निर्भया के बहाने मानसिकता का विश्लेषण
“बहुत गलत हुआ, फांसी देनी चाहिए, मगर लड़कियों को सोचना चाहिए न कि घर से बाहर न निकलें, रात में? अरे रात में तो देव भी सो जाते, तो लड़की जात की क्या बिसात”
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बहुचर्चित और हम सबको आक्रोशित कर देने वाले निर्भया कांड का निर्णय आया. स्वाभाविक है स्वागत ही हुआ. इस निर्णय के आने से हम सभी की आत्मा में ठंडक मिली होगी. निर्भया क्यों? और इस जघन्य काण्ड के लिए अपराधी कौन? कल जब से अपराधियों के वकीलों की दलीलें सुनी हैं, या उससे पहले भी वकीलों की दलीलें सुनी, कि मृत्युदंड रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस में दिया जाना चाहिए, तो क्या किसी भी लड़की के साथ बलात्कार रेयर केस में आता है या रेयरेस्ट ऑफ द रेयर में पता नहीं?
मुझे नहीं पता यह कौन सी मानसिकता है जों लड़कों को किसी भी लड़की का बलात्कार कर देने के लिए प्रेरित या उत्प्रेरित करती है? बलात्कार हत्या से भी घिनौना कार्य है, बलात्कार के बाद लड़की यदि जिंदा रह जाए तो पूरी ज़िन्दगी या तो वह गुमनामी में जिएगी या फिर वह जिंदा भी रहेगी तो एक अपराधबोध के चलते. किसी भी लड़की की पूरी ज़िन्दगी नष्ट करने के बाद न जाने किस मुंह से लोग इन लोगों के मानवाधिकार की बात करते हैं? क्या इन लड़कियों का कोई अधिकार नहीं?
जब मैं ये बात लिख रही हूं, तब मैं शायद यह नहीं जान पाती कि स्त्री को मानव ही नहीं माना जाता तो उसके मानवाधिकार क्या होंगे? वह या तो देवी है या दासी, और दोनों ही स्थितियों में वह मानवपन से कोसों दूर? उसके मानवाधिकार क्या? और क्यों? यह बहस का मुद्दा है!
निर्भया कांड के बाद, जैसी मेरी आदत है लोगों से बात करने की, मैं कई लोगों से बाते करती थी, जानबूझ कर इस बात को उठाती थी. कई बातें निकल कर आईं थी मेरे सामने
“बहुत गलत हुआ! बहुत ही, मगर जरूरत क्या थी, इतनी रात को जाने की?”
“बहुत गलत हुआ, मगर आप देखिये, इस बस में बैठने की क्या जरूरत? और वो भी बैक सीट पर? सुनते हैं, वो लोग कुछ कर रहे थे! लड़के थे बाकी, उत्तेजित हो गए, लड़के को फ़ेंक दिया और लड़की को यूज़ कर लिया! अब क्या बुरा किया?”
“बहुत गलत हुआ, फांसी देनी चाहिए, मगर लड़कियों को सोचना चाहिए न कि घर से बाहर न निकलें, रात में? अरे रात में तो देव भी सो जाते, तो लड़की जात की क्या बिसात”
“बहुत गलत हुआ, अब लड़कियों को तो घर पर बैठाने का ही समय है!”
लब्बोलुआब ये कि समय गलत है, लड़कियां घर पर बैठें, लडकियां रात में बाहर न निकलें! जितने लोगों से बात करती गयी, समाज की मानसिकता की ऐसी सडांध बाहर आती गयी कि पूछिए न! सबसे ज्यादा लोगों का सवाल आखिर वह रात में निकली क्यों? रात में बाहर निकलने का अधिकार छीनने वाले कुछ लोग क्यों? क्यों हर बलात्कार के बाद लड़कियों के ये न करो, वो न करो के नियम बनाए जाने लगते हैं? क्यों बलात्कार के लिए प्रेरित करने वाली मानसिकता पर वार नहीं होता? क्यों लड़की को वस्तु या रात को बाहर निकलने वाली, या छोटे कपडे वाली लड़की को सुलभ समझने वाली मानसिकता से बाहर हम नहीं निकल पाते?
सुलभता के सिद्धांत को अपने अनुसार विश्लेषित करने की जो सुविधा है, उसे आपको मारना होगा. लड़की सुलभ नहीं है, लड़की की न ही है! मगर जहां परिवारों में बच्चा पैदा होने के बाद जब स्त्री प्रसव पीड़ा से पूरी तरह उभर न पाए और फिर से सेक्स मशीन बन जाए, वहां पर स्वस्थ स्त्री की न का सम्मान करने की कल्पना? भूल ही जाएं!
जहां पर स्त्री के साथ अभी भी यह कहकर शाब्दिक बलात्कार होता है “वो तो शुक्र मनाओ, हम जैसे मिले हैं, मिला होता कोई जूते मारने वाला या नंगा रखकर पोंछा लगवाने वाला, तो पता चलता, तब तुम्हारा मुंह खुलता!” उसमें निर्भया के अपराधियों के प्रति लगाव कोई असहज नहीं है, और मैं बस यही गुनगुनाती हं, जब स्त्री की न को सम्मान मिलेगा, वह सुबह कभी तो आएगी, मैं उस सुबह के इंतजार में हूं, मैं उस सुबह के इंतजार में हूं.
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