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Updated: 28 मई, 2018 02:54 PM
शरत प्रधान
शरत प्रधान
 
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जिस एकमात्र चीज में महारत हासिल है वो है ध्रुवीकरण की राजनीति खेलना. हालांकि, अब समय के साथ भाजपा को इसका बहुत फायदा मिलता नहीं दिख रहा है. योगी आदित्यनाथ को अपने गढ़ गोरखपुर में जो हार का सामना करना पड़ा वो उनके जीवन का सबसे बड़ा झटका था. इससे भी बदतर यह हुआ कि सत्तारूढ़ दल फुलपुर लोकसभा सीट पर भी बुरी तरह से हार गई, जहां यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने 2014 के मोदी लहर के बीच सफलता पाई थी.

भगवाधारी यूपी सीएम ने कर्नाटक में छह दिन तक चुनाव प्रचार भी किया जहां उन्होंने 33 विधानसभा क्षेत्रों में रैलियों को संबोधित किया. हालांकि बीजेपी ने दावा किया कि उनके द्वारा दौरा किए गए हर निर्वाचन क्षेत्र में पार्टी ने "बेहद अच्छा प्रदर्शन किया". लेकिन इसके विपरीत सच्चाई ये है कि उन क्षेत्रों में पार्टी सिर्फ 13 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई थी. अब ये तो भगवान ही बताएंगे कि आखिर कहां से और किस एंगल वो एक धमाकेदार परफॉर्मेंस है.

BJP, Kairana, Adityanathयोगी आदित्यनाथ दोनों धर्मों को बांटने की राजनीति धड़ल्ले से कर रहे हैं

हालांकि, ऐसा लगता है जैसे इतनी हार के बाद भी उनके हौंसले टूटे नहीं हैं. शायद इसलिए क्योंकि अभी भी वो ये मानते हैं कि उनके पास किसी भी चुनाव के ध्रुवीकरण करने का कौशल है. और उनके ये प्रयास कभी व्यर्थ नहीं हुए हैं. इसका प्रदर्शन अक्सर उनकी प्रचार मशीनरी द्वारा किया जाता है. और दावा किया जाता है कि वो जहां कहीं भी चुनाव अभियान के लिए गए हैं उन्हें 'सफलता' हासिल हुई है. आलम ये है कि अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र का उन्होंने कभी भी दौरा किया हो और वहां जीत हासिल हो जाए तो उसका सेहरा भी योगी आदित्यनाथ अपने सिर बांधने से गुरेज नहीं करते. इस हद तक कि वो उस क्रेडिट को भी छीन लेते हैं जिसके लिए वास्तव में भाजपा के वन मैन आर्मी नरेंद्र मोदी जिम्मेदार होते हैं.

चूंकि योगी के जोरदार भाषण जहरीले और विभाजनकारी बातों से लैस होते हैं इसलिए पार्टी में भी कोई उनके दावों पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करता है. फिर चाहे वो कितने ही लंबे चौड़े वादे और बातें क्यों न हों. और यही वजह है जो उन्हें अपना राग के लिए और ऊर्जा प्रदान करती है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में भी वो यही कर रहे हैं. इन दोनों ही क्षेत्रों में 28 मई को उप-चुनाव होंगे. कैराना उपचुनाव बीजेपी के अनुभवी नेता और सांसद हुकूम सिंह के निधन के बाद हो रहे हैं. वहीं बीजेपी के विधायक लोकेंद्र सिंह चौहान की मौत के कारण नूरपुर में उप-चुनाव की आवश्यकता पड़ी.

बीजेपी, हुकम सिंह की बेटी मृगांका सिंह के लिए सहानुभूति वोट के भरोसे कैराना सीट पर कब्जा जमाने की उम्मीद कर रही है. हालांकि उनके पास कोई अच्छा राजनीतिक ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है. 2017 के विधानसभा चुनाव में कैराना से एसपी उम्मीदवार ने मृगांका सिंह को 21,000 वोटों के बड़े अंतर से हराया था. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भगवाधारी यूपी के मुख्यमंत्री यहां के मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए ध्रुवीकरण का कोई भी रास्ता नहीं छोड़ रहे हैं.

