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Updated: 10 नवम्बर, 2016 12:25 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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यूं तो महिलाओं के वो दिन अपने आप में ही परेशानी भरे होते हैं, और जो थोड़ी कसर रह जाती है, उसे कुछ दकियानुसी नियम पूरा कर देते हैं. नतीजा ये, कि माहवारी का समय महिलाओं को एक श्राप जैसा लगता है. हिंदू धर्म ही नहीं लगभग हर धर्म में इन दिनों महिलाओं को अपवित्र माना जाता है और उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है. जैसे ये माहवारी उनकी किसी गलती की वजह से हो रही हो.

भारतीय महिलाओं का दर्द तो हम सब जानते हैं, लेकिन भारत से लगे नेपाल की महिलाओं के कष्ट का अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है. पीरियड्स के दौरान महिलाओं से किया जाने वाला व्यवहार यहां की तुलना में कहीं ज्यादा दर्दनाक और अमानवीय होता है. ये समय महिलाओं के लिए और कितना कष्टदायक हो सकता है, उसकी गवाह है 'छाउपड़ी प्रथा', जो यहां सदियों से चली आ रही है.

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 ये है नेपाल का सिमिकोट इलाका, जहां सदियों से चली आ रही है'चौपदी प्रथा'

माहवारी के दौरान हो जाती हैं बेघर

नेपाल के उत्तर पश्चिम में बसा सिमिकोट क्षेत्र उन दुर्गम इलाकों में से है, जहां रहना काफी मुश्किल होता है. यहां बेहद ठंड रहती है. यहां पहाड़ियां हमेशा बर्फ से ढकी होती हैं. इस जगह माहवारी वाली महिलाओं को इस कदर अपवित्र समझा जाता है कि इन दिनों उन्हें घर में रहने नहीं दिया जाता. उन्हें अपने पीरियड्स के दौरान यानि एक सप्ताह घर के बाहर ठंड में बिताना पड़ता है.

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 प्रथा के चलते घर से बाहर ठंड में बिताने होते हैं सात दिन

कहां और कैसे बिताती है ये समय

ये महिलाएं जिस जगह रहती हैं वो किसी नरक से कम नहीं होता. पालतू जानवरों को रखने के लिए जो जगह बनाई जाती है वो भी शायद इससे बेहतर हो. ये महिलाएं घर से दूर मुर्गी के दड़बे की तरह दिखने वाली छोटी सी कुटिया या 'गोठ' में रहती हैं.

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 ये गोठ चारों ओर से बंद रहते हैं, कोई खिड़की नहीं होती, यहां तक कि इनमें पांव फैलाकर सोया भी नहीं जाता.

गोठ असल में जानवरों को रखने की जगह ही होती है. जाहिर है ये जगह बेहद गंदी और बदबूदार होती है. 12 -13 साल की लड़कियां हों या कोई वयस्क महिला सभी को वो दिन इसी नरक में बिताने होते हैं.

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 घर के बाहर बने ये गोठ या इस तरह सर छुपाने योग्य स्थान लड़कियों के लिए असुरक्षित होते हैं

मां और नवजात को भी निभानी होती है ये प्रथा

ये नियम सिर्फ माहवारी वाली महिलाओं पर ही नहीं बल्कि उन महिलाओं पर भी लागू होता है मां बनने वाली होता हैं, या मां बन चुकी होती हैं. भले ही बच्चा अस्पताल में पैदा हो, लेकिन अस्पताल से लौटकर मां बच्चे के साथ घर नहीं बल्कि गोठ में रहने चली जाती हैं.

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 आग का सहारा लेकर खुद को और बच्चे को ठंड से बचाती हैं ये महिलाएं. आग का इंतजाम भी इन्हें खुद ही करना होता है

कभी कभी तो महिलाएं इसी गोठ में बच्चे को जन्म दे देती हैं, और इन्हें करीब एक महीने यहीं रहना होता है. और लिंग भेद का तमाशा यहां भी देखने को मिलता है. अगर लड़का पैदा हुआ हो तो गोठ में ज्यादा दिन बिताने नहीं पड़ते (क्योंकि लड़का परिवार के लिए महत्वपूर्ण होता है) लेकिन लड़की पैदा होने पर मां और बच्ची दोनों को महीने भर वहीं रहना होता है. ये जगह एक नवजात बच्चे और उसकी मां के स्वास्थ पर बुरा असर डालती है. हर साल करीब 2-3 माताएं इस दौरान दम तोड़ देती हैं.  

