योगी आदित्यनाथ की लखनऊ वापसी के बाद माहौल बहुत बदला बदला होगा
यूपी में 'ठाकुर सरकार' के ठप्पे से निजात पाने के लिए बीजेपी ने 'सबका साथ, सबका विकास...' नारे का सहारा लिया है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) से मिलने के बाद योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की भूमिका निमित्त मात्र रह गयी है.
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मुमकिन है लौटने के बाद योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के सामने एक लोकल स्लोगन मुंह चिढ़ाते हुए पेश आये - 'मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं.'
लेकिन सच तो ऐसा ही होता है और योगी आदित्यनाथ के साथ तो ऐसा ही होने वाला है क्योंकि बीजेपी नेतृत्व को भी एक स्लोगन बहुत पसंद है - 'सत्यमेव जयते'. ये बात अलग है कि 'सत्यमेव जयते' भी 'जय श्रीराम' की तरह एक पॉलिटिकल स्लोगन ही बन गया है.
दिल्ली दौरे में योगी आदित्यनाथ अपनी तरफ से ट्विटर पर अपडेट देते जा रहे हैं और उनके लोग लखनऊ में मीडिया से बातचीत में यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि कुछ भी नया नहीं होने वाला है. योगी कैबिनेट में बदलाव की बातों को भी योगी के लोग लखनऊ में बेबुनियाद बताये जा रहे हैं, लेकिन ये बातें भी वैसी ही लग रही हैं जैसे पुलिस किसी एनकाउंटर के बाद या अक्सर केस सुलझा लेने के दावे के साथ कहानियां सुनाती रहती है.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) से मुलाकात के बाद योगी आदित्यनाथ नाथ ने शुक्रिया के साथ फोटो अपडेट दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) से मिलने के बाद भी हृदय से आभार प्रकट किया कि व्यस्त कार्यक्रम में से वक्त निकाल कर मोदी उनसे मिले.
योगी आदित्यनाथ की कुर्सी पर फर्क नहीं पड़ने वाला है ये तो बीजेपी के संगठन महासचिव बीएल संतोष के ट्वीट से बहुत पहले ही साफ हो गया था, लेकिन उसके आगे भी कुछ नहीं होने वाला है ऐसा तो कभी लगा नहीं - अब तो योगी मंत्रिमंडल के नये सदस्यों को लेकर भी चर्चा शुरू हो चुकी है.
योगी आदित्यनाथ के साथ साथ अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी वाले डॉक्टर संजय निषाद के साथ हुआ अमित शाह की मुलाकातों का मतलब सिर्फ चुनावी गठबंधन के लिए तो कतई नहीं लगतीं.
यूपी में दम है - और ये हाथ से निकलना नहीं चाहिये!
बीजेपी का एक और भी स्लोगन रहा है, 'सबका साथ, सबका विकास.'
2019 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्लोगन में विश्वास शब्द भी जोड़ दिया था, 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास'.
दिल्ली में योगी आदित्यनाथ के रहते जो माहौल बना है, लगता है लखनऊ लौटने तक योगी आदित्यनाथ को लगने लगेगा कि ये स्लोगन पूरी तरह उन पर ही लागू करने की कोशिश हो रही है - और ये पूरी कवायद का आधार भी वही है.
वैसे तो बीजेपी नेतृत्व ने ये स्लोगन अपने ऊपर लगने वाले मुस्लिम विरोधी राजनीतिक तोहमत की तासीर को कम करने के मकसद से गढ़ा था और योगी आदित्यनाथ की राजनीति भी उसी लाइन पर फोकस रही है, लेकिन योगी के मामले में ये धर्म से जातिवाद की तरफ शिफ्ट हो गया है.
कोई दो राय नहीं है कि बीजेपी नेतृत्व मान कर चल रहा है कि बंगाल की शिकस्त के बाद काफी कुछ बदल चुका है. लिहाजा मान कर चलना होगा कि बीजेपी की आगे की चुनावी रणनीति में बंगाल की हार का साया दिखेगा ही जो ज्यादातर फैसलों को प्रभावित करेगा.
मोदी-शाह के योगी आदित्यनाथ पर लगाम कसने के चलते अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी की चांदी हो गयी
2017 के चुनाव में योगी आदित्यनाथ बीजेपी की जीत में एक मजबूत स्तंभ जरूर रहे, लेकिन बीजेपी की जीत के पीछे अमित शाह का जातीय समीकरणों को साध लेना और प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा ही था - लेकिन तात्कालिक तौर पर देखें तो सब कुछ बदल चुका है.
