सोशल मीडिया का कमोड काल है. घटनाएं हो रही हैं, उनको "शेयरेबल कंटेंट" के सांचे में डाला जा रहा है और शेयर करने योग्य बनाया जा रहा है. आने वाले वक़्त में इतिहास में उन्हीं का नाम दर्ज होगा, जो अपने "कंटेंट" को ज्यादा से ज्यादा शेयरेबल बनाएंगे और सोये हुए हिन्दू या ऊंघते हुए मुसलमान को जगाएंगे. अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद को अब एक लम्बा वक़्त गुजर चुका है. बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराए जाने को 25 साल बीत गए हैं. ऐसे में कुछ प्रश्न अपने आप दिमाग में आ जाते हैं. कई लोगों के जहन में आ रहा है कि यदि ये घटना सोशल मीडिया के दौर में हुई होती तो क्या होता ?ये प्रश्न दिखने में बहुत साधारण से हैं मगर जब व्यक्ति इन पर विचार करेगा तो ये गंभीर निकलेंगे. ये सवाल हैं तो छोटे-छोटे मगर इनकी मारक क्षमता बहुत तेज है.
बात आगे बढ़ेगी मगर उससे पहले उन सवालों को जानना ज़रूरी है. हां वो सवाल जो किसी के भी दिमाग में दस्तक दे सकते हैं और उसे बेचैन, बहुत बेचैन कर सकते हैं. दिमाग में जो सवाल आते वो कुछ ऐसे होते कि,'क्या होता यदि सोशल मीडिया 1992 में होता? विध्वंस के बाद, मामले से जुड़ी किन-किन तस्वीरों को यहां-वहां इधर उधर शेयर करते हुए धर्म के नाम पर सो रहे लोगों को जगाया जाता? घटना हो जाने के बाद और उससे कुछ देर पहले फेसबुक पर क्या हलचल हुई होती? ट्विटर पर कितनी गहमा गहमी रहती? क्या ट्विटर, घटना के हैश टैग से आई आंधी के चलते क्रेश हो जाता?
क्या तब भारत सरकार अडोबी या दीगर फोटो एडिटिंग कंपनियों को कोई ऐसा मैसेज भेजती कि वो कुछ ऐसा करें कि ऑनलाइन या ऑफलाइन फोटोशॉप पर कोई फोटो एडिट न हो पाए? किसी दूरस्थ स्थान पर हुई किसी हिंसा...
सोशल मीडिया का कमोड काल है. घटनाएं हो रही हैं, उनको "शेयरेबल कंटेंट" के सांचे में डाला जा रहा है और शेयर करने योग्य बनाया जा रहा है. आने वाले वक़्त में इतिहास में उन्हीं का नाम दर्ज होगा, जो अपने "कंटेंट" को ज्यादा से ज्यादा शेयरेबल बनाएंगे और सोये हुए हिन्दू या ऊंघते हुए मुसलमान को जगाएंगे. अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद को अब एक लम्बा वक़्त गुजर चुका है. बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिराए जाने को 25 साल बीत गए हैं. ऐसे में कुछ प्रश्न अपने आप दिमाग में आ जाते हैं. कई लोगों के जहन में आ रहा है कि यदि ये घटना सोशल मीडिया के दौर में हुई होती तो क्या होता ?ये प्रश्न दिखने में बहुत साधारण से हैं मगर जब व्यक्ति इन पर विचार करेगा तो ये गंभीर निकलेंगे. ये सवाल हैं तो छोटे-छोटे मगर इनकी मारक क्षमता बहुत तेज है.
बात आगे बढ़ेगी मगर उससे पहले उन सवालों को जानना ज़रूरी है. हां वो सवाल जो किसी के भी दिमाग में दस्तक दे सकते हैं और उसे बेचैन, बहुत बेचैन कर सकते हैं. दिमाग में जो सवाल आते वो कुछ ऐसे होते कि,'क्या होता यदि सोशल मीडिया 1992 में होता? विध्वंस के बाद, मामले से जुड़ी किन-किन तस्वीरों को यहां-वहां इधर उधर शेयर करते हुए धर्म के नाम पर सो रहे लोगों को जगाया जाता? घटना हो जाने के बाद और उससे कुछ देर पहले फेसबुक पर क्या हलचल हुई होती? ट्विटर पर कितनी गहमा गहमी रहती? क्या ट्विटर, घटना के हैश टैग से आई आंधी के चलते क्रेश हो जाता?
