मुजफ्फरपुर के बाद आरा में दम तोड़ता बिहारी समाज!
बेटे-बेटी को IAS, IPS बनाने के लिए पढ़ाते हैं लेकिन केवल शोहरत के लिए, रुतबे के लिए. पैसा के लिए. अधिक दहेज के लिए. समाज-सेवा या भलाई की बात हम उन्हें नहीं सिखाते हैं. अगर कोई बच्चा बाहर से सीख भी ले तो उसे बुरबक कहकर मज़ाक़ उड़ाते हैं.
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मैं 18 साल की उम्र तक बिहार के ही एक गाँव में रहा हूँ. वहीं पला हूँ और वहीं खेला-कूदा हूँ. बहुत प्रेम करता हूँ अपने समाज से, अपने गाँव से. अपने राज्य से और इसीलिए जब वहाँ से मुजफफरपुर या आरा होने की ख़बर आती है तो दिल्ली में कहीं भी रहूँ, परेशान हो जाता हूँ.
कुछ नहीं बदला. भोजपुर के बिहिया इलाक़े में एक मोहल्ला है. जिसे आप में से कुछ लोग ‘बदनाम मोहल्ला’ कहते होंगे. कुछ लोग ‘बाई जी का मोहल्ला’ बताते होंगे और कुछ लोग उसे ‘रंडीखाना’ कहते होंगे. क्योंकि सभ्य समाज के मर्द उस मोहल्ले में रात को जाते हैं और भोर होने से पहले सभ्य मोहल्ले में आ जाते हैं. अपनी गंदगी वहाँ छोड़ आते हैं.
इसी मोहल्ले के सामने एक लड़के की मौत हो गई. मौत क्यों हुई? कैसे हुई? किस ने मारा या वो ख़ुद ही मर गया, ये सब जानने से पहले सभ्य समाज के कुछ लड़कों ने उस मोहल्ले पर धावा बोल दिया. चार घंटे तक कुछ लड़कों ने बवाल काटा. उस मोहल्ले की एक औरत को नंगा करके पूरे बाज़ार में घुमाया. जी हां, पूरे बाज़ार में. और किसी ने उस लाचार महिला को तन ढकने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा नहीं दिया. वो रोती रही, बिलखती रही. पूरा बाज़ार धृतराष्ट्र और गांधारी की तरह अंधा बना रहा. दुर्योधन और दु:शासन औरत को नंगा करने का जश्न मनाते रहे लेकिन पूरे बाज़ार में किसी ने कृष्ण की तरह उस अबला औरत की मदद नहीं की.
मुजफ्फरपुर और आरा में दो शर्मसार कर देने वाली घटनाएं हुई हैं
अब बताए कोई कि महाभारत के पाठ का क्या मतलब है?
हम लाख आइएएस और आइपीएस पैदा कर लें. अपने मेहनती होने का शेखी बघार लें. ख़ुद के सीधे होने का भी ढोल पीट लें लेकिन सच्चाई यही है कि हम अभी भी जीवन जीना और दूसरों के जीवन का सम्मान करना नहीं सीख पाए हैं. हमें अभी लम्बा रास्ता तय करना है. अपने सारे गुमान ताक पर रख दीजिए. राज्य से बाहर बिहारी कहने जाने पर आने वाले शर्म को शरबत की तरह पी लीजिए. यह मान कर काम शुरू कर देना चाहिए कि हम में, हम बिहारियों में, हमारी समाजिक व्यवस्था में और हमारे बच्चों की परवरशि में ज़रूर कोई खोट है.
या यूं कहें तो खोट ही खोट है. बहस में हारने पर कबतक हम गांधी के चंपारण आने और राज्य से देश को पहला राष्ट्रपति देने का गीत गाते रहेंगे. हम वैशाली को लोकतंत्र की जननी बताते हैं लेकिन अपने राज्य में, अपने गाँव में, अपने टोले में ख़ुद लोकतंत्र की हत्या करते हैं.
बेटे-बेटी को आइएएस, आइपीएस बनाने के लिए पढ़ाते हैं लेकिन केवल शोहरत के लिए, रुतबे के लिए. पैसा के लिए. अधिक दहेज के लिए. सेवा की भावना, समाज की भलाई की बात हम उन्हें नहीं सिखाते और अगर कोई बच्चा बाहर से सीख भी ले तो उसे बुरबक कहके उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं.
बिहार के गाँव में अगर किसी की सरकारी नौकरी लगती है तो माई, बाप, चाचा और पूरा गाँव यही अन्दाज़ा लगाने में लग जाता है कि आमुख नौकरी में ऊपरी कमाई कितनी है? कितना तक कमा सकता है. कितने से ज़्यादा कमाने पर ख़तरा हो सकता है, आदि, आदि. क्या ये एक बड़े वर्ग की सच्चाई नहीं है? अगर है तो फिर किस बात का घमंड? कौन सी शान?
जिस महिला को ये यातना दी गई उसका मृतक से कोई लेना-देना नहीं था
हम अपने बच्चों में वो कथित ससंकार नहीं डाल रहे हैं जिनका गुणगान रामायण और महाभारत का पाठ गाते हुए करते हैं और यह सोचने वाली बात है.
मैं सालों से दिल्ली में रहता हूँ. जब भी गाँव बात होती है तो पिता जी कश्मीर के बारे में पूछ लेते हैं. देश में कहीं भी हिन्दू-मुस्लिम के बीच कुछ हुआ हो तो बात करके चिंता ज़ाहिर कर देते हैं लेकिन जब मुजफ़्फ़रपुर हुआ तो उन्होंने इसकी चर्चा तक नहीं की. मुझे विश्वास है कि ये कि ये घटना उन्हें परेशान नहीं कर पाई होगी. और मेरे पिता जी अकेले नहीं हैं. आपमें से बहुतों को परेशान नहीं कर पाई होगी. कुछ लोगों ने तो ख़बर पढ़ कर मज़े भी लिए होंगे. बालिका सुधार गृह में रहने वाली उन लड़कियों को ही ग़लत बताया होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ होगा तो मुझे ख़ुशी है लेकिन मेरा विश्वास है कि ऐसा हुआ होगा.
असल में बिहिया में केवल एक औरत नंगी नहीं हुई. मुज़फ़्फ़रपुर में केवल कुछ लड़कियों की इज़्ज़त के साथ कुछ लोग नहीं खेले. या ऐसी दूसरी घटनाओं में कोई एक ही शिकार नहीं बनता. हमसब शिकार बनाते हैं. मैं भी, आप भी और ये पूरा समाज भी. कोई नहीं बचता. किसी की लाज नहीं बचाती. किसी का मान सुरक्षित नहीं रहता है. आज भी यही हुआ है. बिहिया के बहाने पूरा बिहारी समाज नंगा हुआ है.
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