स्वच्छ भारत पाना है तो बापू के चश्मे से देखें
बापू ने इस बात को लेकर चिंता व्यक्त की थी कि लोग नदियों में गंदगी बहाते कैसे हैं. यदि तब हमने बापू की बातों पर अमल किया होता तो आज हमारी नदियों का यह हश्र न होता.
-
Total Shares
"स्वतंत्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्वच्छता"- महात्मा गाँधी. बापू के इस कथन से ही जाहिर होता है कि निजी जीवन में वो स्वच्छता के कितने बड़े हिमायती थे. सबसे बड़ी बात यह है कि वह सिर्फ बाहरी स्वच्छता यानी घर, पास-पड़ोस आदि के ही पक्षधर नहीं थे. बल्कि उनका मानना था कि अगर मन और पड़ोस साफ नहीं होगा तो अच्छे और सच्चे व ईमानदार विचार आना असंभव है. गांधीजी बाहरी स्वच्छता के लिए आंतरिक स्वच्छता को आवश्यक मानते थे.
बापू ने एक चिट्ठी में लिखा है- "वह जो सचमुच में भीतर से स्वच्छ है अस्वच्छ बनकर नहीं रह सकता." एक सुंदर, पवित्र, समरस और बुराइयों से मुक्त समाज के निर्माण के लिए बापू के स्वच्छता दर्शन से श्रेष्ठ कोई और दर्शन नहीं हो सकता. यही कारण है कि स्वच्छ भारत मिशन में प्रतीक के रुप में बापू के चश्मे को रखा गया है.
बापू की नजरों से देखें स्वच्छता अभियान को
10 दिसंबर 1925 को प्रकाशित यंग इंडिया के अंक में बापू ने लिखा था- "आंतरिक स्वच्छता पहली वस्तु है, जिसे पढ़ाया जाना चाहिए. बाकी बातें इसे पढ़ाने के बाद ही लागू की जानी चाहिए." वह मानव प्रगति के लिए आंतरिक और बाहरी स्वच्छता को आवश्यक मानते हैं. उन्होंने स्वच्छता को आत्मविकास और राष्ट्र विकास का सबसे महत्वपूर्ण अवयव माना है. और इसे इस प्रकार स्पष्ट किया- "एक पवित्र आत्मा के लिए स्वच्छ शरीर में रहना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि किसी स्थान, शहर, राज्य और देश के लिए स्वच्छ रहना जरुरी होता है. ताकि इसमें रहने वाले लोग स्वच्छ और ईमानदार हों."
स्वच्छता का उनका दर्शन अत्यंत व्यापक था. उन्होंने कहा कि- "यदि कोई व्यक्ति स्वच्छ नहीं है तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता है. और यदि वह स्वस्थ नहीं है तो स्वस्थ मनोदशा के साथ नहीं रह पाएगा. स्वस्थ मनोदशा से ही स्वस्थ चरित्र का विकास होगा.
उन्होंने सिर्फ व्यक्तिगत स्वच्छता पर ही बल नहीं दिया. बल्कि समग्र रुप से सामाजिक स्वच्छता पर विशेष बल दिया. कहा कि- "यदि कोई व्यक्ति अपनी स्वच्छता के साथ दूसरों की स्वच्छता के प्रति संवेदनशील नहीं है तो ऐसी स्वच्छता बेईमानी है. उदाहरण के लिए इसे अपना घर साफ कर कूड़ा दूसरे घर के बाहर फेंक देने के रुप में देखा जा सकता है. अगर सभी लोग ऐसा करने लगें, तो ऐसे में तथाकथित स्वच्छ लोग अस्वच्छ वातावरण तथा अस्वच्छ समाज का ही निर्माण करेंगे." उन्होंने हमें यह सीख दी कि यदि व्यक्तिगत स्वच्छता में सामूहिक स्वच्छता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध नहीं हो तो ऐसी स्वच्छता सिर्फ दिखावा है.
