परिवर्तन जीवन का हिस्सा है. यदि परिवर्तन का पहिया न घूमें तो हम और आप एक ही जगह, एक ही ढंग से खड़े नज़र आएंगे. पत्रकारिता के मामले में भी यही है, आज यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि पत्रकारिता कहाँ से चलकर कहाँ आ गई है. कुछ बदलाव या परिवर्तन सुकून देने वाले होते हैं. यानी जब हम उन्हें देखते हैं या उनके बारे में सुनते हैं, तो अच्छा लगता है. वहीं, कुछ ऐसे भी होते हैं, जो ताउम्र सालते रहते हैं. पत्रकारिता के लिए ये बदलाव खट्टे-मीठे रहे हैं. सीधे शब्दों में कहूं तो ऐसा बहुत कम है जो दिल को सुकून देता है.
जहां मैं आज हूं अगर वहां से पीछे मुड़कर देखूं तो मुझे वो दौर नज़र आता है जब फील्ड रिपोर्टिंग पर जोर दिया जाता था. एक सामान्य खबर के लिए भी हमें मौके पर भेजा जाता था, और तब तक उस खबर पर नज़र रखी जाती थी जब तक कि वो अपने अंजाम तक न पहुँच जाए. इसमें कोई दोराय नहीं है कि संसाधनों की सुलभता आज जैसी नहीं थी, लेकिन ऑफिस में बैठे-बैठे फोन पर पूरी खबर ले लेना तब भी संभव था. इसके बावजूद हमें फील्ड पर इसलिए भेजा जाता था कि खबर के साथ-साथ पत्रकार के तौर पर हमारी नींव भी मजबूत हो, और ये उसी मजबूत नींव का परिणाम है कि मैं कई संस्थाओं को पीछे से उठाकर सबसे आगे पहुंचाने में सफल रहा हूं.
बिना फील्ड पर जाए डेस्क से बैठकर रिपोर्टिंग मुमकिन नहीं होती थी, जबकि आज की आधुनिक पत्रकारिता काफी हद तक डेस्क रिपोर्टिंग पर केंद्रित है. कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन कई धुरंधर पत्रकार भी डेस्क से ही अपनी बीट मैनेज कर लेते हैं. आप कह सकते हैं कि जब सुविधा है, तो उसका लाभ उठाने में क्या गलत है? लेकिन ये ‘सुविधा’ न केवल आपके लिए नुकसानदायक है बल्कि उन तमाम पाठकों-दर्शकों के साथ भी धोखा है, जो आपसे ईमानदारी से काम करने की आस लगाए बैठे हैं.
फोन पर आपको केवल वही सुनने को...
परिवर्तन जीवन का हिस्सा है. यदि परिवर्तन का पहिया न घूमें तो हम और आप एक ही जगह, एक ही ढंग से खड़े नज़र आएंगे. पत्रकारिता के मामले में भी यही है, आज यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि पत्रकारिता कहाँ से चलकर कहाँ आ गई है. कुछ बदलाव या परिवर्तन सुकून देने वाले होते हैं. यानी जब हम उन्हें देखते हैं या उनके बारे में सुनते हैं, तो अच्छा लगता है. वहीं, कुछ ऐसे भी होते हैं, जो ताउम्र सालते रहते हैं. पत्रकारिता के लिए ये बदलाव खट्टे-मीठे रहे हैं. सीधे शब्दों में कहूं तो ऐसा बहुत कम है जो दिल को सुकून देता है.
जहां मैं आज हूं अगर वहां से पीछे मुड़कर देखूं तो मुझे वो दौर नज़र आता है जब फील्ड रिपोर्टिंग पर जोर दिया जाता था. एक सामान्य खबर के लिए भी हमें मौके पर भेजा जाता था, और तब तक उस खबर पर नज़र रखी जाती थी जब तक कि वो अपने अंजाम तक न पहुँच जाए. इसमें कोई दोराय नहीं है कि संसाधनों की सुलभता आज जैसी नहीं थी, लेकिन ऑफिस में बैठे-बैठे फोन पर पूरी खबर ले लेना तब भी संभव था. इसके बावजूद हमें फील्ड पर इसलिए भेजा जाता था कि खबर के साथ-साथ पत्रकार के तौर पर हमारी नींव भी मजबूत हो, और ये उसी मजबूत नींव का परिणाम है कि मैं कई संस्थाओं को पीछे से उठाकर सबसे आगे पहुंचाने में सफल रहा हूं.
बिना फील्ड पर जाए डेस्क से बैठकर रिपोर्टिंग मुमकिन नहीं होती थी, जबकि आज की आधुनिक पत्रकारिता काफी हद तक डेस्क रिपोर्टिंग पर केंद्रित है. कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन कई धुरंधर पत्रकार भी डेस्क से ही अपनी बीट मैनेज कर लेते हैं. आप कह सकते हैं कि जब सुविधा है, तो उसका लाभ उठाने में क्या गलत है? लेकिन ये ‘सुविधा’ न केवल आपके लिए नुकसानदायक है बल्कि उन तमाम पाठकों-दर्शकों के साथ भी धोखा है, जो आपसे ईमानदारी से काम करने की आस लगाए बैठे हैं.
