हिंदी सहित हरेक भाषा का संरक्षण आवश्यक
यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी भाषा को अनुचित तौर पर कोई लाभ न पहुंचाया जाए और सिर्फ भाषा के नाम पर कोई भेदभाव न हो, जरूरत है हिंदी को एक ऐसी भाषा बनाने की जो आधुनिक समय की अपेक्षाओं को पूरा कर सके.
-
Total Shares
ये देखकर अच्छा लगा कि हमारे सांसद भी हिन्दी भाषा की बिगड़ती छवि से चिंतित दिखे. जब किसी वाजिब समस्या पर हमारे जनप्रतिनिधि संज्ञान लेते हैं तो ये संतोष होता है कि इन चुनौतियों से निपटा जा सकता है. हिन्दी को राष्ट्रभाषा होना चाहिए या नहीं इस पर बहस की जा सकती है, किन्तु क्या कोई इस तथ्य से इंकार कर सकता है कि हिन्दीभाषियों को भी समानता का अधिकार प्राप्त है!
हिन्दी को किसी विशेषाधिकार से युक्त करने की बात तो छोड़ ही दिया जाए, हिन्दी को आज वो सम्मान भी नहीं मिल पा रहा है जितना कि किसी को एक भाषा होने मात्र के लिए मिलना चाहिए. जबकि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर वर्तमान समय तक राष्ट्र निर्माण में हिन्दी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.एक सांसद ने ठीक ही कहा कि ऐसा लगता है कि हम अंग्रेजों की गुलामी में जी रहे हैं. ऐसा उन्होंने अनायास ही नहीं कहा है बल्कि यह एक सामूहिक दर्द की अभिव्यक्ति थी.
हमारे देश में एक बड़ी जनसंख्या है जो ऐसे प्रदेशों में रहती है जहां कि प्राथमिक भाषा हिंदी है .फिर भी न तो हिंदी में उच्चतम न्यायालय से न्याय ही मांगा जा सकता है और न ही कोई ऐसी नौकरी ही अब शेष बची है जो हिंदी पढ़कर पायी जा सकती हो. इस साल आए देश की सबसे प्रतिष्ठित सिविल सेवा की परीक्षा के शुरुआती सौ रैंक तक शायद ही कोई हिंदी माध्यम का छात्र मिले. क्या इतने बड़े क्षेत्र में बोली जा रही इस भाषा में प्रतिभा की इतनी कमी है कि हजार से अधिक सफल छात्रों में बमुश्किल पचास छात्र ही हिंदी में परीक्षा देकर पास हो पाते हैं?
अगर वास्तव में ऐसा है तो ये किसकी जिम्मेदारी है कि वो इस अंतर को पाटे? और ये सिर्फ एक उदाहरण है शेष परीक्षाओं में भी कमोबेश यही स्थिति है. साथ ही इन परीक्षाओं से इतर हम अपने मौलिक अधिकारों की बात करें तो देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार है जिसमें न्याय प्राप्त करने का अधिकार भी शामिल है ,लेकिन जब तक सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई ही हिंदी में नहीं होगी तब तक क्या सही अर्थों में न्याय सबके लिए है? एक व्यक्ति जिसे अंग्रेजी भाषा नहीं आती वो तो पहले ही मुकदमा हार जाता है.
यहां लड़ाई हिंदी बनाम अंग्रेजी की नहीं है और न ही हिंदी को देश की एकमात्र भाषा बना देने की है. ये देश रीति रिवाजों से लेकर भाषाओं तक में पर्याप्त विविधता रखता है, इसलिए संभव ही नहीं है कि किसी एक भाषा की सर्वोच्चता स्थापित कर दी जाए. बांग्लादेश के निर्माण में भाषा का एक बड़ा योगदान रहा था बांग्लाभाषियों को यह कतई स्वीकार नहीं था कि उर्दू को एकमात्र आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया जाए. ये आग्रह सही भी था क्योंकि भाषा किसी भी व्यक्ति के आत्मिक उत्थान की प्रारंभिक शर्त है और जब किसी के भाषा पर चोट होती है उसे अपना अस्तित्व संकट में नजर में आने लगता है.
हिंदी समेत देश की सभी स्थानीय भाषाओं का सरंक्षण आवश्यक है |
लेकिन क्या इसी तर्क के आधार पर ये नहीं कहा जा सकता कि अगर आगे भी इसी तरह हिंदी के साथ भेदभाव जारी रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ये भाषा सिर्फ स्मृतियों में शेष रह जायेगी. आखिरकार एक भाषा जिसे बोलने पर न रोजगार मिले, न न्याय तक पहुंच ही हो और इतना ही नहीं उसे बोलने वालों को सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़े, आखिर वो भाषा कब तक टिक पाएगी. ये वाक्य कुछ कठोर से जरूर हैं किन्तु वास्तविकता से दूर नहीं हैं. यहां यह धारणा स्पष्ट करना जरूरी है कि यह सिर्फ भावनात्मक मुद्दा नहीं है बल्कि यह अधिकार का विषय है और इस पर इसी दृष्टिकोण से बात की जानी चाहिए.
अब सवाल ये ही कि क्या हरेक भाषा को उनका हक मिलेगा? ये उम्मीद तब और भी अधिक हो जाती है जब केंद्र में एक ऐसी सरकार हो जो खुद को भारतीय संस्कृति, जिसमे अनिवार्य रूप से भाषा भी शामिल है, का रक्षक और सम्पोषक बताती हो. तो भाषा के बेहतरी के लिए निस्संदेह ठोस कदम उठाने की उम्मीद की जा सकती है. जरूरत है हिंदी को एक ऐसी भाषा बनाने की जो आधुनिक समय की अपेक्षाओं को पूरा कर सके. हालांकि ये बहुत आसान भी नहीं नहीं है लेकिन कुछ न करने से अच्छा है कुछ किया जाए.
तत्काल प्रभाव से जिस चीज को बढ़ावा देना चाहिए वो है किसी भी हाल में इतिहास से लेकर विज्ञान तक पर स्तरीय पुस्तकें हिन्दी में उपलब्ध हों. इसके लिए सरकारी और व्यक्तिगत दोनों स्तरों से अनुवाद को बढ़ावा देना होगा, साथ ही हिंदी में मौलिक शोधकार्यों को बढ़ावा देना होगा ताकि इसमें नयी चीज़ों का प्रवेश हो सके.
दरअसल, यह एक चक्र होता है कि जिस भाषा में पहले से उपलब्ध सामग्री जितनी अधिक होती है उसमे नयी चीजें भी उतनी ही जुड़ती चली जाती हैं. फिर ऐसी किसी भी परीक्षा के प्रारूप में बदलाव लाना होगा जो अभी भारतीय भाषा में आयोजित नहीं हो रही हैं तो साथ ही सभी भाषा -भाषी के लिए समान मौके उपलब्ध कराने होंगे.
यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी भाषा को अनुचित तौर पर कोई लाभ न पहुंचाया जाए और सिर्फ भाषा के नाम पर कोई भेदभाव न हो. इसके अतिरिक्त जिन राज्यों में जो भाषाएं प्रचलित हैं उन्हें और अधिक प्रोत्साहित करना चाहिए.ये एक कठिन कार्य है किन्तु एक राष्ट्रवादी सरकार से हमारी इतनी अपेक्षा तो है ही कि वो राष्ट्र के एक महत्वपूर्ण अंग भाषा को उसका हक दिलाएगी.
आपकी राय