हम उस संवेदनहीन, पाषाण समाज के साक्षी हैं जहां 'मृत्यु, एक तमाशा भर है'. केरल में सरेआम क़त्ल हुआ, न्याय का पता नहीं. शायद वर्षों मिले भी न पर वीडियो वायरल हो गया. फ़िल्म देखी नहीं और उसके विरोध में अपने ही देश की संपत्ति को बिना सोचे-समझे फूंक डाला. किसी को सरेआम निर्वस्त्र किया गया, हम उन तस्वीरों को भी पूरी दुनिया में निर्लज़्ज़ हो दिखाते रहे. इन सबमें और इस तरह के सभी मुद्दों में एक बात कॉमन है कि इनसे जुड़ा शख़्स हमारे परिवार का नहीं था. इसलिए हम मुंह खोलकर बोले और ख़ूब जमकर बोले.
श्रीदेवी की मौत पर भी यही चिर-परिचित दृश्य जारी हैं. संवेदनाओं के तमाम संदेशों के बीच ऐसे सैकड़ों पोस्ट हैं जो हमारे समाज की विकृत मानसिकता का कच्चा चिट्ठा खोल देते हैं. ये अब आदत ही हो गई है कि एक पोस्टमार्टम डॉक्टर ने किया, दूसरा हम कर देंगे. हम अपने हिसाब से कहानी बनाकर पात्रों को मनचाही जगह फिट कर देंगे. फिर जज की कुर्सी पर बैठकर किसी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की तरह निर्णय भी सुना देंगे क्योंकि बात जब अपने घर की नहीं हो तो हमें यही करना आता है.
हम यही करते आए हैं. 'हम अपने लिए सेंटीमेंटल हैं और दूसरों के लिए जजमेंटल.' किसी को उनकी कॉस्मेटिक सर्जरी से उमेठे उठ रहे तो कोई शराब पर प्रश्नचिह्न लगा रहा. किसी-किसी को तो परिवार वालों पर ही शक़ हो रहा. क्या हम अपनी सीमाएंऔर किसी की निजता की मर्यादा नहीं लांघ रहे? क्या यह वाक़ई हमारे दुःख का परिचायक है? यदि कोई उनका प्रशंसक न भी रहा हो तो क्या यह आवश्यक है कि वो इसी समय वातावरण को विषाक्त कर उस आत्मा को शांति भी न लेने दे?
श्रीदेवी हम सबके दिलों की मलिका थी, तो उनकी मौत पर सामूहिक छीछालेदर तो बनती ही है. आख़िर हमारी...
हम उस संवेदनहीन, पाषाण समाज के साक्षी हैं जहां 'मृत्यु, एक तमाशा भर है'. केरल में सरेआम क़त्ल हुआ, न्याय का पता नहीं. शायद वर्षों मिले भी न पर वीडियो वायरल हो गया. फ़िल्म देखी नहीं और उसके विरोध में अपने ही देश की संपत्ति को बिना सोचे-समझे फूंक डाला. किसी को सरेआम निर्वस्त्र किया गया, हम उन तस्वीरों को भी पूरी दुनिया में निर्लज़्ज़ हो दिखाते रहे. इन सबमें और इस तरह के सभी मुद्दों में एक बात कॉमन है कि इनसे जुड़ा शख़्स हमारे परिवार का नहीं था. इसलिए हम मुंह खोलकर बोले और ख़ूब जमकर बोले.
श्रीदेवी की मौत पर भी यही चिर-परिचित दृश्य जारी हैं. संवेदनाओं के तमाम संदेशों के बीच ऐसे सैकड़ों पोस्ट हैं जो हमारे समाज की विकृत मानसिकता का कच्चा चिट्ठा खोल देते हैं. ये अब आदत ही हो गई है कि एक पोस्टमार्टम डॉक्टर ने किया, दूसरा हम कर देंगे. हम अपने हिसाब से कहानी बनाकर पात्रों को मनचाही जगह फिट कर देंगे. फिर जज की कुर्सी पर बैठकर किसी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की तरह निर्णय भी सुना देंगे क्योंकि बात जब अपने घर की नहीं हो तो हमें यही करना आता है.