फोन पर आपको केवल वही सुनने को मिलेगा जो सुनाया जा रहा है, मगर फील्ड पर आप वो भी देख-समझ पाएंगे जो शायद दूसरे न देख पाएं. इसलिए मेरा सभी युवा साथियों को यही सुझाव है कि मैदानी रिपोर्टिंग पर जोर दीजिये. यही आपको बरगद की तरह खड़ा करने के लिए मजबूत नींव दे पाएगी. जो पत्रकार ये अच्छे से कर पा रहे हैं, वो लोग वही हैं, जिन्होंने सालों फील्ड में रहकर अपना मुकाम बनाया है, संपर्क बनाएं हैं, तजुर्बा लिया है.
एक दूसरी बात जो मैं यहां रखना चाहूंगा वो है डिजिटल मीडिया में आमूलचूक बदलाव की ज़रूरत. डिजिटल मीडिया को पत्रकारिता का भविष्य कहा जाता है, जिस तेजी से हम टेक्नोलॉजी सेवी हो रहे हैं, वे आधुनिकता का परिचायक तो है, लेकिन यदि डिजिटल मीडिया का मौजूदा स्वरूप ही ‘भविष्य’ बनेगा, तो फिर उसके उज्जवल होने की संभावना बेहद कम है. मैं लंबे समय से डिजिटल मीडिया से जुड़ा रहा हूं, इसलिए उसकी नब्ज समझता हूं और यह भी खुले दिल से स्वीकार करता हूं कि भविष्य बनने के लिए उसमें बड़े पैमाने पर बदलाव की ज़रूरत है. हिंदी भाषियों के लिए डिजिटल मीडिया पर काफी कंटेंट मौजूद है, लेकिन उसे परिष्कृत करने की ज़रूरत है. आज लोग बिजनेस की पेचीदा शब्दावली को सरल हिंदी में समझना चाहते हैं, मगर गूगल वाले अहसास के बिना. आप मेरा कहने का मतलब समझ ही गए होंगे. बहुत कुछ है, जिसे बदलना होगा.
डिजिटल मीडिया में सारा खेल नंबरों का है. नंबर ज्यादा, तो आप हिट वरना फ्लॉप. अब ये नंबर आप कैसे, कहां से जुटाएंगे, इससे किसी को कोई लेना देना नहीं. इस नंबर के खेल ने संपादकों को मैनेजर बना दिया है, जिन्हें हर हाल में टारगेट पूरा करना है. इसलिए आप देख सकते हैं कि इंटरनेट पर आजकल कैसा कंटेंट मौजूद है. पत्रकारिता के मूल्य, सिद्धांत जैसी बातें डिजिटल जर्नलिज्म में आकर किताबी हो जाती हैं. इन किताबी हो चुकी बातों को फिर से अमल में लाना होगा और ‘बंदरिया का नाच’ और ‘सांड ने कैसे शख्स को पटका’ जैसी खबरों से गंभीर खबरों पर रुख करना होगा. डिजिटल पत्रकारिता आज उसी दौर से गुजर रही है, जिस दौर से कभी टीवी गुजरा था. भूत प्रेत की कहानियां, एलियन का गाय का दूध पीना, बिना ड्राइवर की कार जैसा जो दौर टीवी मीडिया का उपहास उड़ाया था, ठीक वैसा ही अब ऑनलाइन जर्नलिज्म में हो रहा है. सेमी न्यूड एक्ट्रेस से लेकर बेडरूम सीक्रेट जैसी स्टोरीज अधिकांश संपादकों की पहली पसंद बन गई है.
डिजिटल के ज्यादातर संपादक ओपिनियन विहीन भी हो गए हैं. कितने डिजिटल संपादक किसी विषय पर लिखते हैं या किसी अमुक विषय पर टीम के साथ चर्चा करते हैं, यह कहना गलत नहीं होगा कि अधिकांश संपादक रोबोट बन गए हैं, जो केवल आदेशों का पालन करते हैं. और महज आदेशों के पालन से पत्रकारिता की गाड़ी को नहीं हांका जा सकता.
हिंदी डिजिटल पत्रकारिता के सामने एक बेहतर भविष्य है, लेकिन उसी सूरत में जब हमारी तैयारी अच्छी हो. जब हम ये समझ सकें कि नंबरों के दौड़ में बने रहना जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण है पत्रकारिता को जीवित रखना, क्योंकि पत्रकारिता जीवित रहेगी, तभी हमारा और आपका वजूद रहेगा.
अंत में मैं महादेवी वर्मा की लिखी कुछ पंक्तियां कहना चाहूंगा...
''पत्रकारिता एक रचनाशील शैली है. इसके बगैर समाज को बदलना असंभव है. अत: पत्रकारों को अपने दायित्व और कर्तव्य का निर्वाह निष्ठापूर्वक करना चाहिए. क्योंकि उन्हीं के पैरों के छालों से इतिहास लिखा जाएगा''.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.