इससे भी बदतर ये है कि वो एक ऐसा कार्ड खेल रहे है जिसे खुद दिवंगत नेता हुकुम सिंह ने मुज्जफनगर के दंगों के बाद नकार दिया था. ध्रुवीकरण ने भले ही 2014 में भाजपा को राजनीतिक फसल काटने में मदद की थी लेकिन तब से अब तक में परिदृश्य काफी बदल चुका है. महत्वपूर्ण बात यह है कि विपक्षी दलों ने एक बार फिर से हाथ मिला लिया है. और भाजपा को दोनों ही चुनावों में कड़ी टक्कर को कमर कस चुके हैं. इससे नए जातिगत समीकरण बने हैं जिनकी वजह से अब बीजेपी के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति को खतरा पैदा हो रहा है.

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तब्बसुम हसन, कैराना में बीजेपी की मृगांका सिंह के खिलाफ विपक्ष की उम्मीदवार हैं. लेकिन, समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी के जिस गठबंधन ने योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर के अपने गढ़ और फुलपुर में तगड़ा झटका दिया था उनके साथ राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) भी जुड़ गई है और भाजपा के खिलाफ लड़ाई में शामिल हो गई है. साथ ही कांग्रेस पार्टी भी खुलेआम 'एकजुट' विपक्ष के उम्मीदवार को अपना समर्थन दे रही है.

योगी आदित्यनाथ भले ही "सबका साथ, सबका विकास" के नारे को बार-बार अपनी घोषणाओं में दोहराने में व्यस्त हों. लेकिन जमीनी हकीकत तो ये है कि वह केवल धार्मिक मुद्दों पर जनता में विभाजन फैलाने का हर संभव प्रयास करने में लगे हैं. "मुस्लिम" द्वारा कथित उत्पीड़न के कारण "हिंदूओं के पलायन" की बातें दोहराने में व्यस्था हैं. जाहिर है, योगी को इस बात का अहसास नहीं है कि खुद हुकूम सिंह ने सबसे पहले कैराना से बड़े पैमाने पर हिंदूओं के पलायन का मुद्दा उठाया था. और बाद में वो खुद ही इस मुद्दे से पीछे हट गए थे.

हुकुम सिंह ने मीडिया के सामने ये स्वीकार किया था कि "मुझे गलत बताया गया था कि मुसलमानों द्वारा उत्पीड़न के कारण ही कैराना से हिंदू भाई पलायन कर रहे हैं. बाद में मेरे पूछताछ और जानकारी इकट्ठा करने पर यह खुलासा हुआ कि यह हिंदू-मुस्लिम मुद्दा नहीं था. बल्कि इस क्षेत्र में गुंडावाद के बढ़ने के कारण ही पलायन हो रहा था."

द इंडियन एक्सप्रेस द्वारा जांच किए जाने पर इस बात का खुलासा हुआ कि कैराना से पलायन करने वालों में से कई मुसलमान भी थे. यह भी पता चला था कि सूची में नामित कुछ लोगों की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी. और ऐसे कई लोग भी थे कि जिन्होंने रोजगार के खोज में दूसरे स्थान पर जाने का फैसला लिया था. लेकिन हुकम सिंह द्वारा किए गए इस चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन से अनजान, यूपी के मुख्यमंत्री ने इस "हिंदू पलायन" को मुद्दा बनाया है. अपने आप को सही साबित करने की उनकी हताशा उनके फैसलों में भी दिखाई दी. पिछले महीने उन्होंने सभी जिला मजिस्ट्रेटों और पुलिस प्रमुखों को मार्च 2017 तक, सांप्रदायिक कारणों से प्रदेश से लोगों के पलायन के ब्योरे की मांग की.

