थरूर को पायलट की तरह राहुल गांधी के सामने धैर्य दिखाने की जरूरत नहीं है
शशि थरूर (Shashi Tharoor) निशाने पर तो पहले से ही थे. अब उनका हाल भी अब सचिन पायलट (Sachin Pilot) जैसा हो गया है, लेकिन जरूरी नहीं कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) कांग्रेस सांसद के धैर्य की तारीफ भी वैसे ही करें - लिहाजा शशि थरूर को वही करना चाहिये जो मन करता हो.
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शशि थरूर (Shashi Tharoor) को कांग्रेस में बनी नयी नयी स्टीयरिंग कमेटी में जगह न दिया जाना कोई अजीब बात नहीं है. अगर ऐसा हुआ होता तो मल्लिकार्जुन खड़गे की तारीफ जरूर हुई होती - हालांकि, ये भी जरूरी नहीं है कि ये मल्लिकार्जुन खड़गे का ही निजी फैसला हो.
मल्लिकार्जुन खड़गे पहले ही कह चुके हैं कि वो आम सहमति से काम करेंगे. निश्चित तौर पर सोनिया गांधी के अनुभव का लाभ लेने की कोशिश करेंगे - और ये भी तय है कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भी मल्लिकार्जुन खड़गे को अपने अनुभव का लाभांश देंगे ही. थोड़ा कम या ज्यादा कभी कभी भले ही हो सकता है.
सोशल मीडिया तो वैसे भी हर ट्रेंड के लिए अति उपजाऊ जगह होती है. और शशि थरूर के साथ तो कुछ भी हो, सोशल मीडिया का हॉट टॉपिक तो बन ही जाता है. गैर-गांधी अध्यक्ष की बनायी कांग्रेस की पहली कमेटी के सदस्यों का नाम आते ही लोग कहने लगे - शशि थरूर को कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने की सजा दी जा रही है.
शशि थरूर का जिक्र आने पर कुछ लोग सचिन पायलट का भी उदाहरण देने लगे हैं. दलील भी बहुत वाजिब है, सचिन पायलट (Sachin Pilot) जैसे युवा नेता को भी तो स्टीयरिंग कमेटी में जगह नहीं ही मिली है. शशि थरूर फिलहाल 66 साल के हैं, जबकि सचिन पायलट अभी 50 के भी नहीं हुए हैं. ये प्रसंग इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे ने ही कहा था कि 50 से कम उम्र वालों को 50 फीसदी जगह दी जाएगी.
देखा जाये तो अब शशि थरूर का हाल भी सचिन पायलट जैसा ही हो गया है. हालांकि, सचिन पायलट का पलड़ा थोड़ा भारी भी लगता है - और ये राजस्थान के कांग्रेस विधायकों की हालिया हरकतों के पीछे अशोक गहलोत की भूमिका समझी जाने के बाद हुआ है. ये तो माना ही जा सकता है कि सचिन पायलट पहले के मुकाबले गांधी परिवार की नजर में सहानुभूति के पात्र बने हैं. सोनिया गांधी और राहुल गांधी, सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, लेकिन अशोक गहलोत ने पेंच फंसा रखा है. सचिन पायलट समझदारी से काम ले रहे हैं और खामोशी अख्तियार किये हुए हैं.
गोवर्धन पूजा के मौके पर सचिन पायलट के अपने पैतृक गांव नोएडा के वैदपुरा पहुंचने को लेकर भी काफी चर्चा है. ऐसा भी नहीं कि सचिन पायलट कोई पहली बार बड़े दिनों बाद अपने गांव पहुंचे हों. पहले भी वो आते रहे हैं, लेकिन जिस तरीके से उनका स्वागत सत्कार हुआ है, ये समझने की भी कोशिश है कि कहीं सचिन पायलट राजस्थान से शिफ्ट होने के प्लान पर तो नहीं काम कर रहे हैं. कुछ दिन पहले ही सचिन पायलट ने ऐसी बातों को खारिज किया था और तब से काफी कुछ बदल चुका है.
यूपी चुनाव 2022 में भी सचिन पायलट को सक्रिय देखा गया था और अब प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ हिमाचल प्रदेश चुनाव में भी प्रमुख भूमिका दी गयी है. ये भी ऐसे वक्त हुआ है जब अशोक गहलोत को राजस्थान देखने को बोल दिया गया है - मतलब, राजस्थान के कांग्रेस विधायकों की बगावत के मामले में अशोक गहलोत को क्लीन चिट दिया जाना यूं ही नहीं था. सारी मनमानी करने के बावजूद अशोक गहलोत को नजरअंदाज करना सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए मुश्किल हो रहा है - और ये भी समझ लेना होगा कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने तक राजस्थान का मामला टल गया है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव हार जाने के बाद भी शशि थरूर को अपने तात्कालिक पद पर बने रहने का ऑफर मिला था, लेकिन शशि थरूर को उसी शख्स के साथ काम करना मंजूर न था जिसे खुले मैदान में चैलेंज किया हो. कांग्रेस में भी शशि थरूर के साथ अब वैसी ही स्थिति बन गयी है - सचिन पायलट को भले ही अभी और धैर्य की परीक्षा देनी होगी, लेकिन शशि थरूर के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है.
