Ukraine special 1- यूक्रेन में अमेरिका-यूरोप और रूस के ग्रेट गेम की कहानी...
यूक्रेन और रूस के युद्ध पर तमाम तरह की बातें हो रही हैं लेकिन उससे पहले हमें ये समझना होगा कि दोनों मुल्कों के बीच भी फैली जटिलाएं कोई एक दिन की देन नहीं हैं. इसके बीज बहुत पहले ही डाले गए थे. बाकी चाहे यूक्रेन हो या रूस उन्हें ये भी समझना होगा कि युद्ध शुरू करना आसान है मगर ख़त्म करना बेहद मुश्किल है.
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तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी. रूस और यूक्रेन का संबंध ‘दिल हीं तो है ‘फ़िल्म के गाने की तरह है. रूस- यूक्रेन युद्ध को एक ताकतवर देश का कमजोर देश पर हमले की तरह नहीं देखा जा सकता है. अमेरिका इसे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के यूएसएसआर का हैंगओवर कह रहा है. तो यूरोप पुतिन का नियो नाजी अवतार बता रहा है.
रूस यूक्रेन के बीच युद्ध की वजह
पहला चरण
यूक्रेन यूरोप में रूस के बाद सबसे बड़े क्षेत्रफल वाला देश है यह पश्चिम देश के लिए रूस में घुसने का दरवाज़ा या फिर रूस को घेरने का सबसे बड़ा बॉर्डर भी है. वैसे तो यूक्रेन 1944 में ही संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक देश बन चुका था मगर यह सोवियत संघ का अभिन्न हिस्सा भी था. सोवियत संघ की ताक़त के आगे संयुक्त राष्ट्र में दुनिया ने यूक्रेन को एक अलग देश के रूप में मान्यता दी क्योंकि यूएन में सोवियत संघ को वीटो पावर के लिए 50 देशों के वोट चाहिए थे.
यूक्रेन और रूस विवाद कोई एक दिन का नहीं है इसकी तैयारी बहुत पहले ही हुई थी
यूएसएसआर यूक्रेन देश के रूप में यह संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक देश बना मगर हक़ीक़त में यूक्रेन 1922 से लेकर 1991 तक कभी भी आज़ाद मुल्क़ नहीं रहा. कम्युनिस्ट पार्टी के शासन के दौर में मिखाइल गोर्बाचोव का सोवियत संघ का वह दौर था जब अमेरिका और यूरोप को लगा कि यूएसएसआर यूक्रेन को सोवियत संघ के ख़िलाफ़ खड़ा किया जा सकता है.
यूरोप और अमेरिका ने दर्जनों एनजीओ और स्वंय सेवी संस्थाएँ बनाए जिनके ज़रिए यूएसएसआर यूक्रेन में आज़ादी के लिए ज़बर्दस्त फंडिंग शुरू की गई. इसके लिए अमेरिका और यूरोप के कई विश्वविद्यालयों को जोड़ा गया जहां पर यूक्रेन के ऐतिहासिक दस्तावेज़ तैयार किए गए हैं जिसे यूक्रेन में सप्लाई किया गया.
इन दस्तावेजों में पश्चिम देश और अमेरिका यूक्रेन की जनता को बताना शुरू किए कि 1917 में यूक्रेन एक आज़ाद मुल्क था जिसपर सोवियत संघ ने क़ब्ज़ा कर रखा है. 21 जनवरी 1990 को अमेरिका और यूरोप 70 सालों में पहली बार सफल हुआ जब कीव में 1919 की Ukrainian Peaple Republic और West Ukrainian people Republic की आज़ाद यूक्रेन की याद में मानव श्रृंखला बनाकर मॉस्को को चुनौती दी गई.
अमेरिका समर्थित यह आंदोलन बढ़ता चला गया जिसमें एक तरफ मिखाइल गोर्बाचोव के खिलाफ़ मॉस्को में कम्युनिस्टों की असफल तख्ता पलट की घोषणा हुई और दूसरी तरफ़ अमेरिका और यूरोप की मदद से 24 अगस्त 1919 को यूक्रेनियन पार्लियामेंट नेएक्टर ऑफ़ इंडिपेंडेंस की घोषणा कर दी. आज़ादी के लिए रेफरेंडम का सहारा लिया गया जिसमें यूरोप-अमेरिका के अनुसार 92 फ़ीसदी लोगों ने आज़ादी के पक्ष में मत दिया था. इसी रेफरंडम के यूरोप-अमेरिकी हथियार का सहारा लेकर रूस ने क्रिमिया, दोनेस्तक और लुहांसक में पिपल रिपब्लिक बना डाला.
