गांव के अगले चौराहे पर लोकतंत्र से मुलाकात हुई, उसके अपने दर्द थे और थी दास्तां!
पूंजी की कोख से निकला प्रजातंत्र ललकार रहा था और ललकार की चीत्कार को सुनने वाली प्रजा कराह रही थी. वो बेबस थी, लाचार थी और ये अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण था कि उसकी आवाज को सुनने वाला कहीं दूर दूर तक नहीं था.
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जनता नही जाति से वोट मांगने वालों का स्वागत करने के लिए बुद्ध की धरती बिहार पहुंचा. जहां पूंजी की कोख से निकला प्रजातंत्र ललकार रहा था और ललकार की चीत्कार को सुनने वाली प्रजा कराह-कराह कर कह रही थी कि बाबू शहर की सड़कें क्यों चिकनी और चमकती हैं? हमारी वाली उबड़-खाबड़ क्यों है? जाते-जाते चोरी से पैसा तो देते हैं पर हमारे घर का पानी क्यों नही पीते हैं? वे पूंजी से प्रजातंत्र को पैदा करते हैं और आप उसे विपरीत परिस्थितियों में पालते हैं.आप पैसा पकड़ना बन्द कर दीजिए, वे पानी पीना शुरू कर देंगे. आपकी उबड़-खाबड़ सड़के ही तो पूंजी पैदा करती हैं, जिससे वे अमर(लोकतंत्र)का भेष बदल कर अकबर(राजा) बनकर, बराबरी की बात करते करते कब बलात्कार कर जाते हैं, जिसका एहसास आपको विपक्ष की एफआईआर से पुष्ट होता है. क्योंकि आपने स्वयं से सवाल पूछना बन्द कर दिया है. इन्हीं उबड़-खाबड़ सड़कों पर चलके बुद्ध ने कहा, बुद्धम शरणम गच्छामि. चिकनी सड़कों पर चलने का अभ्यास मत कीजिये. अपने आचरण को चिकना बनाने का वक्त है, उसे जाया मत कीजिये.
भारत जैसे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबसूरती ये है कि यहां सभी को अपनी बात कहने अधिकार है
दहकती झोपड़ी से निकलते पसीने की बूदें उन पुरखों को तर्पण दे रही थी, जो यह कहते-कहते मर गए कि हमारा लोकतंत्र अमर होना चाहिए,भय और भ्रष्टाचार मुक्त भारत होना चाहिए. तबतक पसीने की खुश्बू बिखेरता लंगड़ा रिक्शे वाला भी आ गया और आंखों को तरेरते हुए ज़हर जैसी जुबां से चीत्कार करते हुए पूछा तुम कौन? मैंने कहा कि मै लोकतंत्र हूं, लगंडे ने कहा कि लोकतंत्र का यहां क्या काम है? घर मे बहु-बेटियों को डपटते हुए कहा कि यह लोकतंत्र नहीं लुटेरा है. होशियार हो जाना, जब-जब आता है तबतब लूट के जाता है. लोकतंत्र तुम निकलो,जल्दी से निकलो...
लोकतंत्र खतरे में है, इसका आभास तो हो गया पर खतरे से निकलने का रास्ता तो सिर्फ व सिर्फ संवाद ही था. लंगड़ेने संवाद सुनकर कहा कि मुझे भी लोकतंत्र बनाओ. लंगड़े को लोकतंत्र बनाने के लिए शहर लाया, शहर में कर्फ्यू जैसा वातावरण था, क्योंकि शहर कंस का वध करने जा रहा था, वध के पीछे सबसे बड़ी भूमिका गजराज की गर्जना में थी जो शहर के विध्वंस में साम्यवाद को दोषी मानता है.
लंगड़े ने पूछा कि अब क्या करूं? मैंने कहा कि बोल, लंगड़े ने जैसे ही बोलना शुरू किया कि हे आन्हर, चोर, उचक्के,पाकिट मार भाईयों, विकास चाहिए कि वंश, सबने हाथ उठा के वंश वंश कहा.लंगड़े लोकतंत्र पुनः पूछा कि पूंजी चाहिए कि प्रजातंत्र, सबने कहा कि पूंजी. लंगड़े लोकतंत्र ने पुनः पूछा कि सत्ता परिवर्तन चाहिए कि व्यवस्था परिवर्तन, सबने कहा कि सत्ता परिवर्तन.
संवाद चल ही रहा था कि शहर कोतवाल ने समय की चेतावनी को डंडे में पटकते हुए, शहर की शांति व्यवस्था को तोड़ने के जुर्म में जेल चलने को कहा, जेल की प्रताड़ना और ज़मानत के आभाव के डर से लंगड़े ने लोकतंत्र न बनने के संकल्प पत्र पर अंगूठा लगाते राजा की जय बोलते, सवाल न पूछने का संकल्प मन ही मन लेते साहब से कहा मालिक आप बताओ जिसको कहेंगे उसको वोट देंगे... और उसने एक नारा लगाया जय लोकतंत्र...
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