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Updated: 25 जून, 2018 02:28 PM
संघमित्रा बरुआ
संघमित्रा बरुआ
 
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कहा जाता है कि आंखें सब कह देती हैं. कभी निष्ठुरता और क्रूरता दिखाती हैं तो कभी दिखावा और डरावनी लगती हैं. फिर भी, वही आंखें प्यार और करुणा के आंसुओं के साथ चमकती हैं. अगर एक तस्वीर हजारों शब्द के बराबर हैं तो नीचे दी गई दो तस्वीरों में उन भावनाओं की झलक पूरी तरह दिखती है जो भारत में नया "सामान्य" है. "नए भारत" में शिकार और शिकारी के बीच के प्राचीन संघर्ष को दर्शाती हैं.

hapur, mob lynchingबाघ को पूरी "देखभाल" से शिफ्ट किया जा रहा है

hapur, mob lynchingपुलिस के सामने किसी को भीड़ मार डालती है

पहली तस्वीर में मध्य प्रदेश के कान्हा रिजर्व से बाघ को पूरी "देखभाल" के साथ ओडिशा ट्रांसफर किया जा रहा है. दूसरी फोटो में उत्तर प्रदेश के हापुड़ में पुलिसकर्मियों की उपस्थिति में एक आदमी को खींचा जा रहा है.

युवा लोग भीड़ के साथ पीछे-पीछे चल रहे हैं, छोटे बच्चे खड़े होकर देख रहे हैं. और कोई इस पूरी घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहा है. ये भयानक दृश्य 20 जून को दिखाए गए थे. 45 साल के कासिम और 65 साल के समायुद्दीन पर कथित रुप से गौ हत्या की अफवाह फैलने पर भीड़ ने हमला किया था. कासिम जिसे स्थानीय लोगों द्वारा खींचा जा रहा है (तस्वीर में) ने बाद में अस्पताल में दम तोड़ दिया. वहीं समायुद्दीन गंभीर रूप से घायल है और अभी भी अस्पताल में है.

एक अजीब तरह का पूर्वाग्रह:

भारतीय लोकतंत्र में बेहद शक्तिशाली माने जाने वाले मीडिया भी एक अजीब तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित है. एक ओर जहां हम योग दिवस पर धुंआधार कवरेज करते हैं तो वहीं इस तरह की क्रूर हत्याओं, सांप्रदायिक हिंसा को चुपचाप नजरअंदाज कर देते हैं. पिछले चार सालों में, आम भारतीय ने ये सवाल उठाना लगभग बंद ही कर दिया है कि आखिर क्यों कुछ घटनाएं दूसरी घटनाओं की तुलना में सरकार, राजनेताओं और मीडिया का अधिक ध्यान और सहानुभूति अपनी तरफ खींचने में सफल हो जाती हैं.

सहयोगियों से फर्क पड़ता है:

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ जिंदगियां हमेशा ही दूसरों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण होती हैं.

अगर आप सार्वजनिक जीवन में हैं, अमीर और प्रसिद्ध व्यक्ति हैं, तो फिर आपका जीवन भी कीमती है. लेकिन जब हमारे आपके बीच में से किसी की मौत होती है तो आखिर हम क्यों परेशान नहीं होते? हमें पीड़ा नहीं होती? हमें क्यों कोई फर्क नहीं पड़ता? जबकि मीडिया के कुछ वर्ग अभी भी आपकी क्रूर मौत का हल्का सा ही सही जिक्र तो करते हैं. लेकिन सरकार और राजनेता या तो चुप्पी साधे रहते हैं या फिर टाल मटोल कर जाते हैं. समय के साथ साथ, जनता ने भी ऐसी घटनाओं पर ध्यान देना बंद कर दिया है. नतीजतन "लिंचिंग" की घटनाएं हमारे ज़ेहन से तेजी से उतर जा रही हैं.

लोगों की याददाश्त:

हमारे देश के लोगों की याददाश्त भी अजीब है.

भारतीय हर साल अपने प्राचीन अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों को बिना भूले याद करते हैं और मनाते हैं. हम हिंसा और अन्याय को भूलकर शांति की बात करते हैं. दिलचस्प बात यह है कि लिंचिंग पर सरकार की तरफ से बहुत ही कम डेटा उपलब्ध है, ताकि हम अपनी याददाश्त को तेज न कर लें. यह भी खतरनाक है, क्योंकि डेटा ही नीति तैयार करने का आधार होता है.