ऐतिहासिक संदर्भ
ग़ौरतलब है कि रूसी क्रांति के उथल पुथल के दौर में रूसी जार से आज़ाद होकर पहली बार ईस्ट यूक्रेन में Ukrainian People Republic की स्थापना 1917 में एक आज़ाद मुल्क के रूप में हुई थी. और ब्रिटेन समेत पश्चिमी देशों ने इसकी तुरंत मान्यता भी दे दी थी. पर सोवियत संघ में बोल्शेविक लौटे तो यूक्रेन में भी ये मज़बूत हुए.
पश्चिम देशों ने उसे रोकने के लिए यूक्रेन के यूरोप से लगे दूसरे भाग West Ukrainian Natationl Republic का गठन कर 1919 में मोस्को को रोकना चाहा पर 1922 में मॉस्को ने यूरोप और अमेरिका की रणनीति को धत्ता बताते हुए Ukrainian people Republic को यूएसएसआर का हिस्सा बना यूएसएसआर यूक्रेन नाम दिया. यानी यूक्रेन में रूस अमेरिका यूरोप का जो खेल मौजूदा समय में खेला जा रहा है यह खेल बहुत पुराना है. सोवियत संघ से भी पुराना है.
दूसरा चरण
अब असली खेल शुरू होता है. यूरोप और अमेरिका ने अपने बरसों पुराने ख़्वाब को पूरा होने का स्वाद चखा था. यूक्रेन के रूप में रूस के दरवाज़े पर दोस्त पाने का. यूक्रेन के पहले राष्ट्रपति लियोनिड क्रावचुक आज़ाद होते हीं 1992 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश से मिलने पहुंचे और आर्थिक मदद पर समझौता किया. रूस ने अपने यूक्रेन को अमेरिका तरफ़ जाते देखा तो यूक्रेन में मौजूद अपने समर्थकों को मैदान में उतार दिया और फिर 1994 के चुनाव में रूस समर्थित प्रधानमंत्री लियोनिड कुचमा यूक्रेन के राष्ट्रपति बने.
कुचमा के समय रूस और यूक्रेन के बीच रिश्ते मधुर होते जा रहे थे पर या यूरोप और अमेरिका को सुहा नहीं रहा था. रूस में भी आर्थिक गतिविधियां गिराव पर थी तो यूक्रेन भी इसका शिकार होने लगा. लियोनिड कुचमा ने रूसी भाषा को यूक्रेन की आधिकारिक भाषा बनाया और रूस के साथ संधि की. 1999 में कुचमा फिर 2005 के लिए राष्ट्रपति बने . आरोप लगा कि रूस ने चुनाव में धांधली कराकर राष्ट्रपति बनाया है.
इसके बाद कुचमा के खिलाफ यूरोप और अमेरिका में भारी विरोध का माहौल बना. रूस विरोधी धुरदक्षिणपंथियों को खुश करने के लिए कुचमा ने नाटो से संधि का एलान कर दिया. उसके बाद राष्ट्रपति कुचमा न घर के रहे न घाट के. अलग होते समय रूस के साथ किए गए समझौते के यूक्रेन तोड़ना शुरू किया.
विक्टर यूनोकोविच विवाद
फिर वक्त से पहले 2004 में यूक्रेन में चुनाव कराना पड़ा. यह यूक्रेन के चुनाव के इतिहास का सबसे विवादित और रूस और अमेरिका यूरोप के हस्तक्षेपों वाला चुनाव रहा. इस राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिका-यूरोप समर्थित विपक्षी उम्मीदवार के रूप विक्टर यूसचें को थे तोदूसरी तरफ़ रूस समर्थित तत्कालीन यूक्रेनियन प्रधानमंत्री विक्टर यानूकोविच थे.
विक्टर यूनोकोविच यूक्रेन के राष्ट्रपति बन गए. यह दुनिया का पहला चुनाव वाला देश होगा जहां पर किसी देश के राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक कैंडिडेट के लिए राजधानी कीव में अमेरिका और यूरोप के नेता वोट मांग रहे थे तो दूसरी तरफ़ दूसरे कैंडिडेट के लिए रूस के राष्ट्रपति पुतिन वोट मांग रहे थे. चुनाव हारने के बाद विक्टर यूसचें को चुनावी धांधली का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया.
यूरोप अमेरिका समर्थित विक्टर यूसचेंको राष्ट्रपति बन गए. इस बीच विपक्षी राष्ट्रपति उम्मीदवार यूसचें को को डॉक्सिन ज़हर देकर मार डालने की कोशिशों का आरोप रूस पर लगा जिसे रूस ने पश्चिम देशों का प्रोपोगांडा बताया. 2005 से लेकर 2010 लाख यूक्रेन रूसी विरोधी अमेरिका और यूरोप की नीतियों का केन्द्र रहा.
इस दौरान यूक्रेन को पूरी तरह से यूरोपीय देश घोषित किया गया और वर्ल्ड वार द्वितीय में रूस के ख़िलाफ़ लड़ने वालों को राष्ट्रीय योद्धा यानी नेशनल हीरो क़रार दिया गया. राष्ट्रपति पुतिन यह सब देखते रहे और आगे की रणनीति बनाते रहे. नाटो के सदस्य के रूप में यूक्रेन को अमेरिका की सहमति भी मिली.
