Yogi Adityanath का कानून मजदूरों के साथ हुए हाल के बर्ताव से भी बुरा है क्या?
योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) सरकार ने यूपी के श्रम कानूनों (Labour law changed) में कुछ बदलाव किया है, जिसका मजदूरों के अधिकारों को लेकर विरोध हो रहा है - लेकिन क्या ये बदलाव हाल फिलहाल देश भर में मजदूरों (Migrant Workers) के साथ हो रहे बर्तावों से भी बुरा है?
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उत्तर प्रदेश में हुए श्रम कानूनों (Labour law changed) में कुछ बदलाव किये गये हैं. ये बदलाव अस्थायी तौर पर तीन साल के लिए किये गये हैं. ऐसा करने वाले सिर्फ योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) ही नहीं बल्कि बीजेपी शासन वाले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी भी शामिल हैं. हरियाणा में भी करीब करीब वैसी ही तैयारी है. सरकार की तरफ से इसे मजदूरों के हित मे बताया जा रहा है, जबकि ट्रेड यूनियन ये फैसला मजदूरों के हितों के खिलाफ बता रहे हैं.
जरा सोचिये हाल फिलहाल देश भर में मजदूरों (Migrant Workers) पर जो गुजर रहा है - क्या ये अस्थायी बदलाव उससे भी बुरा होगा? रोजी-रोटी बंद हो जाने के बाद पैदल ही घर की ओर चल पड़े हैं और कहीं ट्रक कुचल दे रहा है तो कहीं ट्रेन ऊपर से गुजर जा रही है - और नहीं तो रास्ते में ही दम टूट जा रहा है. क्या इससे भी बुरा हाल बदले कानूनों की हालत में काम करना हो सकता है?
ये ठीक है कि कारखानों को हायर और फायर की खुली छूट मिल जाएगी, लेकिन देश में ऐसी कौन सी जगह है जहां व्यावहारिक तौर पर मजदूरों को स्थायी काम कभी मिल पाया हो - कागजों में लिखे अधिकारों की दुहाई तब जरा भी अच्छी नहीं लगती जब पेट की आग बुझानी मुश्किल हो रही हो. जब जिंदगी पर बन आयी हो.
रोजाना 12 घंटे काम करने होंगे
योगी आदित्यनाथ सरकार ने एक अध्यादेश लाकर उत्तर प्रदेश में श्रम कानूनों को तीन साल के लिए निलंबित करने का फैसला किया है. ये फैसला स्थायी तौर पर लिया है जिसकी तीन साल बाद समीक्षा होगी. अध्यादेश को राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के पास मंजूरी के लिए भेजा गया है.
अध्यादेश के तहत काम के घंटे बढ़ा दिये गये हैं - रोजाना 4 घंटे. अब तक रोज का काम 8 घंटे का होता रहा है लेकिन अध्यादेश लागू होने के बाद इसे 12 घंटे का किया जा सकेगा. पहले हफ्ते में जो काम 48 घंटे करने पड़ते थे वो अब 72 घंटे का हो जाएगा.
सरकार का कहना है कि जो कोई भी 12 काम करना चाहेगा वही करेगा. 12 घंटे के काम की सबकी बाध्यता नहीं होगी. काम तो 8 घंटे का ही होगा और 4 घंटे ओवरटाइम के होंगे - और उसके लिए पैसे भी अलग होंगे. हरियाणा में ओवरटाइम के पैसे डबल करने की बात हो रही थी. जाहिर है सभी राज्यों में ये एक जैसा ही होगा.
1. अब 8 की जगह काम के 12 घंटे रोज: सरकार का कहना है कि ऐसा होने पर कंपनियों को काम के घंटे बदलने की अनुमति होगी तो कारोबार तो बढ़ेगा ही, निवेश की भी संभावनाएं बढ़ जाएंगी.
2. ट्रेड यूनियनों का विरोध क्यों: ट्रेड यूनियन को अलग डर सता रहा है. उनका मानना है कि ऐसे में जबकि पहले से ही मजदूरों का शोषण होता रहा हो, कंपनियों को पूरी छूट मिल जाएगी तो शोषण बढ़ जाएगा और कानून की आड़ में मनमानी करने की छूट बढ़ जाएगी.
