भूख से मौत या सिस्टम के हाथों हत्या?
इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि आधार कार्ड जीवन का वो गर्भनाल कैसे बन गया कि अगर उससे राशन कार्ड नहीं जुड़ेगा तो किसी को 8 महीने तक राशन मिलेगा ही नहीं?
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महाभारत का युद्ध खत्म हुआ तो अपने एक सौ बेटों के मृत्यु का शोक मना रही गांधारी को सांत्वना देने के लिए भगवान कृष्ण पहुंचे. भगवान को समझ में नहीं आ रहा था कि गांधारी के संताप को किन शब्दों से दूर करें. वो कुछ बोलते कि इससे पहले गांधारी ने कृष्ण से कहा- वासुदेव जरा कष्टम्, कष्टम् निर्धन जीवनम्. पुत्रशोक महाकष्टम्, कष्टादिकष्टम् क्षुधा. यानी हे कृष्ण, बुढापा कष्ट है, गरीबी की जिंदगी उससे भी बड़ा कष्ट है. माता-पिता के सामने पुत्र की मृत्यु तो महाकष्ट है लेकिन कष्टों का कष्ट, जिसका कोई आदि-अंत नहीं है, वो भूख है.
उसी भूख ने 21वीं सदी के इस भारत में, दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक शक्तियों में शुमार इस भारत में, परमाणु बम पर शान दिखाने वाले इस भारत में, 11 साल की एक बच्ची की जान ले ली. झारखंड के सिमडेगा जिले में 11 साल की एक बच्ची भूख से तड़प-तड़प कर मर गई. उसकी मां का आरोप है कि उसका परिवार राशन कार्ड को आधार से लिंक नहीं करा पाया था, जिसके चलते पिछले 8 महीने से उन्हें सस्ता राशन नहीं मिल रहा था. 11 साल की बच्ची संतोषी भूख से कब तक टकराती. सो 8 दिनों तक भूखे पेट रहते हुए, भात-भात की रट लगाए 28 सितंबर को उसने दम तोड़ दिया.
आधार कार्ड ने जीवन का आधार छीन लिया
इसे समझने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि इसे सामान्य मृत्यु माना जाए या सिस्टम के हाथों एक बच्ची की हत्या? जब ये घटना मीडिया की सुर्खियां बनी तो झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने अपनी व्यथा जता दी. 24 घंटे के अंदर रिपोर्ट मांग कर कार्रवाई का भरोसा भी दे दिया, बशर्ते कोई दोषी पाया जाए.
...तो यह भी जान लीजिए कि कोई भी अधिकारी इसमें दोषी नहीं पाया जाएगा क्योंकि जलडेगा के बीडीओ ने पहले ही फैसला सुना दिया कि बच्ची की मौत भूख से नहीं बल्कि मलेरिया से हुई. लेकिन इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि आधार कार्ड जीवन का वो गर्भनाल कैसे बन गया कि अगर उससे राशन कार्ड नहीं जुड़ेगा तो किसी को 8 महीने तक राशन मिलेगा ही नहीं? वास्तव में यह किसी एक संतोषी का मामला नहीं है. बल्कि इस देश का दुर्भाग्य लाखों बच्चों के दुर्भाग्य के रूप में हर साल, बल्कि कहिए कि हर दिन, हर घंटे और हर मिनट ऐसी ही मृत्यु के रूप में प्रकट होता है. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि देश में हर रोज 19 करोड़ लोग खाली पेट सोने के लिए विवश होते हैं.सरकारी आंकड़े ही ये भी बताते हैं कि भारत में हर रोज 3 हजार बच्चे भूख से दम तोड़ देते हैं.
जिस वक्त यह देश, दुनिया से आंखें झुकाकर नहीं, आंखें मिलाकर बातें करने का दम भर रहा हो, उस वक्त हुकूमत की आंखों में इतना पानी नहीं बचा है कि सबसे पहले ये सुनिश्चित किया जाए कि इस देश में किसी बच्चे की भूख या बीमारी से मौत को एक राष्ट्रीय अपराध माना जाएगा. आजकल धरम-करम वाले बहुत घूम रहे हैं तो इस लिहाज से इसे राष्ट्रीय पाप भी माना जा सकता है.
लेकिन ऐसा कुछ होगा नहीं. मंगल तक हमारे पराक्रम के पैर पहुंच गए. लेकिन किसी भूखे के पेट तक अनाज का दाना नहीं पहुंचता. संतोषी के भूख से तड़पकर, एड़ियां रगड़-रगड़कर मरने के करीब दो हफ्ते बाद ही ग्लोबल हंगर इंडेक्स की एक रिपोर्ट आई. उस रिपोर्ट में 119 देशों की सूची थी कि कौन देश भूख की समस्या पर किस नंबर पर है.भारत 100वें नंबर पर है. आपको ताज्जुब होगा कि बांग्लादेश और उत्तर कोरिया जैसे देश भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं. शायद पाकिस्तान से होड़ लेने की हमें ऐसी लत लग गई है कि भूख से अपने लोगों को मरने देने के मामले में भी हम पाकिस्तान से ही प्रतियोगिता कर रहे हैं!
इनकी बेटी भात-भात रट लगाए मर गई
एक जिंदा समाज अपने बच्चों के लिए अच्छी जिंदगी की गारंटी देता है. लेकिन हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़े जाते हैं और फिर अपनी सुविधा के मुताबिक उसमें स्वार्थों की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है. अगर ऐसा नहीं होता तो भव्य मूर्तियों पर करोड़ों करोड़ खर्च करने की जगह उन्हें उन बुनियादी जरूरतों की पूर्ति पर खर्च किया जाता, जिसमें किसी मां के सामने किसी बच्चे को काल-कवलित नहीं होना पड़ता. तब हर चौथा बच्चा कुपोषण का शिकार नहीं होता और हर घंटे 125 बच्चे मौत का शिकार नहीं होते.
किसी देश की संपन्नता उसके हथियारों और बाहुबल से नहीं नापी जाती. किसी राष्ट्र का गौरव सिर्फ इतिहास की जुगाली से भी नहीं बढ़ता. किसी देश की समृद्धि का पहला पैमाना कुछ बुनियादी सवालों को पूरा करने वाली शर्तें होती हैं और उन शर्तों में शामिल है कि हर पेट को खाना मिले. हर शरीर को वस्त्र मिले. हर सिर को छत मिले. हर शख्स को बीमार होने पर दवा मिले. हर बच्चे को पौष्टिक खाना मिले और पढ़ने की सुविधा हो. जब इन शर्तों को पूरा करना मुश्किल होता है या करने की इच्छा शक्ति नहीं होती तो सिस्टम को चलाने वाले उन्माद भरे राष्ट्रवाद और जाति-धर्म की राजनीति के उपासक बन जाते हैं. दुर्भाग्य से देश ऐसे ही संक्रमण से गुजर रहा है.
गांधारी ने कृष्ण को जिंदगी का सबसे पीड़ादायी मर्म समझाया था. उसमें संतान की मृत्यु और भूख सबसे बड़े कष्ट हैं. लेकिन वही कष्ट इस देश की एक बड़ी आबादी की नियति बन चुका है. जब भी आप इस कुचक्र से निकलने के लिए छटपटाएंगे, आप खुद को सियासी जज्बातों की भूलभुलैया में भटकता हुआ पाएंगे.
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