हम यही करते आए हैं. 'हम अपने लिए सेंटीमेंटल हैं और दूसरों के लिए जजमेंटल.' किसी को उनकी कॉस्मेटिक सर्जरी से उमेठे उठ रहे तो कोई शराब पर प्रश्नचिह्न लगा रहा. किसी-किसी को तो परिवार वालों पर ही शक़ हो रहा. क्या हम अपनी सीमाएंऔर किसी की निजता की मर्यादा नहीं लांघ रहे? क्या यह वाक़ई हमारे दुःख का परिचायक है? यदि कोई उनका प्रशंसक न भी रहा हो तो क्या यह आवश्यक है कि वो इसी समय वातावरण को विषाक्त कर उस आत्मा को शांति भी न लेने दे?
श्रीदेवी हम सबके दिलों की मलिका थी, तो उनकी मौत पर सामूहिक छीछालेदर तो बनती ही है. आख़िर हमारी सोच कितनी निकृष्ट होती जा रही है कि हमें न उस पीड़ा से मतलब, जो उन्होंने पानी के भीतर उन घुटते हुए पलों में महसूस की होगी. हमें परिवार वालों के उस दुःख-दर्द से भी क्या लेना-देना जो पिछले पचास घंटों से अपनी प्रिय की आख़िरी झलक भर पाने की प्रतीक्षा में हैं. हमें उन दो बेटियों के आंसू भी नहीं दिखते जो अपनी मां को सदा के लिए खो देने के ग़म में अनवरत बह रहे हैं. हमें इस बात से भी रत्ती भर फर्क़ नहीं कि उन्होंने एक साथी खोया है जिसकी उम्र के इस दौर में बेहद और सबसे अधिक आवश्यकता होती है.
वो मां, जिसने अपने परिवार और इन बच्चियों की ख़ातिर शीर्ष पर पहुंचने के बाद भी स्टारडम की परवाह नहीं की और अपने कैरियर को एक दशक से भी अधिक समय के लिए त्याग दिया. आज आपको उसके चेहरे में बोटॉक्स और सर्जरी दिखती है? वही चेहरा, जिसने आपको दीवाना बना दिया था, कभी बैठकर सोचा था कि वो इसकी क्या क़ीमत चुका रहा है? वे अगर ऐसा कर भी रहीं थीं तो यह उनके व्यवसाय की मांग थी. अब आप अपने गिरेबान में झांकिए कि क्यों आप अपनी घरेलू बहू को लाने के समय भी विज्ञापन में गोरी, पतली-दुबली, लंबी, छरहरी कन्या की मांग करते हैं?
कभी ऐसा पढ़ा है कहीं कि 'मोटी, काली कोई भी चलेगी, हमें कौन सा हीरोइन बनानी है.' आप तो सामने-सामने ही नुक़्स निकाल देने से बाज नहीं आते. कभी सोचा है कि यह सब देख-सुन सामान्य दिखने वाली लड़कियों और उनके माता-पिता पर क्या बीतती होगी? एक ऐसा समाज जहां 'विवाह' ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, वहां सामाजिक तनाव का यह ढांचा कौन तैयार कर रहा है? हम ही न? और फिर इस पर दोष कौन मढ़ रहा है? जवाब तो भीतर से ही मिल गया होगा.
सच तो यह है कि हम और आप अपने-अपने निर्णय सुनाकर और अपने असीम ज्ञान पर मुग्ध होकर अगले मुद्दे की ओर बेहिचक़, बेशर्मी से बढ़ जायेंगे लेकिन किसी घर में एक जीती जागती स्त्री की, अब केवल तस्वीर ही शेष रह जायेगी. जो उसके लाखों प्रशंसकों के स्नेह के सुनहरे पृष्ठों के साथ, इन मौक़ापरस्त न्यायाधीशों की कसैली कहानी भी कहेगी.
यक़ीन मानिए, 'ग़र रूह होती है कहीं तो उसको भी इन बातों से बेहद दर्द हुआ होगा!' क्या हो गया है हमें कि शांतिप्रिय देश में हम अपने प्रिय की आत्मा को भी शांति से नहीं रहने देंते. क़ाश, हम अपनी कुंठाओं से बाहर निकल, एक पल को ही सही पर उसकी तड़पन भी महसूस कर सकते.
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