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Updated: 07 अक्टूबर, 2020 07:08 PM
सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'
सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'
  @siddhartarora2812
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एक आम राह चलता आदमी, वो रोज़गार या बेरोज़गार (Unemployed), क्यों अचानक से रेप (Rape) करेगा? रेप है क्या? एक जोड़ा आपसी सहमति से सेक्स (Sex) करें तो वो प्रेम है और यही काम अगर ज़बरदस्ती या मर्ज़ी के ख़िलाफ़ किया जाए तो वो बलात्कार कहलाता है. Rape is a type of sexual assault usually involving sexual intercourse carried out against a person without that person's consent. See? Concent. एक देश जहां स्कूल में बाथरूम जाने की भी आज्ञा लेनी पड़ती है, जहां अपनी मर्ज़ी से लड़का मोबाइल नहीं ख़रीद सकता, फिल्म देखने के लिए भी दोस्तों की सलाह लेता है, शादी मां-बाप की रज़ामंदी के बगैर करने में रूह कांपती है, औलाद रिश्तेदारों के कहे होती है और पड़ोसी की वजह से घर में कलर टीवी आता है वहां बिना इजाज़त के सेक्स करने का आंकड़ा एक दिन में 96 का है.

एक दिन में सौ रेप के मामले दर्ज़ हो रहे हैं, एक ऐसे देश में जहां लड़की-लड़के को साथ खड़ा देखने पर बवाल हो जाता है, जहां शादी से पहले सेक्स तो दूर हाथ पकड़ने की इजाज़त भी नहीं होती वहां साल में 36000 रेप हो रहे हैं तो आख़िर क्यों हो रहे हैं?

Hathras Gangrape, UP, Woman, Man, Rape, Marraigeकिसी भी रेप होने वाले विरोध प्रदर्शन को देखते हुए ख्याल आता है कि आखिर ये घटनाएं होती ही क्यों हैं

फिर रेप के बाद सवाल उठते हैं- सरकार का दोष है कि कानून सख्त क्यों नहीं बनाती? अदालत का दोष है कि समय से न्याय क्यों नहीं करती? वकीलों का दोष है कि ऐसे रेपिस्ट के लिए लड़ते ही क्यों हैं? पुलिस का दोष है कि सही जांच क्यों नहीं करती? लड़की तक का दोष निकल आता है जनाब. लड़की का दोष होता है कि छोटे कपड़े क्यों पहने? अच्छे सुन्दर कपड़े क्यों पहने? रात में बाहर क्यों गयी? दिन में अकेली क्यों घूमी? सड़क पर खड़ी होकर बोली क्यों? बोली तो बोली, ज़ोर से हंसी क्यों?

सवाल और भी होते हैं लेकिन ये आर्टिकल खींचना नहीं मुझे, मुद्दे की बात बतानी है जो ये कहती है कि कमी इधर-उधर नहीं अपने में है. अपने में, अर्थात समाज में, रेप की मानसिकता कहां से जन्म लेती है इसपर रौशनी नहीं डाली जाती.

गालियां बोलचाल का हिस्सा हैं, बनारस तो बाकायदा फेमस इस नाम से है कि वहां का हर शख्स एक अलग डिक्शनरी रखता है, ये बात बड़े गर्व से बताई जाती है कि गाली और भगवान का नाम बनारस में एक साथ बोला जाता है. बनारस मात्र फेमस सही पर हर शहर, उत्तर भारत का हर गांव-मोहल्ला गालियों में किसी से पीछे नहीं और हर एक गाली रेप थ्रेट नहीं है तो और क्या है? हर गाली यही बता रही है कि फलाने का बुरा करना है तो उसकी मां का रेप कर दो, बहन का कर दो या वो खुद अपनी मां-बहन का रेपिस्ट है. यही मतलब है न गालियों का? बोलने से पहले कभी सोचा क्या?

सिनेमा हॉलीवुड का देखो तो पता चलता है कि एक रिपोर्टर को किडनैप कर लिया तो उसको थप्पड़ मारमारकर गुंडा सवाल पूछ रहा है, उसके साथ सेम ट्रीटमेंट कर रहा है जो मेल जर्नलिस्ट के साथ किया. यहां दिखाते हैं कि लड़की कब्ज़े में आई है तो गुंडा उसका रेप कर रहा है. करना तो छोड़िए, अब दर्शक तक किसी फिल्म के सीन में कोई बंधी हुई औरत देख लेते हैं तो उनका पहला अंदाज़ा होता है कि अगले मिनट कोई आकर इसका रेप करेगा. माने रेप क्राइम अदालत के लिए होगा, यहां एंटरटेनमेंट का साधन है.

भारत में लॉकडाउन के दौरान पोर्न देखने वालों में 95% की वृद्धि हुई थी. सीधी भाषा में दर्शक सीधे डबल हो गये थे. लॉकडाउन से इतर भी भारत विश्व में पोर्न देखने वाले देशों में तीसरे नंबर पर है. जहां अनपढ़ता इतनी हावी हो, विज्ञान से सरोकार न के बराबर हो, ग्रामीण क्षेत्रों में औरत की स्थिति दयनीय हो, कानून और कानून के रखवाले माशाल्लाह कर्मठ(?) हों वहां एक आम धरती के बोझ नागरिक को पोर्न फिल्म दिखाती है कि औरत के साथ सेक्स करने से पहले उसे पीटो, उसकी चीखें निकलवाओ, वो चिल्लाई नहीं तो समझो तुम मर्द नहीं हो.

ये सब देखने वाला वो ही लड़का जो बाथरूम जाने से पहले अपने मास्टर से इजाजत लेता था; अब लड़की के कंसेंट की फ़िक्र करेगा? एक आम भारतीय नागरिक सीख क्या रहा है ये समझना ज़रूरी है कि नहीं? फिल्में, गालियां या 9700 करोड़ डॉलर्स सालाना कमाने वाली पोर्न इंडस्ट्री क्या सिखा रही है? स्कूल और पेरेंट्स पर हम कितना ठीकरा फोड़ सकते हैं? क्या वो इस समाज का हिस्सा नहीं हैं?

कितनी फिल्में ये दिखाती हैं कि एक लड़की की मर्ज़ी के बगैर उसके साथ संबंध नहीं बनाने? कितनी? उंगलियों पर गिन लेंगे आप! पर याद कौन सी रहती हैं? वही न जिसमें लड़का जबरदस्ती लड़की को घोड़े पर बिठाकर ले जाता है और लड़की पट भी जाती है. या वो जिसमें पीछे-पीछे नाचता रहता है, तंग करता है और लड़की अदाएं दिखाती पट जाती है.

एक छोटा सा नटबोल्ट अगर गलत लग जाए तो टाइटैनिक सरीखे जहाज डूब जाते हैं, यहां तो सही कलपुर्जा कौन सा है ये ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है. ज़रुरत है सिरे से सब बदलने की. ज़रूरत है एक छोटी-से-छोटी बात पर भी गौर करने की, कंसेंट/इच्छा/मर्ज़ी क्या होती है इसके बारे में तरीके से समझाने की ज़रुरत है.

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लेखक

सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर' सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर' @siddhartarora2812

लेखक पुस्तकों और फिल्मों की समीक्षा करते हैं और इन्हें समसामयिक विषयों पर लिखना भी पसंद है.

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