क्या कोर्ट किसी मुस्लिम को गीता बांटने के लिए कह सकती थी?
ऋचा ने बजाए अदालत का फैसला मानकर कुरान की पांच प्रतियां बांटने के, ऊपरी अदालत में फैसले के खिलाफ़ अपील करने की ठानी है. क्योंकि सिर्फ उसे ही नहीं, बहुत से लोगों को लगता है कि अदालत का फैसला, संविधान के तहत उसे मिलने वाली धार्मिक आज़ादी पर चोट करता है.
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उन्नीस साल की ऋचा भारती, फर्स्ट ईयर में पढ़ती है. फेसबुक पर एक पोस्ट शेयर करने के लिए दो दिन दो रात जेल में बिता चुकी है. और अदालत के फैसले के बाद, देश-दुनिया में शुरू हुई एक नई बहस के केंद्र में है.
बहस ये कि क्या अदालत, किसी को एक धर्म के खिलाफ़ पोस्ट शेयर करने के आरोप में, उस धर्म का प्रचार करने की शर्त रख कर ज़मानत दे सकती है? रांची की अदालत ने ऋचा की पोस्ट पर ज़मानत देने के लिए जो शर्त रखी, उसे इसी तरह से देखा जा रहा है. अदालत ने लड़की से कहा कि वो कुरान की पांच प्रतियां बांटे. जिनमें से एक प्रति उसी संगठन को भी देनी होगी, जिसकी शिकायत पर ऋचा के खिलाफ़ ये कार्रवाई हुई.
ऐसा नहीं है कि देश की अदालतों ने इसके पहले ऐसे फैसले नहीं दिए, जिनमें सज़ा की बजाए सीख देने की कोशिश हो. राजस्थान के प्रतापगढ़ में चार लोगों को पेड़ काटने पर, उसके बाद में दस गुना ज्यादा पौधे लगाने की सज़ा सुनाई गई थी. कुछ साल पहले दिल्ली में छेड़छाड़ के एक आरोपी से अदालत ने कोर्ट में ही उठक बैठक कराई थी, जुर्म कुबूल कर लेने पर न्यायिक हिरासत में बिताए उसके समय को ही सज़ा मान कर उसे छोड़ दिया गया था.
क्या कोई अदालत धर्म का प्रचार करने की शर्त रख कर ज़मानत दे सकती है?
लेकिन जब ऐसे मामले में धार्मिक प्रतीक की एंट्री हो जाए, तो मामला संवेदनशील हो जाता है. खासतौर पर वो मामले जिनमें धार्मिक भावनाओं को भड़काने या आहत करने का आरोप हो. यहां ये जानना ज़रूरी है कि ऋचा भारती को अभी सज़ा भी नहीं सुनाई गई है, क्योंकि दोष साबित होने न होने पर तो अभी बहस चलनी है– ये केवल ज़मानत दिए जाने के लिए शर्त है, जो अमूमन मुचलका भरवा कर, गारंटी लेकर भी दे दी जाती है.
ऋचा ने बजाए अदालत का फैसला मानकर कुरान की पांच प्रतियां बांटने के, ऊपरी अदालत में फैसले के खिलाफ़ अपील करने की ठानी है. क्योंकि सिर्फ उसे ही नहीं, बहुत से लोगों को लगता है कि अदालत का फैसला, संविधान के तहत उसे मिलने वाली धार्मिक आज़ादी पर चोट करता है.
फर्ज़ कीजिए, इस मामले के किरदार थोड़े बदले होते. ऋचा ने किसी ऐसे मामले की शिकायत की होती और किसी अल्पसंख्यक समुदाय के आरोपी को अदालत ने ऐसा आदेश सुनाया होता, तो क्या उसे आसानी से मान लिया गया होता? वैसे आपको याद होगा कुछ रोज़ पहले रामायण पढ़ने पर कुछ मुस्लिम युवकों द्वारा एक मुस्लिम युवक की ही पिटाई का मामला सामने आया था. उस मामले के आरोपियों को ज़मानत देते वक्त अदालत ने कतई नहीं कहा कि युवक को पीटने वाले सब आरोपी, बाहर जा कर रामायण या रामचरित मानस की प्रतियां बांटें. बल्कि सबको बिना शर्त ज़मानत मिल गई थी.
वैसे सोचिए, अगर अदालतें ऐसी ही शर्तों पर ज़मानत देने लगें, तो? दिगंबर जैन संत का अपमान करने वालों से अदालत कह दे कि जाइए, पांच दिन दिगंबर (बिना वस्त्रों के) रहकर जैन मुनि के आश्रम में सेवा कार्य कीजिए, तो? ‘जय श्री राम बोलने के लिए मजबूर किया गया’ की शिकायत झूठी निकलने पर, अदालत कह दे कि पांच दिन तक रोज़ सुबह मंदिर में घंटी बजाते हुए जय श्री राम का जाप कीजिए, तो? क्या ये शर्तें स्वीकार कर ली जाएंगी? या कि लाशों, मिड डे मील की थालियों, इमारतों के रंगों और क्रिकेट टीम के कपड़ों तक में धर्म ढूंढ निकालने वाले हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी इन शर्तों को संविधान, देश और धर्म के खिलाफ़ बताकर संयुक्त राष्ट्र तक गुहार लगाने चले जाएंगे?
मामला अभी अदालत में है. आगे इस पर और सुनवाइयां होंगी. ऋचा ने पोस्ट शेयर कर के सही किया या गलत, कानून तय करेगा. धाराएं हैं, उनके आधार पर सज़ा होना न होना तय हो जाएगा. लेकिन जो बहस शुरू हुई है वो दूर तक जाएगी. और इसके नतीजे भी दूर तक दिखाई देंगे. क्योंकि कथित धार्मिक असहिष्णुता की बहस की हवा जब से चली है, तब से माहौल असहिष्णुता कहीं ज़्यादा घुली है.
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