो फैक्टर है जिसके चलते आरजेडी नेता तेजस्वी यादव बेगूसराय में विशेष दिलचस्पी ले रहे हैं. तेजस्वी यादव चाहते हैं कि मुस्लिम वोट तनवीर हसन को भी मिले - ऐसा हुआ तो नतीजा तेजस्वी यादव के मनमाफिक होगा. अगर ऐसा हुआ तो तनवीर नहीं बल्कि गिरिराज सिंह के जीतने की संभावना बढ़ जाएगी. तेजस्वी की ज्यादा दिलचस्पी तनवीर की जीत से कन्हैया की हार में हैं - लेकिन ऐसा क्यों है?
तीसरे स्थान वाले तनवीर हसन निर्णायक कैसे बन गये?
2014 में तनवीर हसन को भी कम वोट नहीं मिले थे और हार जीत का फासला भी बहुत बड़ा नहीं था. पांच साल भी वैसा ही होगा जरूरी नहीं है. 2014 में तनवीर हसन को 3,69,892 वोट मिले थे, लेकिन बीजेपी के भोला सिंह ने 4,28,227 वोट बटोर कर संसद पहुंच गये थे. फिर ऐसा क्या है कि तनवीर हसन को इस बार लड़ाई में तीसरे स्थान पर धकेल दिया जा रहा है? इसकी वजह सिर्फ सीपीआई प्रत्याशी कन्हैया कुमार का चुनाव मैदान में होना है. 2014 में सीपीआई उम्मीदवार राजेंद्र प्रसाद सिंह को 1,92,639 वोट मिले थे और वो तीसरे स्थान पर रहे थे.
साल भर से पहले से ही बेगूसराय से कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी की संभावना जतायी जा रही थी. बीजेपी और जेडीयू नेताओं को इस बात की फिक्र थी कि आरजेडी कहीं कन्हैया को महागठबंधन का उम्मीदवार न बना दे. तभी हुआ ये कि आरजेडी ने सीपीआई को महागठबंधन में जगह देने से इंकार कर दिया और दूसरी तरफ जेडीयू ने नवादा की सीट मांग ली - नतीजा ये हुआ कि मर्जी के बगैर गिरिराज सिंह को आलाकमान के हुक्म की तामील करना पड़ा. कन्हैया के समर्थन में देश भर से उनके साथियों के अलावा स्वरा भास्कर, प्रकाश राज और जावेद अख्तर भी पहुंचे थे. जावेद अख्तर ने तो तंज कसते हुए मुस्लिम मतदाताओं को चेताया भी.
जावेद अख्तर ने तो मुस्लिम समुदाय को ऐसे समझाया कि तनवीर हसन को देकर वोट खराब करने से तो बेहतर है, वे गिरिराज सिंह को ही दे दें - कम से कम बीजेपी वाले एहसान तो मानेंगे. जावेद अख्सर ने कहा, 'अगर आपने कन्हैया को वोट नहीं दिया तो फिर बीजेपी जीतेगी... तो फिर ऐसा कीजिए ना... जाइए सलाम वालैकुम कहिये और कहिये हुजूर ये बीजेपी के लिए वोट लेकर आया हूं. तो कम से कम बीजेपी वाले आपका एहसान तो मानेंगे. आप अगर वहां वोट दे देंगे जो बीजेपी की मदद तो कर देगा लेकिन बीजेपी पर एहसान नहीं होगा. ये तो बड़ी नादानी की बात होगी.'
पूरे मुस्लिम समुदाय पर तो नहीं, लेकिन कुछ लोगों पर जावेद अख्तर की बात का असर जरूर हुआ है. ऐसे मुस्लिम वोटर मीडिया से बातचीत में कहते हैं कि मुस्लिमों के पास ये साबित करने का एक मौका है कि वे हसन की जगह कन्हैया कुमार को चुनें और जतायें कि वे वाकई धर्मनिरपेक्ष हैं. ताकि ये धारणा भी टूटे कि हर मुस्लिम वोटर मुस्लिम उम्मीदवार को ही वोट देता है.
लालू प्रसाद ने कन्हैया को आशीर्वाद तो दिया लेकिन महागठबंधन में जगह नहीं...
बदले हालात में सिर्फ पांच साल बाद तनवीर हसन अभी कन्हैया कुमार और गिरिराज सिंह के बीच वोटकटवा की भूमिका में आ चुके हैं. जब ये बात बेगूसराय का बच्चा बच्चा जान रहा है तो भला तेजस्वी यादव को क्यों नहीं मालूम होगा? मालूम है. अच्छे से मालूम है और यही कारण है कि तेजस्वी यादव ने तनवीर हसन को ज्यादा से ज्यादा वोट दिलाने में पूरी ताकत झोंक दी है.
