हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के बाद बीजेपी का तीसरा एजेंडा क्या हिंदी है?
अंग्रेजी की जगह हिंदी में बात (Speak Hindi) करने की अमित शाह (Amit Shah) की अपील बहुत सहज है, लेकिन उसका असर गहरा और विस्तृत हो सकता है और ये भाषा विरोध की राजनीति (Politics of Language) में फंस कर रह जाएगी - हिंदुत्व या राष्ट्रवाद जैसा फायदा तो मिलने से रहा.
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अमित शाह के हिंदी (Speak Hindi) के पैरोकार बनने के कई कारण लगते हैं. पहला कारण तो नजदीकी भविष्य में होने वाले चुनाव ही होंगे. हो सकता है एक वजह दिल्ली में तमिलनाडु में सत्ताधारी पार्टी डीएमके की दिल्ली में दस्तक भी हो.
चुनावों के हिसाब से देखें तो गुजरात और हिमाचल प्रदेश में तो हिंदी को लोगों का समर्थन मिलेगा, लेकिन उसके बाद अगले साल कर्नाटक चुनाव में ये बीजेपी के विरोध का बड़ा कारण भी बन सकता है. कर्नाटक से कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का विरोध में रिएक्शन भी आ चुका है.
बीजेपी नेता अमित शाह (Amit Shah) ने हिंदी की पैरवी भी काफी सोच समझ कर की है. हिंदी को लेकर अमित शाह की अपील भी करीब करीब वैसी ही है जैसी पहले भी होती रही है. समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया से लेकर मुलायम सिंह यादव तक - अंग्रेजी के विरोध के नाम पर.
अमित शाह ने भी अपनी तरफ से अंग्रेजी का विरोध ही किया है. लोग अंग्रेजी के विरोध के लिए आगे आएंगे तभी तो हिंदी बोलेंगे. अमित शाह की अपील भी तो ऐसी ही है - आइए हिंदी में बात करें.
विपक्ष की तरफ से इसे बीजेपी का 'सांस्कृतिक आतंकवाद' करार दिया गया है. बीजेपी, दरअसल, संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को फॉलो करती है, इसलिए विपक्ष उसी तरीके से विरोध जताने लगा है.
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का संघ और बीजेपी का एजेंडा बेहद सफल रहा है. बीजेपी को केंद्र की सत्ता पर दोबारा काबिज होने में ये एजेंडा ही सबसे बड़ मददगार बने हैं. यूपी चुनाव में भी तो बीजेपी ने जातीय राजनीति को काउंटर करने के मकसद से राष्ट्रवाद के नाम पर वोट मांगा और सफल रही.
राष्ट्रवाद के नाम पर तो जातीय राजनीति की काट खोजी जा सकती है, लेकिन मुश्किल ये है कि हिंदी के नाम पर कौन सुनेगा - फिर तो सीधे सीधे उत्तर और दक्षिण में बंटवारा हो जाएगा. लोगों पर अपनी भाषा और बोली उत्तर में भी हावी है, लेकिन हिंदी से किसी को कोई दिक्कत नहीं है, दक्षिण में ऐसा नहीं होता.
हिंदी की बात होते ही दक्षिण भारत के लोग थोपे जाने का आरोप लगाने लगते हैं - और अमित शाह की अपील के रिएक्शन में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है. फर्क और फासला जो भी हो, लेकिन हिंदी के जरिये भी लोगों को एक सूत्र में बांधने की वैसे ही कोशिश लगती है जैसे हिंदुत्व या राष्ट्रवाद के नाम पर - आखिर ध्रुवीकरण की राजनीति भी तो इसे ही कहते हैं.
राष्ट्रवाद के प्रभाव क्षेत्र का दायरा हिंदुत्व की राजनीति से बड़ा है और दोनों ही बहुमत में पैठ रखते हैं, लेकिन हिंदी का मामला (Politics of Language) दोनों से बिलकुल अलग है - लोग भाषा के नाम पर और फिर क्षेत्रीयता के आधार पर सरहद खड़ी कर देते हैं - ऐसे में अमित शाह की अपील का कैसा असर होता है धीरे धीरे ही पता चल सकेगा.
खेल भावनाओं का है, और राजनीति भी
केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह ने सलाह दी है कि हिंदी को स्थानीय भाषाओं के विकल्प के रूप में नहीं, बल्कि अंग्रेजी की जगह स्वीकार किया जाना चाहिये. संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक की अध्यक्षता करते हुए अमित शाह ने कहा कि राजभाषा को देश की एकता का महत्वपूर्ण अंग बनाने का समय आ गया है.
अमित शाह ने उस तरफ भी ध्यान दिलाया है जो काफी समय से हिंदी के लिए चुनौती रहा है. अमित शाह कहते हैं, 'जब तक हम दूसरी स्थानीय भाषाओं के शब्दों को अंगीकार कर हिंदी को लचीला नहीं बनाते, तब तक हिंदी का प्रचार नहीं किया जा सकेगा.'