गांधी जी ने हमें ये दायित्व बोध करवाया कि हम दूसरों के लिए गंदगी न फैलाएं. खुद जो गंदगी फैलाए उसकी सफाई भी स्वयं करें. इसमें ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं होना चाहिए. 25 अप्रैल 1929 के यंग इंडिया में बापू ने लिखा- "हम अपने घरों से गंदगी हटाने में विश्वास करते हैं. लेकिन समाज की परवाह किए बगैर इसे गली में फेंकने में विश्वास करते हैं. हम व्यक्तिगत रूप से साफ-सुथरे रहते हैं. परंतु राष्ट्र के, समाज के सदस्य के तौर पर नहीं. जिसमें कोई व्यक्ति छोटा-सा अंश होता है. यही कारण है कि हम अपने घर के दरवाजों पर इतनी अधिक गंदगी और कूड़ा-कचड़ा पड़ा हुआ पाते हैं. हमारे आस-पास कोई अजनबी अथवा बाहरी लोग गंदगी फैलाने नहीं आते हैं. ये हम ही हैं जो अपने आस-पास रहते हैं."
साबरमती आश्रम की साफ-सफाई एवं पेड़-पौधों की देखभाल गांधी जी स्वयं करते थे. बापू जिस बस्ती में रहते थे, उस बस्ती, उसके आस-पास के क्षेत्र और शहरों की सफाई में उन्होंने बढ़-चढ़कर योगदान दिया. जब डरबन की एक भारतीय बस्ती में प्लेग फैला तब बापू ने बीमारों की सेवा का बीड़ा उठाया. इसके साथ ही प्लेग के प्रसार को रोकने के लिए वहां जमकर अभियान चलाया.
स्वच्छता बाहरी ही नहीं अंदर की भी जरुरी है
एक और प्रेरक उदाहरण देखें. उन दिनों कोलकाता में कांग्रेस का सम्मेलन चल रहा था. इसमें सम्मिलित होने के लिए बापू दक्षिण अफ्रीका से आए थे. कार्यक्रम स्थल पर व्याप्त गंदगी और अस्वच्छता देखकर वो व्याकुल हो उठे. उन्होंने आगे बढ़कर वहां स्वयं सफाई का काम शुरु कर दिया. यहां तक कि शौचालयों की भी सफाई की.
आज भारत में बहने वाली नदियों की दयनीय दशा किसी से छिपी नहीं है. नदियां प्रदूषण का दंश झेल रही हैं. नदियों को प्रदूषित करने में हमारा ही योगदान है. बापू ने बहुत ही पहले इस बारे में आगाह करते हुए कहा था कि- "नदियां हमारे देश की नाड़ियों की तरह हैं. यदि हम उन्हें गंदा करना जारी रखेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी नदियां जहरीली हो जाएंगी. और अगर ऐसा हुआ तो हमारी सभ्यता नष्ट हो जाएगी." हम पर्यावरणीय आपदा के मुहाने पर खड़े हैं. क्योंकि हमने अपनी सबसे पवित्र नदी गंगा तक को प्रदूषित कर डाला है. बापू ने इस बात को लेकर चिंता व्यक्त की थी कि लोग नदियों में गंदगी बहाते कैसे हैं. यदि तब हमने बापू की बातों पर अमल किया होता तो आज हमारी नदियों का यह हश्र न होता.
बापू ने स्वच्छता के लिए न सिर्फ व्यावहारिक पहलें की बल्कि व्यावहारिक सीख भी दी. स्वच्छता के लिए उन्होंने जन-सहभागिता और जन-जागरूकता पर विशेष बल दिया और साफ-सफाई के लिए आत्म-प्रेरित प्रयासों को आवश्यक माना. स्वच्छता को सामूहिक जिम्मेदारी बताते हुए उन्होंने यह रेखांकित किया कि इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को चिंता करनी होगी और जिम्मेदारी लेनी होगी.
स्वच्छ भारत अभियान के परिप्रेक्ष्य में बापू का स्वच्छता दर्शन अत्यंत प्रासंगिक है. इस अभियान की सफलता के लिए आवश्यक है कि हम बापू के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ें. हम स्वच्छ भारत का लक्ष्य केवल अपनी आत्मा की शुद्धता और इसके बाद अपने आस-पास की साफ-सफाई करके ही हासिल कर सकते हैं. यही बापू को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी.
ये भी पढ़ें-
चीन से ज्यादा जानलेवा खतरा देश को मच्छरों से है
हकीकत सीएम योगी के आंसू नहीं, नर्क भोगता शिवा है
134 साल का रोना और गंगा फिर भी मैली
आपकी राय