ये तो है एक बार ये तरीका शुरू हो गया तो वो अघोषित नियम बन जाएगा और न चाह कर भी मजदूरों को एक ही जैसे काम करने होंगे. अगर वे ऐसा नहीं किये तो उनके खिलाफ एक्शन की जमीन तैयार हो जाएगी.
यूपी के मजदूरों की वापसी के बाद योगी आदित्यनाथ उनको काम देने की तैयारी कर रहे हैं.
हालांकि, अध्यादेश में करार के साथ नौकरी करने वालों को हटाने, नौकरी के दौरान हादसे का शिकार होने और वक्त पर वेतन देने जैसे तीन नियमों को पहले की तरह ही रखा गया है - बाकी सारे नियम तीन साल तक अस्थायी तौर पर स्थगित रहेंगे. साथ में, महिलाओं और बच्चों से जुड़े श्रम कानून के तमाम प्रावधान और कुछ दूसरे श्रम कानून पहले की तरह ही लागू रहेंगे.
पहले काम जरूरी या कानून?
अगर सवाल ये है कि पहले काम जरूरी है या कानून? ऐसे सवालों का जवाब हां या ना में नहीं होता क्योंकि दोनों जरूरी हैं. सिर्फ कानून बने रहने से भी पेट नहीं भरेगा और बगैर कानून के कब पेट पर लात मार दिया जाये कहा नहीं जा सकता. डर की असल वजह यही है.
सवाल ये उठता है कि सरकार की बात पर भरोसा किया जाये या नहीं?
सरकारें तकरीबन एक जैसी ही होती हैं. सभी सरकारों का एक सिस्टम होता है और वही सिस्टम सरकार चलाता है. सत्ता की एक ही फितरत होती है. राजनीतिक दल बदल जाने से कुछ ही चीजें बदलती हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो विपक्ष में रहते जो पार्टी जिस मुद्दे पर शोर मचाती है सत्ता में होने पर वो खुद भी वैसे ही काम करती है. ये हाल सभी का है. बीजेपी हो कांग्रेस हो या कोई और नाम बदल भर जाने से बहुत कुछ नहीं बदलता. और गरीबों के लिए, मजदूरों के लिए तो कभी भी कुछ भी नहीं बदलता.
बस एक ही फर्क है और ये फर्क उत्तर प्रदेश पर तो लागू होता ही है, बाकी राज्यों के बारे में अलग से सोचा जा सकता है. ये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही हैं जो लॉकडाउन लागू होने के बाद से उत्तर प्रदेश के मजदूरों के लिए एक बार भी अपनी कोशिशों में कोई कमी नहीं की है.
दिल्ली में यूपी और बिहार दोनों जगहों के लोग रहते हैं. विधानसभा चुनावों में पूर्वांचल वोट बैंक की खूब चर्चा रही. हर पार्टी पूर्वांचल के लोगों के वोट के लिए दिन रात एक किये हुए थी. जिन नेताओं की पूर्वांचल के लोगों में घुसपैठ रही उनको टिकट मिलने में भी आसानी रही. मगर, लॉकडाउन लागू होते ही सरकारों के रंग साफ नजर आने लगे. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर तो विरोधी आरोप लगाये कि वोट लेकर जीत जाने के बाद पूर्वांचल के लोगों को आम आदमी पार्टी के लोगों ने अफवाह फैला कर आनंद विहार और गाजियाबाद बस अड्डे पहुंचा दिया. नीतीश कुमार का बयान भी पूर्वांचल के लोगों को याद ही रखना चाहिये जो कह रहे थे कि जो जहां हैं वहीं रहे वरना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लॉकडाउन फेल हो जाएगा. ये कहने में बुराई नहीं है, लेकिन क्या ये बयान जारी कर मजदूरों को सड़क पर छोड़ देना चाहिये?
वैसी हालत में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रातों रात दिल्ली की सीमाओं पर बसें भेजी और जितने लोग आ सके उनको घर पहुंचाया. क्या ऐसी ही मदद दिल्ली सरकार और बिहार सरकार ने कर दी होती - या फिर केंद्र सरकार ही कोई इंतजाम कर दी होती तो मजदूरों को सरेराह भूखे-प्यासे भटकना पड़ता?
