राजनीति में कब कौन सी चीज ट्रेंड कर जाए, कहा नहीं जा सकता. उत्तर प्रदेश में चुनाव थे, तब 'गुजरात के गधे' ट्रेंड में आ गए. हर जगह बस गधों का ही बोलबाला था. सभी ये साबित करने में लगे थे कि उनके गधे विपक्ष के गधों से ज्यादा महान हैं. अब गुजरात में चुनाव हैं तो चर्चा का बाजार कुत्तों ने गर्म कर रखा है. इंसानों और कुत्तों के बीच रिलेशनशिप complicated है. यह भी बहस का विषय है कि कुत्ते ज्यादा सामाजिक हैं या मनुष्य? जवाब जो भी है, इंसानों कुत्तों को ही सबसे वफादार बताता है और उसी के नाम पर गाली भी देता है. कुत्ते समाज से निकल कर सिनेमा में आए, और फिर सिनेमा से राजनीति में.
चाहे बलवंत राय के खलनायक कुत्ते हों, या फिर शोले के वो मशहूर कुत्ते, जिनका खून बसंती को बचाने के लिए गब्बर के अड्डे पर पहुंचे धर्मेन्द्र को पीना था. कुत्तों ने हमेशा अपनी वफादारी के बदले मनुष्य से तिरस्कार ही झेला है. समाज को सिनेमा में कुत्ते देखने की आदत थी. चाहे तेरी मेहरबानियां फिल्म का काला लैब्राडोर हो या फिर हम आपके हैं कौन का सफेद पोमेरेनियन, सिनेमा में इनके ऐतिहासिक काम को देखकर दर्शक अपने आंसू रोक नहीं पाए और मान बैठे कि, अगर समाज से कुत्ते हट जाएं तो इस दुनिया से प्रेम खत्म हो जाएगा, वफादारी मिट जाएगी.
बात आगे बढ़ेगी. मगर उससे पहले कुत्तों के बारे में दो कहावतें सुन ली जाए. पहली ये कि, 'कुत्ते बोलते हैं पर सिर्फ उनसे जो सुनना जानते हैं' दूसरी कहावत ये कि 'जब मुझे हाथ चाहिए था तब मुझे तुम्हारा पंजा मिला.' अब इन दोनों कहावतों को राजनीति में रखकर देखें तो हमें देश के प्रधानमंत्री और राहुल गांधी दोनों बरबस ही याद आ जाते हैं. पहली कहावत पर नजर डालें तो, वो घटना याद...
राजनीति में कब कौन सी चीज ट्रेंड कर जाए, कहा नहीं जा सकता. उत्तर प्रदेश में चुनाव थे, तब 'गुजरात के गधे' ट्रेंड में आ गए. हर जगह बस गधों का ही बोलबाला था. सभी ये साबित करने में लगे थे कि उनके गधे विपक्ष के गधों से ज्यादा महान हैं. अब गुजरात में चुनाव हैं तो चर्चा का बाजार कुत्तों ने गर्म कर रखा है. इंसानों और कुत्तों के बीच रिलेशनशिप complicated है. यह भी बहस का विषय है कि कुत्ते ज्यादा सामाजिक हैं या मनुष्य? जवाब जो भी है, इंसानों कुत्तों को ही सबसे वफादार बताता है और उसी के नाम पर गाली भी देता है. कुत्ते समाज से निकल कर सिनेमा में आए, और फिर सिनेमा से राजनीति में.
चाहे बलवंत राय के खलनायक कुत्ते हों, या फिर शोले के वो मशहूर कुत्ते, जिनका खून बसंती को बचाने के लिए गब्बर के अड्डे पर पहुंचे धर्मेन्द्र को पीना था. कुत्तों ने हमेशा अपनी वफादारी के बदले मनुष्य से तिरस्कार ही झेला है. समाज को सिनेमा में कुत्ते देखने की आदत थी. चाहे तेरी मेहरबानियां फिल्म का काला लैब्राडोर हो या फिर हम आपके हैं कौन का सफेद पोमेरेनियन, सिनेमा में इनके ऐतिहासिक काम को देखकर दर्शक अपने आंसू रोक नहीं पाए और मान बैठे कि, अगर समाज से कुत्ते हट जाएं तो इस दुनिया से प्रेम खत्म हो जाएगा, वफादारी मिट जाएगी.