क्या तब भारत सरकार अडोबी या दीगर फोटो एडिटिंग कंपनियों को कोई ऐसा मैसेज भेजती कि वो कुछ ऐसा करें कि ऑनलाइन या ऑफलाइन फोटोशॉप पर कोई फोटो एडिट न हो पाए? किसी दूरस्थ स्थान पर हुई किसी हिंसा की वारदात को विवादित ढांचा गिराए जाने से जोड़ते हुए गुस्साई भीड़ द्वारा किन-किन हैशटैग्स का इस्तेमाल करते हुए तस्वीरें एक दूसरे को फॉरवर्ड की जाती? मामले की जमीनी हकीकत क्या होती? कैसे और किन-किन समीतियों का गठन करके सरकार अफवाहों पर विराम लगाती? सोशल मीडिया के कारण हुई मौतों का आंकड़ा क्या होता? किन उपायों का प्रयोग करते हुए सरकार इंटरनेट को तनावपूर्ण क्षेत्रों में बैन करती?
इस विषय पर कई सवाल हैं, इतने कि अगर कोई सिर्फ कलम का इस्तेमाल करते हुए उन्हें पन्नों पर उकेरने की कोशिश करे तो अच्छी खासी मोटी-तगड़ी किताब निर्मित हो जाए. हो सकता है कि पहली नजर में उपरोक्त बातों को पढ़कर या सवालों को जानकार एक पाठक इसे कोरी लफ्फाजी मानें और इसे सिरे से खारिज कर दे मगर जब कोई इस पर गहराई से विचार करेगा तो बात एकदम साफ हो जाएगी.
देखिये साहब. लेख की शुरुआत ही इस बात से हुई है कि, 'आज हम सोशल मीडिया के टॉयलेट युग में जीवन यापन कर रहे हैं' मैं इस मुद्दे पर जब विचार कर रहा हूं तो मुझे ये एक बेहद गंभीर और संवेदनशील विषय लग रहा है. अगर 1992 में घटित इस घटना के दौरान सोशल मीडिया का टूल होता, तो उसके चलते जो विनाश होता शायद हम और आप उसकी कल्पना कभी नहीं कर सकते और न ही उसे शब्दों में बयान किया जाता.
पता चला कि अभी फैजाबाद के रकाबगंज या अयोध्या के हनुमानगढ़ी में मामला थमा भी नहीं था कि किसी ने व्हाट्सऐप पर बर्मा की कुछ तस्वीरें वायरल करा दीं जिससे जानकी महल और राम की पैड़ी में तनाव हो गया. या फिर बाबरी गिराए जाने के विरोध में बाराबंकी के नाका सतरिख में एक पक्ष ने जब फेसबुक पर पोस्ट देखा तो आक्रोश में आकर आगजनी और पथराव कर दिया. जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरे पक्ष को गोली चलानी पड़ी और 5 लोगों की मृत्यु हुई और 12 लोग कारतूस के छर्रे और भगदड़ मचने से गंभीर रूप से जख्मी हुए.
बस कल्पना करिए आप उस पल की जब राम मंदिर न बनने से आहत लखनऊ का कोई "विराट हिन्दू" फेसबुक पर पोस्ट लिखे और उसे पढ़कर कानपुर के चमनगंज के किसी "कट्टर मुसलमान" का खून खौल जाए और चमनगंज समेत गोविंदनगर और बर्रा की गलियों में लाशों के ढेर लग जाएं. पुलिस आए और कर्फ्यू या कर्फ्यू जैसे हालात हों.
इस बात को आप मुज़फ्फर नगर दंगों से भी जोड़ कर भी देख सकते हैं बात समझने में आसानी होगी. याद करिए उन दिनों को. आपको मिलेगा कि मामला 80% केवल इसलिए बिगड़ा क्योंकि लोगों ने व्हाट्सऐप और फेसबुक पर यहां वहां इधर उधर की फोटो शेयर की जिनको देखकर स्थिति तनावपूर्ण हो गयी और माहौल बुरी तरफ प्रभावित हुआ. चाहे मुज़फ्फरनगर का मामला हो या फिर दादरी के अख़लाक़ या पहलू की मौत इन सभी मामलों में हम सोशल मीडिया की भूमिका और उसका डरावना और खौफनाक चेहरा देख चुके हैं.
कहा जा सकता है कि जब आज इतनी एडवांस टेक्नोलॉजी होने के बावजूद हम सोशल मीडिया के चलते उपजी अफवाहों पर विराम नहीं लगा पा रहे हैं तो बस कल्पना करके देखिये 1992 की. निश्चित तौर पर परिणाम आत्मा तक को गहराई से कचोटने वाले होते. अंत में अपनी बात को विराम देते हुए यही कहा जा सकता है कि 'अच्छा हुआ, उस समय सोशल मीडिया नहीं था. अगर वो होता तो उस गलती का खामियाजा कई दशकों बल्कि शताब्दियों तक हमें उठाना पड़ता.
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