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 बच्चे के लिए यहां बिताया समय भी तो सजा पाने की तरह है

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क्या हैं नियम-

इस दौरान ये महिलाएं न तो मंदिर में जा सकती हैं और न किसी और के यहां. वो किसी सामाजिक उत्सव में भी शामिल नहीं हो सकतीं. पानी के सार्वजनिक स्रोतों का इस्तेमाल करने की भी मनाही होती है. वो जानवरों का चारा भी नहीं छू सकतीं. वो फिर भी कड़ी मेहनत करती हैं और पहाडियों में घूमकर लकड़ियां इकट्ठा करती हैं.

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कुछ लड़कियां पढ़ाई करती हैं तो कुछ लकड़ियां इकट्ठा करती हैं

जानवरों को जब खाना दिया जाता है तो भी प्यार से उनकी पीठ सहला दी जाती है. लेकिन इन महिलाओं की स्थिति तो और भी बदतर है. इन्हें खाना इस तरह दिया जाता है कि देने वाले का खास ध्यान इसी तरफ रहता है कि उसका हाथ भी उस महिला से स्पर्श न होने पाए.

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 दूर से ही खाने के बर्तन में खाना डाला जाता है

असुरक्षित हैं महिलाएं

कभी-कभी गांव की लड़कियां अकेली तो कभी एक साथ गोठ में रहती हैं. यहां ये महिलाएं आग जलाकर रखती हैं. इससे ठंड से भी बचत हो जाती है और उन्हें सुरक्षित महसूस भी होता है. कई बार महिलाएं जंगली जानवरों की शिकार बन जाती हैं तो कोई सांप के काटने की वजह से जान गंवा देता है.

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 बुरी आत्माओं से सुरक्षा के लिए गोठ के दरवाजे पर जानवर की खोपड़ी बांध दी जाती है

लेकिन सिर्फ यही डर नहीं है, इन सबसे बचने के साथ-साथ उन्हें अपनी इज्जत भी बचानी होती है. घर से दूर असुरक्षित जगह पर सोने की वजह से कई बार ये महिलाएं बलात्कार की शिकार भी हो जाती हैं. इन बलात्कार की घटनाओं को देखते हुए नेपाल सरकार ने 2005 में इस प्रथा पर रोक लगा दी थी. लेकिन बात अगर प्रथा और रिवाज की हो तो समाज कानून की परवाह कहां करता है. जिन इलाकों में सरकारी महकमे मौजूद हैं, वहां हालात फिर भी सुधरे हैं, लेकिन दूर-दराज के इलाकों में ये रिवाज बदस्तूर जारी है.

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 प्रथा के नाम पर हो रही ये ज्यादती महिलाएं रिवाज की तरह निभाती है

ये महिलाएं छाउपड़ी की प्रथा से नफरत करती हैं, फिरभी उन्होंने इस परंपरा को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना रखा है. वो परंपरा जो उन्हें बिना किसी अपराध के सिर्फ महिला होने की सजा देती है.

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 ठंडे इलाकों में सांस की बीमारी समेत कई रोगों की शिकार होती हैं यहां की महिलाएं

वो डरती हैं क्योंकि सदियों से उन्हें बताया गया है कि इस प्रथा को नहीं मानने पर उनके भगवान नाराज हो जाएंगे. और उन्हें सजा देंगे. इसी वजह से वो इस परंपरा को तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पातीं. वो घुटती रहती हैं, और मरने से पहले ही महीने के उन दिनों में नरक भोग लेती हैं. जब तक जीती हैं, बीमार रहती हैं, यहां शायद ही किसी ने बुढ़ापा जिया होगा क्योंकि यहां की महिलाओं की औसत उम्र केवल 53 साल है.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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