19 मार्च, 2017 को योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश की सत्ता संभाली थी. तो जाहिर है ये फैसला उन्होंने अखिलेश यादव सरकार को पलायन के लिए दोषी ठहराने की मंशा लिया है. काफी समझदारी से योगी ने सत्ता में आने के बाद किसी भी पलायन पर जानकारी की मांग करने से परहेज किया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले, वरिष्ठ एसपी नेता और पूर्व मंत्री राजेंद्र चौधरी ने बताया- 'इस क्षेत्र से लोगों का पलायन एक नियमित क्रिया है. हर समय ऐसा होता रहता है. और बीजेपी के सत्ता में आने के बावजूद ऐसे पलायन हो रहे हैं. यही कारण है कि उस अवधि के ब्योरे की मांग नहीं की गई है.'

कुछ समय पहले ही बीजेपी ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में मोहम्मद अली जिन्ना के चित्र का मुद्दे उठाया था. इसे मुद्दा बनाने के पीछे स्पष्ट इरादा तो कैराना के चुनाव को सांप्रदायिक बनाने का ही था क्योंकि यह क्षेत्र अलीगढ़ के नजदीक है. हालांकि उनकी कोशिशों के बावजूद लोगों ने शांति बनाए रखी और हिंदू-मुस्लिम दंगों को भड़काने से रोक दिया.

देश में और खासकर उत्तर प्रदेश में और अधिक वास्तविक मुद्दे हैं जिन्हें सरकार को ध्यान देना चाहिए. चीनी किसानों की बड़ी संख्या में बकाया राशि ने पहले ही योगी सरकार के लिए माहौल खराब कर दिया था. क्योंकि चीनी किसानों का एक बड़ा हिस्सा पश्चिमी उत्तरप्रदेश से आता है. और विपक्ष इसे एक प्रमुख चुनावी मुद्दा लगाने में पहले से ही लगा है. रिपोर्टों के मुताबिक, किसानों ने चीनी मिलों को 29,822 करोड़ रुपये के गन्ना बेचे और सत्र 2017-18 के दौरान सिर्फ 19,707 करोड़ रुपये ही राज्य में प्राप्त किए. मिल मालिकों पर किसानों की कुल बिक्री का 44 प्रतिशत बकाया है जो लगभग 10,000 करोड़ रुपये बनता है. अब चुनाव की वजह से अपनी पार्टी की साख को बचाने के आखिरी प्रयास में मुख्यमंत्री ने बुधवार को यह घोषणा की कि एक या दो दिन में 73 करोड़ रुपये की राशि जारी की जाएगी.

यह मुद्दा पार्टी के लिए गले का कांटा बन जाएगा क्योंकि यह उनका एक बड़ा चुनावी वादा था. यूपी विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार करते समय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मामले को अपने हाथ में लेने का वादा किया था. उन्होंने कहा था "मेरे गन्ना किसान कड़ी मेहनत करते हैं. चीनी मिल मालिक अमीर हैं, लेकिन हमारे किसानों को कुछ भी हासिल नहीं है. यूपी में मेरी सरकार 14 दिनों के भीतर बकाया राशि को मंजूरी देगी. मैं यूपी सरकार से पूछना चाहता हूं कि गन्ना किसानों को आखिर उनकी बकाया राशि क्यों नहीं दी गई थी. हमने किसानों के बैंक खाते में 99 प्रतिशत पैसा डाला है.

विपक्षी दलों - एसपी, बीएसपी, आरएलडी और कांग्रेस के गठबंधन के कारण बीजेपी पहले ही हिल गई है. उन्होंने पार्टी के मालिकों को आश्वासन दिया है कि वह हिंदुओं का ध्रुवीकरण करके इस जाति की बाधा को तोड़ देंगे. लेकिन अंततः योगी आदित्यनाथ ने ये महसूस किया है कि बदली राजनीतिक परिस्थितियों में एक लंबा आदेश होगा.

और यदि वह सोमवार को अपने मिशन में विफल रहते हैं, तो योगी के लिए आगे का समय परेशानी भरा हो सकता है. क्योंकि पार्टी के भीतर ही उनके खिलाफ आवाजें उठनी शुरु हो जाएंगी.

(DailyO से साभार)

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शरत प्रधान शरत प्रधान

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार हैं.

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