बात आगे बढ़ेगी. मगर उससे पहले कुत्तों के बारे में दो कहावतें सुन ली जाए. पहली ये कि, 'कुत्ते बोलते हैं पर सिर्फ उनसे जो सुनना जानते हैं' दूसरी कहावत ये कि 'जब मुझे हाथ चाहिए था तब मुझे तुम्हारा पंजा मिला.' अब इन दोनों कहावतों को राजनीति में रखकर देखें तो हमें देश के प्रधानमंत्री और राहुल गांधी दोनों बरबस ही याद आ जाते हैं. पहली कहावत पर नजर डालें तो, वो घटना याद आ जाती है जब कुत्ते के मन की बात प्रधानमंत्री समझ गए और रोड एक्सीडेंट में मरने वाले कुत्तों पर कह बैठे कि "यदि हम कार चला रहे हैं या कोई और ड्राइव कर रहा है और हम पीछे बैठे हैं, फिर भी छोटा सा कुत्ते का बच्चा भी अगर कार के नीचे आ जाता है तो हमें दर्द महसूस होता है... मैं अगर मुख्यमंत्री हूं या नहीं भी हूं. मैं पहले एक इंसान हूं और कहीं पर भी कुछ बुरा होगा तो दुख होना बहुत स्वाभाविक है.'
वहीं दूसरी कहावत राहुल गांधी पर फिट बैठती है. राजनीति के अलावा देश के आम लोगों के बीच राहुल गांधी अपना और कांग्रेस दोनों का आधार तलाश रहे हैं. देखा जाए तो वो अपनी इस मुहीम में पूरी तरह अकेले हैं. हालांकि उनके पास चाटुकारों की फौज है मगर कोई ऐसा नहीं है जिससे वो अपना दुःख और दर्द साझा कर सकें. शायद इसी के मद्देनजर उन्होंने 'Pidi' को रखा है. हां वो Pidi जो उनका दिल भी बहलाता है, उनका दुख दर्द भी समझता है और साथ ही आजकल ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को घेरते हुए आक्रामक ट्वीट भी करता है.
दिखने में क्यूट सा Pidi, 47 साल के युवा राहुल गांधी के लिए कितनी एहमियत रखता है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब 2016 में असम के कांग्रेस नेता हेमंत बिस्वा शर्मा राज्य की समस्याओं को लेकर राहुल गांधी से मिलने आए तो उन्होंने शर्मा की बात को सिरे से नजरंदाज किया और वो लगातार Pidi संग खेलते रहे. ये रुख किसी की भी भावना को आहत करने के लिए काफी है. हेमंत बिस्वा शर्मा की भी हुई और उन्होंने मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से कह दिया कि वो इस तरह काम नहीं कर सकते और नौकर- मालिक परंपरा के पुरोधा राहुल गांधी के चलते पार्टी छोड़ रहे हैं. हेमंत बिस्वा शर्मा ने कांग्रेस छोड़ दी. आज वो भाजपा में हैं और खुश हैं.
चूंकि बात राजनीति में कुत्तों के योगदान की हो रही है तो फिर हमें संसद में घटित उस घटना को भी नहीं भूलना चाहिए जब कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने गांधी, इंदिरा और राजीव की कुर्बानी याद दिलाते हुए विपक्ष से पूछ लिया कि हमने देश को इतनी कुर्बानियां दी हैं और आपके घर से तो कोई कुत्ता भी कुर्बानी के लिए नहीं गया. मल्लिकार्जुन खड़गे का विपक्ष पर ये गंभीर आरोप था. खड़गे के प्रश्न पर पलटवार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि, इतिहास को जानने का, इतिहास को जीने का प्रयास आवश्यक होता है. उस समय हम थे या नहीं थे हमारे कुत्ते भी थे या नहीं थे, औरों के कुत्ते हो सकते हैं. हम कुत्तों वाली परंपरा से पले बढ़े नहीं हैं. तब मोदी ने ये भी कहा था कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम सब ने, सभी देशवासियों ने मिल के लड़ा था.
बहरहाल, हम राजनीति में कुत्तों को भूमिका को नकार नहीं सकते. समाज से लेकर सिनेमा तक और सिनेमा से लेकर राजनीति तक कुत्तों का अस्तित्व कल भी शाश्वत सत्य था, आज भी है और शायद कल भी रहे. और हां जाते-जाते एक बात समझ लीजिये. राजनीति में कुत्तें इंसान को वैसा बना देते हैं जैसा वो उन्हें देखना चाहता है. हो सकता है राहुल गांधी के कुत्ते पीडी ने उन्हें वैसा बना दिया है जैसा वो उन्हें देखना चाहता है यानी बेपरवाह, मनमौजी और जज्बाती. वो जो अपने 'प्रिय' के साथ खेलते हुए दुनिया को भुला दे चीजों को इग्नोर कर दे, बात-बात पर खफा हो जाए.
ये भी पढ़ें -
एक कुत्ते ने प्रधानमंत्री को लिखा खुला पत्र
समस्या न कुत्ते हैं न रोटी है, कोर्ट तक तो हमें हमारा "ईगो" ले गया था
दुनिया के आखिरी बचे गैंडे का 'प्रेम-प्रस्ताव' स्वीकार होना ही चाहिए !
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.