2022 का यूपी विधानसभा चुनाव भी बीजेपी भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़े, वैसे भी वो संसद में यूपी के ही वाराणसी की नुमाइंदगी करते हैं, लेकिन चेहरा तो आगे योगी आदित्यनाथ का ही रहेगा.
और योगी आदित्यनाथ ने अपनी ऐसी छवि बनने दी है कि उसका 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' से नाता भी दूर का ही रहा है. सिर्फ हिंदू-मुस्लिम वाली राजनीति की कौन कहे, योगी आदित्यनाथ ने चार साल से ज्यादा के शासन में अपनी छवि पर ठाकुरवाद का ठप्पा भी लगने से नहीं रोक पाये हैं - योगी आदित्यनाथ के दिल्ली दौरे में बीजेपी नेतृत्व ने यही साफ करने की कोशिश की है कि अब सबको साथ लेकर चलना होगा और सबका विश्वास भी बनाये रखना होगा.
अमित शाह यूपी की योगी सरकार को 'ठाकुर सरकार' वाली छवि से निकाल कर लोगों के सामने हर तबके के प्रतिनिधित्व वाली और गुड गवर्नेंस वाली सरकार की इमेज पेश करने की कोशिश में हैं - ताकि योगी सरकार के खिलाफ कोरोना संकट के वक्त पैदा हो चुकी जबर्दस्त सत्ता विरोधी लहर को हर हाल में न्यूट्रलाइज किया जा सके.
अप्रैल-मई में कोरोना के तांडव के वक्त आम जनता के गुस्से की कौन कहे बीजेपी के मंत्री, सांसद और विधायक तक खुद को असहाय महसूस कर रहे थे - क्योंकि सरकारी मशीनरी का कोई भी मुलाजिम सीएमओ से लेकर डीएम तक लखनऊ के मुख्यमंत्री कार्यालय के फोन को छोड़ कर किसी को भी रिस्पॉन्ड नहीं कर रहा था. तभी तो बीजेपी के ही कई नेताओं को पत्र लिख कर छोटी छोटी बातें बतानी पड़ी थी.
एक तरफ तबाही का आलम रहा और दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करने वालों की प्रॉपर्टी सीज कर लेने और एनएसए में चालान कर दिये जाने के फरमान जारी कर रहे थे - ऊपर से दावा ये कि सब ठीक ठाक है.
योगी आदित्यनाथ को दिल्ली बुलाने से पहले ही रिपोर्ट कार्ड तैयार कर लिया गया था - और उसी को आधार बना कर योगी आदित्यनाथ को अमित शाह की तरफ से हर तरीके से आगाह करने की कोशिश की गयी.
एक मीडिया रिपोर्ट में एक बीजेपी नेता ने हवाले से बताया गया है कि बीजेपी नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ को अच्छी तरह समझा दिया है - आगे से प्रभावी और सामूहिक प्रशासन के साथ साथ सरकार पर कहीं से भी जातिवादी आक्षेप लगने की कोई गुंजाइश नहीं बचनी चाहिये.
गुजरात से बाहर अमित शाह की राजनीतिक प्रयोगशाला उत्तर प्रदेश ही रहा है, इसलिए वो तो सूबे के रग रग से वाकिफ हैं. 2013 में जब अमित शाह को यूपी का प्रभारी बनाया गया था तब बीजेपी के 10 सांसद थे लेकिन विधायकों की संख्या 50 से भी कम थी. बीजेपी की अंदरूनी गुटबाजी के बीच से निकाल कर अमित शाह ने पहले आम चुनाव में लोक सभा सीटों का नंबर बढ़ाया फिर अगले ही विधानसभा चुनाव में बीजेपी की सरकार भी बनवायी.
हाल ही में बीजेपी नेताओं की एक मीटिंग में जेपी नड्डा ने भी कहा था कि 2022 का चुनाव बीजेपी के लिए 2024 के हिसाब से भी काफी महत्वपूर्ण है. निश्चित तौर पर ये बात भी बंगाल की हार के साये में भी उठी होगी, जरूरी नहीं कि ममता बनर्जी की सत्ता में वापसी के बाद अगली बार बीजेपी 2019 जितनी सीटें बटोर पाये.
मुलायम सिंह यादव की सरकार के समय उत्तर प्रदेश में एक स्लोगन चलता था - 'यूपी में दम है - क्योंकि जुर्म यहां कम है!'