योगी आदित्यनाथ ने कोटा में फंसे उत्तर प्रदेश के छात्रों को भी उनके घर पहुंचाया. खबरें तो ऐसी भी मिली कि बिहार के भी कई छात्र यूपी की बसों में चढ़ कर घर लौटे हैं. जब वे बिहार सीमा पर पहुंच गये तो उनके घरवाले सक्रिय हो गये और नीतीश सरकार को सुविधायें और अनुमति देनी पड़ी.
छात्रों के बाद योगी आदित्यनाथ ने अलग अलग प्रदेशों में फंसे मजदूरों की वापसी की तैयारी भी कर दी. बाद में तो रेलवे ने श्रमिक स्पेशल गाड़ियां भी चला दीं, मजदूरों से किराये लिये जाने को लेकर विवाद भी हुआ लेकिन अंत भला तो सब भला - घर वापसी तो हुई. वैसे उसी बीच योगी आदित्यनाथ के पास कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों के फोन भी आये कि वे मजदूरों को उनके राज्यों में ही रहने दें और यूपी वापस जाने से रोकने में मदद करें.
एक तरफ ये तैयारियां चल रही थीं और दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ ने कृषि उत्पाद सचिव आलोक सिन्हा की अगुवाई में MSME, श्रम और पंचायती राज विभागों को लेकर एक कमेटी बनायी थी. कमेटी को बाहर से लौट रहे कामगारों को ध्यान में रखते हुए रोजगार के अवसर तैयार करने का टास्क दिया गया. योगी सरकार के मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह द हिंदू से बातचीत में बताते हैं कि इसमें 15 लाख लोगों के लिए काम के इंतजाम का लक्ष्य दिया गया जिसमें से 5 लाख तो MSME विभाग की जिम्मेदारी होगी. ये विभाग सिद्धार्थनाथ सिंह के पास ही है.
फिर सरकार ने बैंकों के साथ मीटिंग की और छोटे कारोबारियों के 20 हजार लोन प्रपोजल को हरी झंडी दी गयी. ये छोटे काम ऐसे होंगे जिसमें मालिक को छोड़ कर चार लोगों को काम पर रखा जा सकता है. ये लोन प्रपोजल लॉकडाउन के पहले से आये हुए थे.
सिद्धार्थनाथ सिंह कहते हैं, 'हम चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम के लिए बाहर न जाना पड़े.'
अलावा इसके यूपी सरकार ने तीन डेस्क भी बनाया है - जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका डेस्क जो अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को यूपी में अपना काम शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रहा है. ये काम योगी आदित्यनाथ के आर्थिक सलाहकार केवी राजू की देखरेख में हो रहा है. केवी राजू गुजरात में भी ये काम कर चुके हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.
दरअसल, उत्तर प्रदेश सहित दूसरी राज्य सरकारों की भी नजर उन अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों पर है जो अब तक चीन में अपना प्रोडक्ट तैयार कर रही थीं. चीन में काम के लायक इंफ्रास्ट्रक्चर और सस्ता लेबर दुनिया भर की कंपनियों के लिए फायदेमंद रहा है. कोराना वायरस के प्रकोप और लॉकडाउन के बाद ऐसी खबरें आ रही हैं कि करीब 1000 कंपनियां चीन से अपना कारोबार समेटने की तैयारी में हैं - भारत में राज्य सरकारें श्रम कानूनों में बदलाव कर चीन जैसा माहौल बनाना चाह रही हैं ताकि दूसरे देशों की कंपनियों को लुभाया जा सके.
अब अगर एक कानून में स्थायी प्रावधान कर कोई मुख्यमंत्री मजदूरों की रोजी रोटी का इंतजाम कर रहा है तो वो मौजूदा स्थिति से भी बुरा है क्या?
जहां तक योगी आदित्यनाथ का सवाल है तो बतौर मुख्यमंत्री अब तक उन्होंने मजदूरों के लिए जो जो भी किया है - ट्रैक रिकॉर्ड कहता है कि मजदूर आगे भी भरोसा कर सकते हैं.
बेशक अधिकारों पर बात होनी चाहिये, अगर नाइंसाफी हो तो आवाज भी उठनी चाहिये, लेकिन जब भूख, बीमारी और हादसे मौत बन कर कहर ढा रहे हों - कौन से अधिकारों की बात हो रही है?
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