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Updated: 28 मई, 2016 06:24 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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भारत में भले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो, सोशल मीडिया पर बड़े-बड़े विषयों पर बहस हो, लेकिन पीरियड्स पर लोग आज भी खुलकर बात करने से कतराते हैं. भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जहां पीरियड्स पर बात नहीं होती या इसे लेकर अजीब तरह की धारणाएं हैं, बल्कि कई जगहों पर स्थिति ऐसी है कि महीने के वो दिन महिलाओं के लिए नर्क भोगना जेसे होते हैं. बहुत सी संस्थाएं और लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं, जिससे महिलाओं के जीवन से जुड़े इस सबसे अहम हिस्से को आसान और परेशानी से मुक्त बनाया जा सके.

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्था 'वाटर ऐड' एक कैंपेन चला रही है जिसमें माहवारी से जुड़ी वर्जनाओं को चुनौती देने के साथ-साथ महिलाओं के लिए बेहतर स्वच्छता की मांग की जा रही है. इसी प्रोजेक्ट में नेपाल के एक छोटे से गांव सिंधुली की 7 लड़कियों ने हिस्सा लिया और माहवारी से जुड़े टैबू को तस्वीरों के जरिए समाज के सामने लाने का प्रयास किया.

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 छोटे से गांव की ये 7 लड़कियां तोड़ रहीं हैं माहवारी की वर्जनाएं

इन लड़कियों ने अपने जीवन में पहली बार कैमरे का इस्तेमाल किया. और बड़े ही गर्व से उन्होंने अपने समाज में अपने काम को दर्शाया और उनसे ये उम्मीद की, कि वो इसे टैबू न समझकर इसपर खुलकर बात करें.

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पीरियड के दौरान बनाए गए नियमों को किया कैमरे में कैद
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 समाज के सामने की पीरियड पर खुलकर बात करने की मांग

इन तस्वीरों में दिखाया गया है कि पीरियड्स में परिवार के साथ खाना खाना, अपने घर में रहना, शीशे में खुद को देखना, बाल बनाना, सूरज को देखना, फल और फूलों को छूना, अचार को हाथ लगाना, पूजा करना, और तो और परिवार के पुरुष सदस्यों को देखना तक लड़कियों के लिए मना होते हैं, क्योंकि जब माहवारी होती है तो वो अपवित्र या दूषित हो जाती हैं.

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पीरियड के दौरान शीशा देखने, बाल बनाने और नहाने पर मनाही, लेकिन अब हम नहीं मानेंगे

लड़कियां मानती हैं कि ये बीमारी है

हाल ही में भारत की करीब एक लाख लड़कियों पर शोध किया गया, जिसमें पाया गया कि उनमें से आधी लड़कियों को ये पता ही नहीं था कि माहवारी होती क्या है. जब इन लड़कियों को पहली बार पीरियड हुए, तो रक्त स्राव और भयानक दर्द के कारण वो परेशान हो गईं. उनमें से कुछ को लगा कि वो मरने वाली हैं, या फिर उन्हें कोई गंभीर बीमारी हो गई है.

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 अपने बर्तन घर से दूर जाकर धोना पड़ता है . पूजा की तैयारी कर रही दादी पास भी नहीं आने देतीं

लड़कियां अपने पूरे जीवन में औसतन 3000 दिन पीरियड्स में जीती हैं. यानि अपने जीवन के 6-7 साल पीरियड्स में. हर रोज इस दुनिया की करीब 80 करोड़ महिलाओं को पीरियड होते हैं. महिलाओं के जीवन का सबसे अहम, स्वस्थ और सामान्य सा हिस्सा होने के बावजूद भी लड़कियां इस बारे में जिक्र तक करने से झिझकती हैं. ये झिझक लाजमी इसलिए भी है, क्योंकि भारतीय परिवारों में लड़कियों की कंडिशनिंग ही इसी तरह की जाती रही है. पीरियड्स के दौरान लड़कियों को अपवित्र मानना, उनके लिए बनाए गए कठोर नियम, और भेदभाव से माहौल ही ऐसा बनाया जाता रहा जैसे पीरियड कोई अपराध हो. नतीजा ये है कि इस ग्लानि में लड़कियां आज भी जीती हैं, और 21वीं सदी में भी पीरियड एक टैबू ही बना हुआ है.

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उन दिनों में घर में रहकर भी अलग कर देना, अलग बर्तन में खाना देना, अपने बर्तन खुद धोकर रखना, अचार न छूना, अपनी छाया भी पूजा की चीजों पर न पड़ने देना, बिस्तर पर न सोना, अछूतों जैसा व्यवहार. जिस समय में अपना ध्यान रखने की जरूरत होती है उस वक्त हमारे देश की लड़कियां ये सब झेलती हैं. सही पोषण न मिलने, स्वच्छता की कमी की वजह से लड़कियों की शिक्षा, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है.

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कहीं कहीं खाने के लिए पत्तल दी जाती हैं, दादी पत्तल तैयार कर रही हैं. इस दौरान पहने हुए कपड़े अलग धोकर अलग ही सुखाने पड़ते हैं
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 पपीता खाने नहीं दिया जाता, और न ही अचार को हाथ लगाने दिया जाता है. कहते हैं कि अचार खराब हो जाएगा

इस ओर सरकार का रवैया भी ढ़ीला है-

12-13 साल की लड़की जब 5वीं या 6ठी कक्षा में होती है, तो उसे पहली बार पीरियड होते हैं, लेकिन उससे जुडी इस सबसे अहम बात के बारे में कुछ भी पता नहीं होता. उसकी किताबों में इसका जिक्र 9वीं कक्षा में होता है. पीरियड से जुड़ी जानकारी लड़कियों को उसी उम्र में दी जानी चाहिए जब उसे जरूरत हो. गावों की स्थिति तो और भी खराब है. उन दिनों के लिए आज भी गांवों में पुराने तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं. स्कूलों में पर्याप्त टॉयलेट न होने की वजह से 25 फीसदी लड़कियों को माहवारी शुरू होने पर पढ़ाई छोड़नी पड़ती है. सरकार भले ही स्कूलों में टॉयलेट बनवाने और सैनिटरी पैड्स बांटने के दावे करे, लेकिन हकीकत से वो अब भी काफी दूर हैं.

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खुद ही तोड़नी होंगी वर्जनाएं

माहवारी को लेकर समाज तो सदियों से ऐसा ही था और आने वाले समय में भी ऐसा ही रहेगा, जब तक कि इसे ‘हौआ’ बनाकर रखा जाएगा और इस पर खुलकर बात नहीं की जाएगी. महिलाओं को समझना होगा कि ये रक्त वो है जो उन्हें जीवन का सृजन करने की शक्ति देता है, तो भला उसके लिए शर्मिंदा क्यों होना. उन्हें तो इसपर गर्व होना चाहिए.

तो मेरे देश की लड़कियों,अब शर्मिंदा उन्हें करने की बारी है जो पीरियड को अपराध मानकर लड़कियों को सजा देते हैं. हिम्मत करो, पैड्स खुद जाकर खरीदो, उन्हें काली पन्नियों से बाहर निकालो. अचार को हाथ लगाकर दिखाओ कि ये पीरियड में छूने से खराब नहीं होता. ये वर्जनाएं तुम्हें खुद ही तोड़नी होंगी. और जो तुम न तोड़ पाईं, तो फिर भोगो उस नर्क को सातों दिन और खुश रहो ये सोचकर कि सातवें दिन तो तुम पवित्र हो ही जाओगी.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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