2010 में फिर चुनाव हुए तो रूस समर्थित विक्टर यूनोकोविच राष्ट्रपति बने और यूरोप अमेरिका समर्थित विक्टर यूसचें को के यूक्रेन के इतिहास की सबसे बड़ी हार मिली. मगर कहा जाता है कि अमेरिका और यूरोप ने इसे अपने शिकस्त माना और वहां पर रूस समर्थित राष्ट्रपति विक्टर यूनोकोविच ख़िलाफ़ देश भर में आंदोलन शुरू हो गया. इसे यूरोपियन मीडिया ने ऑरेंज रिवोल्यूशन करार दिया.
रूसी ग़ुलामी से आजादी बताते हुए इसे स्वाभिमान क्रांति करार दिया गया.16 जनवरी 2014 को एंटी प्रोटेस्ट क़ानून बनाकर यूनोकोविच नेदेश में विरोध पर पाबंदी लगा दी. मगर विरोध इतना बढ़ा कि 22 फ़रवरी को वक्त से पहले रूसी समर्थित राष्ट्रपति विक्टर यूनोकोविच को हटाना पड़ा और कार्यवाहक राष्ट्रपति ने चुनाव कराए. फिर यूरोपियन सॉलिडेरिटी पार्टी के पेट्रो पोरोंसेक 2015 में यूरोप के राष्ट्रपति बने. इससे नाराज़ रूस ने यूएसएसआर यूक्रेन को गिफ़्ट में दिया और मौजूदा यूक्रेन के हिस्सा रहे कि क्रीमिया पर हमला बोल दिया.
16 मार्च 214 को यह कहते हुए क्रीमिया को आज़ाद घोषित कर दिया कि यहाँ पर रेफरेंडम कराया गया जिसमें 97 फ़ीसदी लोगों ने आज़ाद रहने के लिए वोट दिए है. दोनेत्सक और लुहांसक में भी यूक्रेन विरोधी मिलिशिया को रूस ने मज़बूत करना शुरू कर दिया. परेशान यूक्रेन ने फ़रवरी 2015 में बेलारूस के मिन्सक में मिन्सक एग्रीमेंट पर समझौता किया.
मिन्सक समझौते के तहत यूक्रेनरूस की सीमा पर अपने सैनिक नहीं रखेगा और कभी भी कोई परमाणु हथियार नहीं बनाएगा. नाटो से यूक्रेन का कोई समझौता नहीं होगा और नाटो के सैनिकों के साथ-साथ किसी भी देश के सैनिक यूक्रेन में नहीं रहेंगे. मगर यूरोप और अमेरिका इसे अपनी बेइज़्ज़ती समझने लगे और फिर राष्ट्रपति पेट्रो पोरोसें को के ख़िलाफ़ वही माहौल शुरू हो गया जोदूसरे रूस समर्थित राष्ट्रपतियों के साथ होता रहा था.
पोरेसें को को भ्रष्टाचारी और रूसी एजेंट करार दिया जाने लगे. कमेडियन वोलोदिमिर जेलेंस्की 2019 तक मीडिया में नायक बना दिए गए और 2019 में फिर से यूरोप-अमेरिकी समर्थित वोलेदिमिर जेलेंस्की यूक्रेन के राष्ट्रपति बन गए. जेलेंस्की यूरोप से नज़दीकियां बढ़ाने लगे. मिन्सक समझौते को भी मानने से इंकार करते हुए सैन्य नीति को आगे बढ़ाना शुरू किया.
दूसरे देशों से हथियार समझौते और मिलिटरी ट्रेनिंग के कार्यक्रम देश भर में शुरू हुए. फिर से नाटो के स्थायी सदस्यता की कोशिश शुरू हुई. यूक्रेन के ज़रिए पुतिन पर ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मदद के आरोप भी लगे थे लिहाजा नए अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन यूक्रेन के नए शासन का नज़दीक होकर पुतिन विरोधी नीतियों को हवा देने लगे. यूक्रेन के पड़ोसी देशों में नाटो की सेनाएं तैनात होने शुरू हो गई.
माना जाता है कि पुतिन इससे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे और आख़िर में इन्होंने यूक्रेन समेत अमेरिका और यूरोप सभी को सबक़ सिखाने के लिए सैन्य कार्रवाई का फ़ैसला किया है. मगर इस बार यूक्रेन अफ़ग़ानिस्तान की तरह रूस, अमेरिका और यूरोप के ग्रेट गेम का शिकार हो रहे हैं. युद्ध शुरू करना आसान है मगर ख़त्म करना बेहद मुश्किल है और वह भी यूक्रेन के साथ जिसकी सदियां और सभ्यताएं लड़ते बीती हैं.
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