स्टालिन और शाह अलग अलग भी एक ही बात कर रहे हैं, फिर हिंदी को लेकर विरोध किस बात का है?
केंद्रीय मंत्री ने हिंदी शब्दकोश में अन्य स्थानीय भाषाओं के शब्दों को अपनाकर शामिल किये जाने का भी सुझाव दिया है. और कहा है कि हिंदी शब्दकोश को संशोधि कर फिर से प्रकाशित किया जाना चाहिये. अमित शाह के मुताबिक, नॉर्थ ईस्ट के आठ राज्यों में 22 हजार हिंदी शिक्षकों की भर्ती की गई है - और 9 आदिवासी समुदायों की बोलियों की लिपियों को भी बदल दिया गया है.
हिंदी का मामला, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद से अलग कैसे: राष्ट्रवाद के एजेंडे की राजनीति में लोगों को दो कैटेगरी में बांट दिया जाता है - देशभक्त और देशद्रोही. हिंदुत्व के नाम पर भी हिंदू और गैर हिंदू जैसा बंटवारा होना चाहिये, लेकिन राजनीतिक फ्लेवर देते हुए इसे हिंदू बनाम मुस्लिम कर दिया जाता है. धर्म परिवर्तन की घटनाओं को लेकर संघ का ईसाईयत से भी विरोध रहा - और यही वजह है कि मदर टेरेसा जैसी समाजसेवी संघ को फूटी आंख नहीं सुहाती थीं.
बदलते माहौल में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का प्रभाव समानांतर हो गया है. जो हिंदू नहीं है वो राष्ट्रवादी भी नहीं माना जा रहा है. किसी भी गैर हिंदू के लिए खुद को देशभक्त साबित करने का अलग ही संघर्ष है और एक्स्ट्रा चुनौती खड़ी हो जाती है. ऐसे पैमाने के हिसाब से देखें तो जो हिंदुत्व का चोला ओढ़ने को तैयार नहीं है उसे देशद्रोही साबित कर दिये जाने का खतरा हमेशा बरकरार रहता है.
तभी तो अरविंद केजरीवाल अयोध्या पहुंच कर जय श्रीराम के नारे लगाने लगते हैं. दिवाली से पहले टीवी पर विज्ञापन देकर तो जय श्रीराम बोलते ही हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी को यूपी या उत्तराखंड नहीं बल्कि पंजाब में कामयाबी मिलती है - वही पंजाब जहां दिल्ली की तरह अरविंद केजरीवाल को देशद्रोही और आतंकवादी साबित करने के लिए सारे राजनीतिक विरोधी एक साथ हमला बोल देते हैं.
बीजेपी के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे में यही लोचा है - और ऐसा ही कुछ हिंदी के साथ होने वाला लगता है. कॉमन बात ये जरूर है कि लोगों तीनों ही मामलों भावनाओं की वजह से ही जुड़ते हैं.
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के केस में तो भावना का एक ही लेवल है, लेकिन हिंदी के मामले में डबल भावनाएं जुड़ जाती हैं - और फिर भावनाओं का टकराव शुरू हो जाता है. जिनकी पहली भाषा हिंदी है उनको तो ये अच्छा ही लगता है. ऐसे लोगों में हिंदी पट्टी के वे लोग भी शुमार हैं जो भोजपुरी या मैथिली और यहां तक कि पंजाबी या गुजराती लोग भी हिंदी बोलते हैं. हिंदी पूरे उत्तर भारत को तो जोड़ लेती है, लेकिन दक्षिण के लोग थोपने की बात कर विरोध शुरू कर देते हैं.
देखा जाये तो गुजराती और पंजाबी लोगों के लिए भी हिंदी ठीक वैसी ही है, जैसी तमिल, तेलुगु, मलयालम या कन्नड़ लोगों के लिए. फिर भी गुजराती और पंजाबी लोग हिंदी को आसानी से हजम कर लेते हैं, लेकिन दक्षिण भारत में बर्दाश्त ही नहीं कर पाते.
हिंदी विरोध पर विपक्ष ज्यादा एकजुट है
2024 के आम चुनाव में संघ, बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करना भले ही बिखरे पड़े विपक्षी एकता के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन हिंदी विरोध के नाम पर पूरा दक्षिण भारत एकजुट नजर आने लगा है. कर्नाटक से लेकर तमिलनाडु तक सभी राज्यों के नेता अमित शाह पर टूट पड़े हैं.
ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस अमित शाह का बयान आने के बाद कहा है कि 'हम हिंदी का सम्मान करते हैं, लेकिन हम हिंदी थोपे जाने का विरोध करते हैं.' 2019 में बीजेपी छोड़ कर विरोधी खेमे से हाथ मिला चुकी शिवसेना ने भी अमित शाह की पहल को 'क्षेत्रीय भाषाओं के मूल्य को कम करने का एजेंडा बताया है' - और ये हाल तब है जब हिंदुत्व और जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने जैसे मुद्दे पर शिवसेना, बीजेपी के साथ खड़ी नजर आयी है.
तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों से तो स्वाभाविक है, लेकिन विरोध का स्वर कर्नाटक से सुनाई दे रहा है जहां अगले साल विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं. अमित शाह और राहुल गांधी दोनों ही कर्नाटक का कुछ दिन पहले ही दौरा कर आये हैं.
राजभाषा ही तो है, राष्ट्र भाषा कहां है: सिद्धारमैया की ही तरह उनके साथी कांग्रेस नेता जयराम रमेश भी हिंदी को लेकर ‘राजभाषा’ और ‘राष्ट्र भाषा’ का फर्क समझाने लगे हैं. जयराम रमेश बीजेपी नेता राजनाथ सिंह के गृह मंत्री रहते संसद में दिये गये बयान का हवाला देते हुए कहते हैं कि हिंदी राजभाषा है, न कि राष्ट्र भाषा.
अंग्रेजी में ट्विटर पर जयराम रमेश लिखते हैं, ‘मैं हिंदी के साथ बहुत सहज हूं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि ये किसी के गले में ठूंस दी जाये... अमित शाह हिंदी का नुकसान कर रहे हैं.’
Hindi is Raj Bhasha not Rashtra Bhasha,as Rajnath Singh said in Parliament when he was HM. Hindi imperialism will be the death knell for India. Im very comfortable with Hindi, but I don’t want it rammed down anybody's throat.Amit Shah is doing a disservice to Hindi by imposing it
— Jairam Ramesh (@Jairam_Ramesh) April 8, 2022
खुद को हिंदी का बड़ा सपोर्टर बताते हुए कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी अमित शाह के अचानक उमड़ पड़े हिंदी प्रेम को देश के सामने खड़े ज्वलंत मुद्दों से जोड़ कर पूछते हैं, ‘क्या आपका हिंदी उपदेश महंगाई या बेरोजगारी का समाधान करेगा- नहीं! आपका उद्देश्य चीजों को थोपकर... जबरदस्ती करके आपसी अविश्वास पैदा करना है...’
ये हिंदी थोपे जाने का मामला है या अंग्रेजी विरोध का: कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया कहते हैं, 'एक कन्नडिगा के तौर पर मैं गृह मंत्री अमित शाह की आधिकारिक भाषा और संचार के माध्यम पर टिप्पणी के लिए कड़ी निंदा करता हूं... हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा नहीं है - और हम इसे कभी नहीं होने देंगे.'
As a Kannadiga, I take strong offence to @HMOIndia @AmitShah's comment on Official language & medium of communication.Hindi is not our National Language & we will never let it to be.#IndiaAgainstHindiImposition
— Siddaramaiah (@siddaramaiah) April 8, 2022
सिद्धारमैया ने अमित शाह पर हिंदी के लिए अपनी मातृभाषा गुजराती से विश्वासघात करने का आरोप लगाया है. कांग्रेस नेता ने बीजेपी नेतृत्व पर गैर हिंदी भाषी राज्यों के खिलाफ सांस्कृतिक आतंकवाद का अपना एजेंडा शुरू करने का आरोप भी लगाया है.
राजनीतिक विरोध अपनी जगह है, लेकिन अमित शाह ने अंग्रेजी की जगह हिंदी बोलने की सलाह दी है, न कि उनकी बातों से ऐसा कुछ लगता है कि वो भी गुजराती पर हिंदी को तरजीह देने के पक्षधर हैं, जैसा कि कांग्रेस नेता का इल्जाम है. वैसे भी अमित शाह ही नहीं किसी भी नेता के लिए ऐसा करना नामुकिन है.
अभी तक ये समझ में नहीं आ रहा है कि ये हिंदी थोपे जाने का मामला कैसे बनता है? तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन भी कहते हैं, अमित शाह का हिंदी पर जोर भारत की अखंडता और बहुलवाद के खिलाफ है और ये मुहिम कामयाब नहीं होने वाली.
डीएमके नेता स्टालिन की भी सलाह जान लीजिये, 'हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये, न कि स्थानीय भाषाओं के लिए.'
ध्यान से देखें तो एमके स्टालिन भी वही बात कर रहे हैं जो अमित शाह कह रहे हैं, अंग्रेजी की जगह हिंदी का इस्तेमाल - अगर ऐसा है तो विरोध किस बात का हो रहा है? ये विरोध नहीं, दरअसल, विरोध की राजनीति की ताजातरीन मिसाल है.
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