ऋषि सुनक के बहाने थरूर ने अपनी बात कह दी है
शशि थरूर को कांग्रेस ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं दिया है, जिसे वो डिजर्व करते हैं. यूपीए 2 की मनमोहन सिंह सरकार में कुछ दिन के लिए शशि थरूर को मंत्री जरूर बनाया गया था, लेकिन दर्जा राज्य मंत्री का ही दिया गया. शशि थरूर को केंद्र सरकार के विदेश विभाग में एसएम कृष्णा के नीचे राज्य मंत्री बनाया गया था - मतलब, जो गांधी परिवार का करीबी था वो कैबिनेट मंत्री बना और जिसे विदेश मामलों की सबसे ज्यादा समझ थी उसे राज्य मंत्री बनाया गया.
ऋषि सुनक के बहाने राहुल गांधी को शशि थरूर ने जो कुछ समझाने की कोशिश की है, अगर समझ में न आये तो ये सब करने का कोई फायदा नहीं है
किसी को मंत्री बनाया जाना या न बनाया जाना, या किस विभाग में कौन सा दर्जा दिया जाना ये सब प्रधानमंत्री का अधिकार होता है, लेकिन जब मामला 'एक्सीडेंटल प्रधानमंत्री' के कार्यकाल का हो और भेदभाव नजर आये तो सवाल तो उठेगा ही.
ये बात उस दिन पूरी तरह साबित हो गयी, जब बतौर विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में दूसरे देश का भाषण पढ़ना शुरू कर दिया था - मतलब, एक्सीडेंटल कैबिनेट मंत्री भी वही बन पाता है, जो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ये भी भूल जाता था कि वो किस मुल्क का विदेश मंत्री है?
शशि थरूर ने एक कॉलम में ब्रिटेन के नये प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के बहाने अपनी पीड़ा शेयर की है. शशि थरूर लिखते हैं, 'ऋषि सुनक भारत में होते तो सत्ताधारी पार्टी में पीछे की बेंचों पर बैठे होते - ज्यादा से ज्यादा उनको किसी राज्य मंत्री के दर्जे से नवाज दिया गया होता.'
ऋषि सुनक को ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनाया जाना, शशि थरूर की नजर में बराक ओबामा के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है. शशि थरूर का कहना है कि ब्रिटेन ने ऐसा काम किया है, जो दुनिया में कहीं भी होना बहुत दुर्लभ है... जब लोगों के लिए धर्म, जाति के मसले पर तटस्थ बने रहना मुश्किल हो. शशि थरूर का मानना है कि ब्रिटेन के कंजर्वेटिव सदस्यों ने अपने नेता के रूप में भूरी चमड़ी वाले एक हिंदू को चुन लिया - वो भी तब जबकि वहां की आबादी में महज 7.5 फीसदी ही एशियाई लोग हैं.
शशि थरूर की दलील है कि अमेरिकी राजनीति में अश्वेतों की बड़ी भूमिका पहले से रही है, जबकि ब्रिटेन में एशिया के लोगों या भारतीयों की वैसी हैसियत नहीं है. शशि थरूर ने अपने एक कॉलम में लिखा भी है, 'संसद में दाखिल होने के सात साल बाद प्रधानमंत्री बन जाना विस्मयकारी है... ये दिखाता है कि ब्रिटिश लोगों को प्रतिभा की कद्र करना आता है - और वे समय रहते उसका सम्मान करना भी जानते हैं.
शशि थरूर ने सत्ताधारी पार्टी की तरफ संकेत जरूर किया है, लेकिन उनका आशय बीजेपी कतई नहीं लगती. वो, दरअसल, 2014 के पहले केंद्र की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस की बात कर रहे हैं - और राज्य मंत्री के ओहदे का जिक्र कर शशि थरूर ने अपनी ही मिसाल दी है.
2. ऐसी आइडियोलॉजी को ढोने से क्या फायदा
मोदी लहर में जीतने वाले की भी कद्र नहीं: ऋषि सुनक का नाम लेकर शशि थरूर ने प्रतिभा के कद्र की बहस छेड़ने की कोसिश की है. कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के दौरान भी शशि थरूर ऐसी बातें कर रहे थे.