फिर तो तनवीर हसन जीतने से रहे. सही बात है, तेजस्वी तो आरजेडी उम्मीदवार के लिए वोट ही इसलिए मांग रहे हैं कि गिरिराज सिंह जीत जाएं. अब कोई सोचेगा कि तेजस्वी यादव भला गिरिराज को जीतते क्यों देखना चाहेंगे? जवाब है - क्योंकि जीतेगा तो कोई एक ही, गिरिराज सिंह की जीत यानी कन्हैया कुमार की हार. यही तो.
तेजस्वी यादव चाहते हैं कि गिरिराज सिंह ही जीतें
महागठबंधन में जगन नहीं मिलने के बावजूद सीपीआई ने हथियार नहीं डाले हैं. कन्हैया कुमार को जिताने के लिए सीपीआई नेता हर जुगत लगाने को तैयार देखे जा सकते हैं.
पहले सीपीआई के स्थानीय नेताओं ने और फिर पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सुधाकर रेड्डी ने भी तेजस्वी यादव से से तनवीर हसन को चुनाव मैदान से हटाने की अपील की थी. जब तेजस्वी यादव ने कन्हैया कुमार को महागठबंधन का उम्मीदवार नहीं बनने दिया तो भला सीपीआई नेता की अपील का क्या मतलब रह जाता है.
ऐसा माना गया कि कन्हैया कुमार पर देशद्रोह के आरोपों के चलते तेजस्वी यादव हिचक गये और बेगूसराय से अपना उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला किया. समझा गया कि तेजस्वी यादव को लगा कि बीजेपी और जेडीयू के लोग देशद्रोह का मुद्दा उछाल कर बेवजह तूल देंगे और सिर्फ बेगूसराय ही नहीं दूसरे इलाकों में भी लड़ाई मुश्किल हो जाएगी. मगर, बात सिर्फ इतनी नहीं है.
दरअसल, तेजस्वी यादव को लगता है कि चुनाव जीत कर कन्हैया कुमार बिहार से बड़े युवा नेता हो जाएंगे - और संसद में उनकी आवाज गूंजने लगेगी. कन्हैया पढ़े लिखे भी हैं और भाषण भी अच्छा देते हैं. एक बार चुनाव जीत जाने के बाद कन्हैया कुमार को रोक पाना मुश्किल हो जाएगा. एक वजह ये भी है कि कन्हैया कुमार की जीत की हालत में सीपीआई का भी मनोबल बढ़ेगा और वो भी बिहार में अलग अलग इलाकों में खुद को मजबूत करने में जुट जाएगी. सीपीआई के मजबूत होने का नुकसान भी आरजेडी को सबसे ज्यादा हो सकता है क्योंकि सेंधमारी तो उसीके वोट बैंक में सबसे पहले होगी.
जेल से छूटने के बाद कन्हैया कुमार बिहार गये तो पटना में लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के घर गये और पैर छूकर आशीर्वाद भी लिया. लालू प्रसाद ने कन्हैया को आशीर्वाद तो दिया लेकिन लगे हाथ ये भी तय कर लिया कि उन्हें कभी उभरने नहीं देंगे. कन्हैया को उभरने नहीं देना तो लालू प्रसाद के लिए संभव नहीं हो पाया, लेकिन रोड़ा बनने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.
कन्हैया के नाम पर महागठबंधन में लालू की मंजूरी नहीं मिली क्योंकि उनके मन में एक डर था. डर तो तब भी हुआ था जब पप्पू यादव जैसे नेता आरजेडी पर कब्जा जमाने की तैयारी में थे. लालू ने साफ कर दिया था कि बेटा ही वारिस होगा. अब बेटे को विरासत सौंप देने के बाद उसके भविष्य का भी तो ख्याल रखना पड़ता ही है.
ये पटना के सत्ता के गरियारों में आम चर्चा है कि कन्हैया कुमार की राह में आरजेडी के रोड़ा बनने के पीछे लालू प्रसाद का एक बड़ा डर है. लालू प्रसाद कभी नहीं चाहते कि तेजस्वी यादव का कोई हमउम्र नेता बिहार में उभरे या फिर बिहार से दिल्ली पहुंच कर धाक जमाये. कन्हैया कुमार ने बेगूसराय और बिहार से होने के साथ ही दिल्ली में अपनी पहचान बनायी है.
तेजस्वी यादव के बाद आरजेडी में फिलहाल सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाले मनोज झा को भी इसमें अपना फायदा दिखा. कन्हैया कुमार के चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंच जाने पर उनकी राजनीति भी प्रभावित होती. मनोज झा पटना के साथ साथ दिल्ली की राजनीति में भी अपनी स्थिति कायम रखना चाहते हैं. कन्हैया को बाहर रखने का फैसला अकेले तेजस्वी का नहीं था - बल्कि मनोज झा की सलाह पर लालू प्रसाद की मुहर रही.
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