चंदन - अख़लाक़ कांड से खुश होने वाले कॉमन लोग...
उत्तर प्रदेश के कासगंज में एक बड़ा हादसा हो चुका है और इसके साथ शुरू हो चुकी है नफरत और लाश की सियासत. जिसे अगर वक्त रहते नहीं रोका गया तो भविष्य में परिणाम बेहद घातक होंगे.
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एक चंदन, एक अखलाक और कुछ लोग. एक कासगंज, एक दादरी और कुछ लोग. ये वो कुछ लोग हैं, जो नफरत का करोबार तैयार किये बैठे हैं. ये वो कुछ लोग हैं, जो लाशों का बाजार सजाए हैं. धर्म और समुदाय के नाम पर खून बहाना इनका शौक है. उस खून से तिलक लगाना और वजू करना इनका धर्म. असल में ये जो नया धर्म है इसे आप 'नफरत का धर्म' कह सकते हैं. इस धर्म के ग्रंथ में सिर्फ एक उसूल है- मासमों की मौत और उनकी लाशों पर राजनीति. ये मासूम कोई भी हो सकता है. आप भी-मैं भी. बस इसका निर्धारण ये नफरत के कारोबारी करते हैं. कब आपका तिलक आपकी जान पर बन आए, कब आपकी टोपी आपकी मौत को दावत दे, कह नहीं सकते! क्योंकि इस देश में अब नफरत ही धर्म बन चुका है.
आज अराजक तत्वों द्वारा लोगों की मौत पुलिस के सामने एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है
नफरत जब धर्म बन जाए तो हम इंसान की मौत पर जश्न मनाते हैं. ठीक उन जानवरों की तरह जिन्हें कई दिनों बाद शिकार मिला हो. उन जानवरों की तरह ही हम भी उस इंसान की लाश में अपने नाखून गड़ा देते हैं. उसे चीरते हैं और उसके फटे हुए मांस के रेशों को राजनीति के तंदूर पर सेंक कर बड़े ही चाव से खाते हैं. ये नफरत जब धर्म बन जाता है तो फिर इंसान की मौत नहीं होती. मौत होती है मुसलमान और हिंदू की. और ये नफरत के कारोबारी उसकी लाश की दुर्गंध को भी बेच देते हैं.
सोचने वाली बात है, हम जो विश्वगुरु बनने का दंभ भरते हैं. क्या इस तरह से उसकी दिशा तय होगी? जिस देश में बीफ, लव जिहाद, नारे और तिलक पर हत्याएं हो जाएं. जिस देश में राष्ट्रगीत और राष्ट्र ध्वज को उपद्रव का कारण बना दिया जाए. वो देश किस ओर बढ़ रहा है इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
एक इंसान की मौत होती है तो हम कहते हैं- 'मुसलमान/हिंदू मारा गया है.' मेरा मानना है, जिस वक्त उस इंसान के साथ उसका धर्म जुड़ जाता है. उस वक्त ही उसका धर्म मर जाता है और नफरत का धर्म अपनी जगह बना लेता है. हम मारने वाले को कभी उपद्रवी, हत्यारा या जानवर की संज्ञा नहीं देते. उसे तो हिंदू और मुसलमान की संज्ञा दी जाती है. जब ये संज्ञा दी गई उसी वक्त धर्म मर जाता है और नफरत का धर्म अपनी जगह बना लेता है.
कासगंज में हुई युवक की मौत के बाद धर्म आधारित राजनीति की शुरुआत हो चुकी है
मैं कहता हूं, मरने वाला कभी हिंदू-मुसलमान हो ही नहीं सकता. न ही मारने वाला हिंदू और मुसलमान हो सकता है. जो मरा है वो इंसान था, जिसने मारा वो हैवान, जानवर या दानव, जो कह लें. लेकिन हमें उस मरने और मारने वाले के धर्म में ज्यादा इंट्रेस्ट रहता है. ये जो 'कुछ लोग' हैं, जिनका जिक्र मैं शुरुआत में कर रहा था. ये 'कुछ लोग' आपके इसी इंट्रेस्ट का फायदा उठाते हैं. सोशल मीडिया जो कि आज ज्ञान की पाठशाला बन गया है. उस पाठशाला में जांच से पहले ही कुछ लोगों के नाम तैरने लगते हैं. बताया जाता है यही वो हिंदू/मुसलमान हत्यारा है, जिसने मुसलमान/हिंदू की हत्या की है. उसके मारने के तरीके से लेकर उसकी हैवानियत तक का जिक्र होता है.
ऐसी घटनाओं पर सरकार की चुप्पी एक गहरी चिंता का विषय है
ऐसी बातें भी होती हैं, जिनसे आप ये मान बैठें कि सबसे ज्यादा खतरा आपके धर्म को ही है. आपका खून खौल उठता है और आप एक इंसान की हत्या को भी जायज ठहराने लगते हैं. जिस वक्त आप ये जायज ठहराते हैं उसी वक्त आपके भीतर का जानवर जाग जाता है. आप भी उन्हीं कुछ लोगों में शामिल हो जाते हैं. जो नफरत का कारोबार चला रहे. आप भी एक जानवर बन जाते हैं.
दरअसल, हम सब भीतर से जानवर हैं. इंसानी चोला ओढ़े जानवर. अब ये चोला घिस गया है और जानवर नंगे होकर खुलेआम सड़कों पर घूम रहे हैं. अब रोज चंदन का शिकार होगा और रोज अखलाक मारा जाएगा. इस जानवर की भूख बड़ी है! ये जंगल अब उजाड़ होने को है.
अंत में सिर्फ एक बात कहूंगा- क्या गुलशन में फूलों की खुशबू को एक-दूजे में मिलने से रोक सकते हो, नहीं न. तो जब प्रकृति ये साफ संदेश दे रही है कि हमें साथ मिलकर रहना है. तो क्यों इन नफरत के कारोबारियों को पनपने देना. दफा करो इनको और इंसान बने रहो, जानवर तो बनके कुछ हासिल न होगा.
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