कविता: ज़िंदगी भी गणित की एक मास्टर है...
क्या ज़िंदगी भी गणित के उलझे या अनसुलझे सवालों की तरह है? क्या जीवन में भी पाने और खोने का हिसाब रखना पड़ता है. आइये एक कविता के जरिये इन तमाम सवालों के जवाब तलाश करने की कोशिश की जाए.
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एक सवाल का हल मिला नहीं कि दूसरा खड़ा तैयार है,
उलझे सवालों में रात दिन में तब्दील हो जाता है.
सुबह सूरज कि किरणों से नींद खुते ही, सवाल सवालों में बदल जाते हैं,
और सवालों की गुत्थी सुलझाने में फिर दिन रात में बदल जाती है.
ख़ुशी की चिड़िया किसे कहा जाता है,ये जानने की फुर्सत है किसके पास है,
अब तो आईना भी हमारा चेहरा दिखाने से दूर भागता है.
फिर एक रात छत्त पर चांद को देख, ये सोचा जाता है,
ज़िन्दगी में क्या खो रही हूं मैं, और क्या पाने की तमन्ना है.
फिर हर एक पल वो सब रिश्ते याद आते हैं,
अपने पन की धूप ढूंढ़ने में लग जाती हूं.
जिन्हें वक़्त न दे पायी, उस नशे को पाने की चाह में खो जाती हूं,
वो प्यार- मोहब्बत जो रंग बेरंग हो चुके थे ज़िन्दगी से.
उसका एहसास होने लगता है,
झूठी ज़िन्दगी अब जी नहीं जाती.
अब अपनों के साथ ज़िन्दगी संवारनी है मुझे,
बेरंग ज़िन्दगी को फिर रंगना है मुझे.
ज़िन्दगी के हर सवाल को पीछे छोड़,
अब खुली हवा में सांस लेना है मुझे.
ये वक़्त शायद क़र्ज़ था मेरा ज़िन्दगी जो चुका दिया है मैंने,
अब अपनों से दूर रहने का क़र्ज़ उतारना है मुझे.
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