लगता है बीजेपी ने उस स्लोगन को भी अपने हिसाब से बदल लिया है 'यूपी में दम है- क्योंकि प्रधानमंत्री पद का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है.'
जब यूपी बीजेपी के लिए इतना अहम हो तो भला योगी आदित्यनाथ के हवाले करके कैसे छोड़ दे?
जब तक कैबिनेट न बदले - बदलाव कैसे समझा जाये?
खबरें तो यही बता रही हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जिद के चलते ही मंत्रिमंडल में कोई भी फेरबदल नहीं हो पा रही है. वैसे भी मंत्रिमंडल में कौन रहेगा और कौन नहीं ये तय करने का अधिकार तो मुख्यमंत्री के पास ही होता है.
कोविड 19 के चलते बीते करीब साल भर के दौरान कई विधायकों के साथ साथ यूपी सरकार के तीन मंत्रियों की भी जान जा चुकी है - चेतन चौहान, कमल रानी और विजय कश्यप की जगह जस की तस खाली पड़ी हुई है. कुल मिला कर मंत्रिमंडल में सात सीटें खाली हैं.
अब तक तो मंत्रिमंडल में अरविंद शर्मा को ही जगह देने को लेकर लखनऊ और दिल्ली में ठनी हुई थी, लेकिन लगता है नेतृत्व ने उसका भी रास्ता खोज लिया है. ऐसा रास्ता जिससे इनकार कर पाना योगी आदित्यनाथ के लिए भी मुश्किल होता. खबरों के मुताबिक, योगी आदित्यनाथ को अरविंद शर्मा को मंत्री बनाये जाने से ज्यादा उनको कैबिनेट रैंक देने में आपत्ति रही. योगी आदित्यनाथ के करीबी नेताओं के जरिये मीडिया में आई खबरों से मालूम हुआ कि वो अरविंद शर्मा को राज्य मंत्री से ऊपर कुछ भी देने को तैयार न थे.
ये रास्ता बनाया गया कांग्रेस जितिन प्रसाद को बीजेपी में लाकर. बताते हैं कि जुलाई में ही विधान परिषद में सात सीटें खाली होने वाली हैं और अरविंद शर्मा की तरफ अब जितिन प्रसाद को भी एमएलसी बनाये जाने की संभावना जतायी जा रही है.
देखा जाये तो अब मंत्रिमंडल में शामिल होने की कतार में अरविंद शर्मा और जितिन प्रसाद के अलावा अनुप्रिया पटेल और संजय निषाद के लोग भी हो सकते हैं. अनुप्रिया पटेल तो काफी पहले से अपने पति आशीष सिंह पटेल को यूपी कैबिनेट में एंट्री दिलाने की कोशिश में रही हैं. बीजेपी की कृपा से वो एमएलसी तो बना दिये गये लेकिन मंत्री बनने से अब तक वंचित रहे हैं. आशीष सिंह पटेल फिलहाल अनुप्रिया पटेल वाले अपना दल - एस के अध्यक्ष हैं. अपना दल के दूसरे टुकड़े का नेतृत्व अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल करती हैं. दोनों ही गुट सोनेलाल पटेल की विरासत की जंग में आमने सामने हैं, लेकिन अनुप्रिया पटेल ने बीजेपी के साथ गठबंधन करके दबदबा कायम कर लिया है. अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर से सांसद हैं और पिछली मोदी सरकार में मंत्री भी रह चुकी हैं.
संभव था, योगी आदित्यनाथ अगर अरविंद शर्मा की राह में रोड़ा नहीं बने होते तो एक साथ यूपी में बीजेपी नेतृत्व को इतना सब बदलाव करने की जरूरत नहीं पड़ती. योगी सरकार ठाकुरवाद का ठप्पा मिटाने के लिए ही बीजेपी नेतृत्व भूमिहार और ब्राह्मण के साथ साथ पटेल और निषाद जैसी जातियों को जोड़ कर 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' के स्लोगन को हकीकत से जुड़ा जताने की कोशिश कर रहा है.
असल में योगी आदित्यनाथ अभी तक 'ठोक दो' वाले अंदाज की एनकाउंटर स्टाइल पॉलिटिक्स में ही सिमट कर रह गये. हो सकता है उनके सलाहकारों ने भी अपने इशारों पर नचाने के लिए कभी ढंग की सलाह देने की न जरूरत समझी हो, न जहमत उठायी है - और योगी आदित्यनाथ की ये कमजोरी भला अमित शाह से बेहतर कौन जानता होगा!
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