पिछले साल नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने पूरे देश से इस तरह की घटनाओं के लिए विशिष्ट डेटा एकत्र करने की अपनी योजना की घोषणा की थी. इस रिपोर्ट के अनुसार, एनसीआरबी 1953 से प्रकाशित हो रहे अपने वार्षिक प्रकाशन में भारत में क्राइम 2017 में अपना डेटा प्रकाशित करेगा. जो सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में अपराधिक प्रवृत्तियों सहित अपराधों पर व्यापक आंकड़ों को समाहित करेगा. इसके अलावा, किसी भी कारण फिर चाहे वो गाय को बचाने के लिए हो, जादू टोने की वजह से हो, बच्चा चोरी करने की वजह से हो. लेकिन लिंचिंग पर कोई केंद्रीकृत डेटा नहीं है. ऐसे में कांग्रेस और बीजेपी सरकार दोनों के लिए खुद को लिंचिंग को भुनाने का मौका मिल जाता है.

hapur, mob lynchingभीड़ के मार से जान बच गई बस

यह बताया गया है कि हापुड़ की घटनाओं की तस्वीरों के सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने माफ़ी मांगी. और कहा कि मौके पर मौजूद तीनों पुलिसकर्मियों को हटा दिया गया है. सोशल मीडिया पर सामने आई उस एक छोटी वीडियो क्लिप से पता चलता है कि पीड़ित मैदान में लेटा हुआ है और उसके कपड़े सारे फटे हुए हैं. जिन लोगों के पास भी इतना विभत्स वीडियो देखने की हिम्मत है वो उस व्यक्ति का दर्द देखेंगे. इस रिपोर्ट के मुताबिक, "कैमरे के पीछे से एक आवाज़ हमलावरों को चेतावनी देती हुई भी सुनाई दे रही है कि ''ऐसा मत करो और उसे कुछ पानी पीने के लिए दे दो. तुमने उसे मारा है, उसपर हमला किया है, अब बहुत हो गया है. प्लीज समझो, इसके बहुत बुरे परिणाम होंगे."

लेकिन आखिर परिणाम की चिंता किसे है.

कोई भी एंटी लिंचिंग कानून नहीं है:

आखिर ये लिंचिंग करने वाली भीड़ इतनी निर्भीक क्यों हो रही है उसके पीछे एक कारण है. क्योंकि यह जानता है कि इसे कभी सजा नहीं मिलेगा. भारत में अभी भी कोई विशिष्ट एंटी-लिंचिंग कानून नहीं है. जब पिछले साल संसद में इस मुद्दे को उठाया गया था तब गृह राज्य मंत्री, हंसराज अहिर ने कहा था: "मुझे नहीं लगता कि कानून में कोई बदलाव लाने की जरूरत है."

अब ये तो कोई बच्चा भी समझ सकता है कि आखिर मंत्री जी को ऐसा क्यों महसूस होता है. वो भी ऐसे समय में जब समाजशास्त्री इस मूर्खतापूर्ण हिंसा को समाप्त करने के लिए एक मजबूत कानून की मांग करते आ रहे हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हाल के समय में लिंचिंग में बहुत वृद्धि हुई है. भीड़ जानती है कि वह गाय या इसी तरह की झूठी अफवाह के नाम पर किसी को मार सकती है. और उन्हें कोई हाथ नहीं लगाने वाला. तो फिर आखिर वो किसी के खून की प्यासी क्यों न रहेगी? और अफसोस की बात यह है कि बीजेपी सरकार ने न तो इसके लिए कुछ किया और न ही इस तरह की भीड़ के विश्वास को तोड़ने की इच्छा दिखाई.

इसके विपरीत, इस तरह की भीड़ का मानना ​​है कि वर्तमान राजनीतिक दौर में घृणा और भय का माहौल अनिवार्य है.

सामान्य शिष्टाचार:

पिछले चार सालों में "गौ रक्षा" के नाम पर किए गए आतंकवादी हमलों के मीडिया कवरेज ने इस सोच को स्थापित किया कि भारत में, हर जीवन समान रूप से महत्वपूर्ण नहीं है. और यही उदासीनता अब सामान्य नागरिकों के बीच भी धीरे-धीरे घर करती जा रही है. अगर किसी जीवन के मूल्य को मापने के लिए सरकारी कार्रवाई, मीडिया कवरेज और सार्वजनिक प्रतिक्रिया आधार है, तो यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि कुछ जिंदगियां बहुत अधिक मायने रखती हैं. कुछ कम मायन रखती हैं. और कुछ से तो कोई भी फर्क ही नहीं पड़ता.

ये कोई बोलने वाली बात नहीं है कि देश के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाले सैनिकों का बलिदान मायने नहीं रखता. न ही ये कहने वाली बात है कि देश में तेजी से घटती बाघों की आबादी को हमारी मदद की आवश्यकता है. लेकिन आखिर हम अलग-अलग लोगों के जीवन की कीमत में भेदभाव करने को कैसे आंकेंगे?

हमारे यहां तो दुश्मनों को भी उसके जन्मदिन पर लंबी आयु की कामना करने का रिवाज है. लेकिन फिर किसी आदमी को भीड़ द्वारा क्रूर हत्या पर आखिर हम क्यों खामोश हैं?

(DailyO से साभार)

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संघमित्रा बरुआ संघमित्रा बरुआ

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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