आलिया भट्ट की इंस्टाग्राम प्रोफ़ाइल पर नज़र गयी. उनकी बेबी बम्प वाली तस्वीरें अच्छी लगीं आंखों को. नज़र कैप्शन पर गयी और अजीब हो गया मन… आलिया लिखती हैं,'आईआईटी बॉम्बे हम आ रहे हैं. शुक्रिया प्रमोशन का, कम से कम अब मैं कह सकती हूं कि आईआईटी गयी थी, घंटे भर ही सही.' यह मज़ाक़ है. इसे हल्के-फुलके ढंग से लिया जाना था पर क्या हम इस हल्की-फुलकी चीज़ों में ही समाज के दोष नहीं ठूंस देते हैं? आलिया मेहनती हैं और उस वजह से सफल भी हैं. वे जहां हैं वहां अच्छा काम कर रही हैं. यही उन्हें आलिया बनाता है पर जब वे आईआईटी के लिए इतनी महिमामयी पोस्ट लिखती हैं तो मुझे लगता है संरचना में कुछ मौलिक गड़बड़ी है. देश की सफल कलाकार भी अपने आपको धन्य तब मानेगी जब उस पर आईआईटी की लेबलिंग होगी.
यह कई घावों को कुरेदे जाने जैसा है. हम उस देश में रहते हैं जहां अक्सर बच्चे के बोलने से पहले उनका करियर तय हो जाता है. जहां लोन लेकर आईआईटी और मेडिकल की तैयारियां करवाई जाती हैं. आठवीं से बच्चों का जीवन दूभर हो जाता है. कला के तमाम विषयों को फ़िज़ूल माना जाता है. और मेडिकल-इंजीनियरिंग की तैयारी करवाने कोटा कैसे शहर सुसाइड फ़ैक्टरी बन चुके हैं.
छोटी सी घटना है. 2009 की बात है. भाई का निफ़्ट में नामांकन हुआ. डैडी थोड़े ख़ुश, थोड़े उहा-पोह में थे. बेटी ने पत्रकारिता चुनकर उनके सपनों पर पानी डाल ही दिया था, बेटा भी आईआईटी की जगह निफ़्ट जा रहा था. फिर भी कुछ काउन्सलिंग से वे आ ही रहे थे रास्ते पर कि शहर के एक सज्जन आए और उन्होंने डैडी से कहा, 'सुना था आपका बेटा बहुत अच्छा है पढ़ने में. आईआईटी भेजते न उसको. हमलोगों को भी अच्छा लगता. कहां ई फ़ाइन आर्ट पढ़ने भेज रहे हैं....
आलिया भट्ट की इंस्टाग्राम प्रोफ़ाइल पर नज़र गयी. उनकी बेबी बम्प वाली तस्वीरें अच्छी लगीं आंखों को. नज़र कैप्शन पर गयी और अजीब हो गया मन… आलिया लिखती हैं,'आईआईटी बॉम्बे हम आ रहे हैं. शुक्रिया प्रमोशन का, कम से कम अब मैं कह सकती हूं कि आईआईटी गयी थी, घंटे भर ही सही.' यह मज़ाक़ है. इसे हल्के-फुलके ढंग से लिया जाना था पर क्या हम इस हल्की-फुलकी चीज़ों में ही समाज के दोष नहीं ठूंस देते हैं? आलिया मेहनती हैं और उस वजह से सफल भी हैं. वे जहां हैं वहां अच्छा काम कर रही हैं. यही उन्हें आलिया बनाता है पर जब वे आईआईटी के लिए इतनी महिमामयी पोस्ट लिखती हैं तो मुझे लगता है संरचना में कुछ मौलिक गड़बड़ी है. देश की सफल कलाकार भी अपने आपको धन्य तब मानेगी जब उस पर आईआईटी की लेबलिंग होगी.
यह कई घावों को कुरेदे जाने जैसा है. हम उस देश में रहते हैं जहां अक्सर बच्चे के बोलने से पहले उनका करियर तय हो जाता है. जहां लोन लेकर आईआईटी और मेडिकल की तैयारियां करवाई जाती हैं. आठवीं से बच्चों का जीवन दूभर हो जाता है. कला के तमाम विषयों को फ़िज़ूल माना जाता है. और मेडिकल-इंजीनियरिंग की तैयारी करवाने कोटा कैसे शहर सुसाइड फ़ैक्टरी बन चुके हैं.
छोटी सी घटना है. 2009 की बात है. भाई का निफ़्ट में नामांकन हुआ. डैडी थोड़े ख़ुश, थोड़े उहा-पोह में थे. बेटी ने पत्रकारिता चुनकर उनके सपनों पर पानी डाल ही दिया था, बेटा भी आईआईटी की जगह निफ़्ट जा रहा था. फिर भी कुछ काउन्सलिंग से वे आ ही रहे थे रास्ते पर कि शहर के एक सज्जन आए और उन्होंने डैडी से कहा, 'सुना था आपका बेटा बहुत अच्छा है पढ़ने में. आईआईटी भेजते न उसको. हमलोगों को भी अच्छा लगता. कहां ई फ़ाइन आर्ट पढ़ने भेज रहे हैं. फ़्यूचर बुरा जाएगा उसका.”
अब चूंकि छोटा भाई ऑलरेडी दाखिला ले चुका था तो पिताजी कुछ कह न सके पर यह आह कई सालों तक रही उनके मन में. बाद की सफलताओं ने दुःख कम किया. हां, कहना यह था कि हम जब बात कहने की जगह पर होते हैं तो हमें एक ऐसे ट्रेंड के बारे में बात नहीं कर सकते हैं जिससे घुटन को बढ़ावा मिले.
कलाकार ही यूं मारे-मारेजाएंगे तो आम जनता का क्या होगा. वह तो वैसी ही महत्वाकांक्षा की मारी हुई है. आईआईटी पर ऐसा स्टेटमेंट लिखना कहीं न कहीं उसी घुटन को ग्लोरीफ़ाय करना है. (कई बार मुझे लगता है कि फ़िल्म वाले कलाकारों के लिए सामाजिक समझदारी का कोर्स मेंडेटरी कर देना चाहिए. बोलते वक्त सम्भलेंगे.)
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