पत्रकारों की हत्या पर चुप्पी क्यों साध लेता है देश
एक पत्रकार (Journalist) का काम कितना जोखिम भरा हुआ होता है यह सिर्फ पत्रकार ही जान सकता है. तमाम तरह के संकट से गुजरता हुआ और दूसरों की आवाज बनकर सिस्टम से भिड़ जाने वाला पत्रकार जरूरत पर खुद को अकेला ही पाता है. उसके लिए न तो देश एक होता है और न ही कोई संस्थान.
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के गाज़ियाबाद (Ghaziabad) शहर में सोमवार की रात पत्रकार विक्रम जोशी (Vikram Joshi) को हमलावरों ने पीट डाला और उनके सिर पर गोली दाग दी. पूरी घटना सीसीटीवी में कैद हो गई जिसमें साफ देखा जा सकता है कि कई लोगों ने मिलकर पत्रकार विक्रम जोशी को मिलकर पीटा और उनके सिर पर गोली मार कर भाग गए. विक्रम जोशी पर यह हमला उस वक्त हुआ जब वह अपनी बहन के घर मोटरसाइकिल से जा रहे थे उनके साथ उनकी दो नाबालिग बेटियां भी थी. विक्रम जोशी को गंभीर हालत में अस्पताल (Hospital) में भर्ती कराया गया लेकिन दो दिन बाद यानी बुधवार की सुबह वह अपनी जिंदगी से जंग हार गए. पत्रकार विक्रम जोशी के भांजे का कहना है कि कुछ लड़के उनकी बहन (विक्रम जोशी की भांजी) से छेड़खानी करते थे जिसकी शिकायत मामा ने पुलिस में की थी. पुलिस ने कोई भी कार्रवाई तो नहीं की लेकिन उऩ्हीं लड़कों ने मामा पर इसी शिकायत की वजह से हमला किया है.
गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की मौत के बाद एक बार फिर यूपी की कानून व्यवस्था सवालों के घेरे में आ गई है
जब पत्रकार विक्रम जोशी पर हुए हमले की चारों ओर आलोचना होने लगी तो अब पुलिस हरकत में आई है और इलाके के चौकी इंचार्ज को सस्पेंड कर दिया गया है. इस पूरे मामले पर अब राजनीति भी जमकर हो रही है. तमाम विपक्षी दल सरकार पर हमला कर रहे हैं इसे सरकार की नाकामी बता रहे हैं. जबकि सरकार हमेशा की तरह आरोपियों पर ठोस कार्यवाई करने की बात कह रही है. मामला कोई भी हो सियासत की यह आदत हो चली है.
हर कोई अपने आपको पाक और पाकीजा बताने पर तुला रहता है. पत्रकारों पर हमला यानी सीधे सीधे सिस्टम पर हमला होता है. किसी भी लोकतांत्रिक देश के चारों पिलर सिस्टम का हिस्सा होते हैं. ऐसे में चौथे पिलर यानी मीडिया से जुड़े लोग भी सिस्टम का हिस्सा ही होते हैं. जिस तरह पहले तीन स्तंभ की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाता है वैसे चौथे स्तंभ यानी मीडिया की सुरक्षा इतने मजबूत नहीं बनाए गए हैं.
यह पत्रकारों की बदनसीबी ही है कि वह सबकी आवाज उठाते हैं लेकिन उनकी आवाज को उठाने वाला कोई नहीं होता है. एक पत्रकार का काम बहुत जोखिम भरा होता है. तमाम तरह के सिस्टम की समस्याओं से लेकर बड़े बड़े अपराधियों के खिलाफ भी पत्रकार तंज लहजे में बात करता है. जिन अपराधियों पर शिकंजा कसने के लिए पुलिस की पूरी टीम लगाई जाती है उसी अपराधी के खिलाफ एक पत्रकार बिना किसी सुरक्षा की गारंटी के खबर सामने लाकर रख देता है.
पत्रकारों की सुरक्षा की बात तो लगभग सभी सरकार करती हैं लेकिन असल में सुरक्षा प्रदान करने के मामले में सारी बातें हवा हवाई साबित होती हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दस सालों में पत्रकारों की मौत का एक भी मामला नहीं सुलझा है. आरएसएफ की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में पत्रकारों के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक देश अफगानिस्तान है जबकि भारत पत्रकारों के लिए पांचवा सबसे बुरा देश साबित हुआ है.
भारत में 90 के शुरूआती दशकों से ही पत्रकारों की असुरक्षा बढ़ गई है और यह लगातार बढ़ती ही जा रही है. पत्रकारों की इस दुर्दशा के लिए इस एजेंसी ने राजनेताओं, धार्मिक नेताओं और कारोबारियों को जिम्मेदार ठहराया है. भारत में पत्रकारों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत तो यही है कि संगठन में ही एकता नहीं है.
किसी भी पत्रकार की हत्या पर चुप्पी साध ली जाती है और अगर उसकी हत्या के खिलाफ आवाज उठाई भी जाती है तो बेहद निचले स्तर तक या फिर महज खानापूर्ति की जाती है. हमारे देश में डाक्टर और वकील जैसे संगठन पूरे देश में बने हुए हैं जिनमें किसी भी शहर के किसी भी संगठन से जुड़े लोगों पर अत्याचार होता है तो फौरन पूरा संगठन उसकी आवाज से आवाज मिला देता है और एक मजबूत सिस्टम भी मजबूर होकर न्याय देने के कार्य में जुट जाती है.
जबकि पत्रकारों का संगठन तो है लेकिन कोई भी एकता नहीं है. हर कोई अपने आप और अपने संगठन से मतलब रखता है तभी तो किसी पत्रकार की हत्या पर चुप्पी साध ली जाती है. मीडिया संस्थान में रहने वाले लोग बेहतर जानते हैं कि उनका कितने बड़े स्तर तक शोषण होता है लेकिन हर कोई खामोश है और सिस्टम की दुहाई देता है.
एक मजबूत संगठन न होने के नुकसान हमेशा रह रह कर सामने आ जाते हैं. पत्रकारों की सुरक्षा तब तक सुनिश्चित नहीं की जा सकती है जब तक मिलकर आवाज न उठाई जाए वरना आने वाले समय में पत्रकारों पर अत्याचार बढ़ता जाएगा और तब तक न जाने कितने पत्रकार सिस्टम का भेंट चढ़ते जाएंगें.
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