शशि थरूर बार बार याद दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि वो कोई राज्य सभा सांसद नहीं हैं, मतलब ये कि वो गांधी परिवार के कृपा पात्र होने की वजह से सांसद नहीं बने हैं. वो लोक सभा का चुनाव लड़ कर लगातार तीन बार से संसद अपने बूते पहुंच रहे हैं.
असल में उनका इशारा मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ रहा, जिनको लोक सभा का चुनाव हार जाने के बाद सोनिया गांधी ने न सिर्फ राज्य सभा भेजा, बल्कि गुलाम नबी आजाद के रिटायर हो जाने के बाद विपक्ष का नेता भी बनवा दिया था. बाद में एक व्यक्ति, एक पद की नीति पर चलते हुए मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्य सभा में विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा भी दे दिया था.
वैसे तो मल्लिकार्जुन खड़गे को कर्नाटक में कभी न हारने वाले नेता के तौर पर जाना जाता रहा है, लेकिन 2019 के आम चुनाव ने उनका रिकॉर्ड खराब कर दिया - फिर भी शशि थरूर बार बार बताते रहे कि तीन में दो चुनाव तो वो मोदी लहर में ही जीते हैं. ऐसा बोल कर वो बहाने से राहुल गांधी को भी सुना देते रहे, एक सीट अमेठी से तो राहुल गांधी भी चुनाव हार ही गये थे.
जब बातों की ही कोई कद्र न हो: कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में शशि थरूर ने बाकायदा एक मैनिफेस्टो पेश किया था - और बताया था कि किस तरह कांग्रेस को पुराने वाले अच्छे दिनों की तरफ ले जाया जा सकता है, लेकिन सुनता कौन है भला.
शशि थरूर के समझाने की कोशिश रही कि कांग्रेस ने 2014 और 2019 में सिर्फ 19 फीसदी वोट पाये थे, ऐसे में लोगों के बीच पहुंचना जरूरी है. जो वोटर रूठ कर कांग्रेस को छोड़ चुका है उस तक पहुंच कर मनाये जाने के बाद वापस भी लाया जा सकता है, लेकिन शशि थरूर की ये बातें नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित होती रही हैं.
मल्लिकार्जुन खड़गे भी कांग्रेस की चुनौतियों का जिक्र कर रहे हैं, लेकिन उनको मालूम है कि ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं है. वो तो बस दस्तखत करने के लिए अधिकृत किये गये हैं - फिरा ज्यादा पसीना बहाने से क्या फायदा.
थरूर को हमेशा ही हाशिये पर रखा गया: शशि थरूर अगर मुख्यधारा की राजनीति में बने हुए हैं तो ये उनके अपने व्यक्तित्व की बदौलत ही मुमकिन हुआ है, वरना कांग्रेस ने तो उनको हमेशा हाशिये पर ही रखा है.
कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में भी शशि थरूर ये मुद्दा बार बार उठाते रहे कि पार्टी पदाधिकारी मल्लिकार्जुन खड़गे को हाथों हाथ लेते रहे, लेकिन उनके कहीं भी जाने पर कोई मिलने तक तो तैयार नजर नहीं आता था.
निश्चित तौर पर शशि थरूर ये सब होने से दुखी हैं, लेकिन लगातार ये सिलसिला जारी रहे तो भला कब तक बर्दाश्त करेंगे? चुनाव के बहाने भी शशि थरूर गांधी परिवार को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि उनकी काबिलियत और अनुभव का फायदा उठाने की कभी कोशिश नहीं हुई और हमेशा ही उनके साथ भेदभाव होता रहा है.
ऐसी राजनीति से भला क्या मिलने वाला है: शशि थरूर के बयानों को लेकर कई बार विवाद हो चुका है. देखा जाये तो शशि थरूर भारतीय राजनीक संस्कृति में ही मिसफिट है, लेकिन कांग्रेस में खुद को बनाये और बचाये रखना शशि थरूर के लिए मुश्किल होता जा रहा है.
ऐसी भी खबरें आयी हैं, जब सोनिया गांधी ने भरी मीटिंग में शशि थरूर को फटकार लगायी थी. लोक सभा का चुनाव भले ही जीतते रहे हों, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हार जाने के बाद पार्टी में उनके लिए बचता ही क्या है?
ये शशि थरूर ने ही बताया था कि संयुक्त राष्ट्र से भारत लौटने के बाद उनके पास और भी राजनीतिक दलों से ऑफर था, लेकिन कांग्रेस की आइडियोलॉजी उनको अच्छी लगी और वो उसी के साथ राजनीति करने का फैसला किये - लेकिन जब शशि थरूर के मन का कोई काम ही नहीं होने वाला या काम नहीं करने दिया जाये तो ऐसी आइडियोलॉजी की राजनीत करने से क्या फायदा?
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