‘फ़ैसले के बाद मिर्चपुर के दलित और जाट याद आ रहे हैं’
अप्रैल 2010 में हुआ था मिर्चपुर. आठ साल बाद गूगल या कोई पत्रकार आपको उस घटना की जानकारी भर दे सकता है. कोई भी आपको उसकी ताप या गरमी महसूस नहीं करा सकता.
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आठ साल बाद ही सही लेकिन हरियाणा के मिर्चपुर कांड में कोर्ट का फ़ैसला आ चुका है. शुक्रवार को दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मामले में सभी 20 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. हाईकोर्ट ने इन सभी को SC/ST एक्ट के तहत सजा सुनाई है.
आठ साल बाद जब फ़ैसला आया तो कई पत्रकार आपस में पूछते पाए गए कि ये मिर्चपुर कांड था क्या? हुआ क्या था और कैसे हुआ था? जल्दी-जल्दी में गूगल किया गया और मिर्चपुर कांड के बारे में जानकारियों की रेलमपेल लग गई. गूगल बता रहा था कि 2010 में हरियाणा के मिर्चपुर कांड में दलितों पर हमले किए गए थे, इसके अलावा दो दर्जन से अधिक दलितों के घर को जला दिया गया था.
लेकिन मेरे लिए यह एक जानकारी भर नहीं थी. मिर्चपुर का नाम आते ही याद आया था वो बड़ा सा फ़ार्म हाउस जिसमें कई दलित परिवार अपना गांव छोड़कर रह रहे थे. मक्खियों और मच्छरों के बीच बड़े हो रहे वो बच्चे जिन्हें उनके मां-बाप ने जानपर खेलकर बचा लिया था. वो जवान आदमी जो काम की तलाश में जाते तो थे लेकिन जिन्हें आसपास के गांव-शहरों में काम मिलता नहीं था. वो बुढ़े-बढ़िया जिनकी पानीदार आंखों को उस दिन की कहानी दर्ज थी जब गाँव के जाटों ने उनके टोले को घेर कर आग के हवाले करना शुरू कर दिया था.
अप्रैल 2010 में हुआ था मिर्चपुर. आठ साल बाद गूगल या कोई पत्रकार आपको उस घटना की जानकारी भर दे सकता है. कोई भी आपको उसकी ताप या गरमी महसूस नहीं करा सकता.
बतौर पत्रकार मैं 2014 में मिर्चपुर गया था. उस फ़ार्महाउस में भी जहां मिर्चपुर के दलित परिवार शरण लिए हुए थे और उस गाँव में भी जहां यह घटना हुई थी. तब मिर्चपुर जाते वक़्त मन में एक ही सवाल था कि 4 साल बाद क्या कुछ बचा होगा जिसे देखा समझा जा सकता है. लेकिन हिसार के पश्चिमी छोर पर स्थित विशाल फॉर्महाउस में पहुंचे तो लगा घटना आज भी लोगों के जहाँ में जस का तस दर्ज है.
उस फ़ार्महाउस में हमारी मुलाक़ात उन दलित परिवारों से हुई जिन्होंने घटना के बाद मिर्चपुर छोड़ दिया था. दलितों के अस्सी परिवार आज भी इसी फ़ार्महाउस में रह रहे हैं. जब हम सूबे सिंह से मिले थे तभी मिर्चपुर कांड का मतलब समझ पाए थे. आज आपको फिर सूबे सिंह से मिलवाता हूं शायद आप मिर्चपुर का असली मतलब समझ पाएं. उस डर और हालात के क़रीब पहुंच पाएं.
क्या हुआ था उस दिन..
21 अप्रैल 2010 का दिन. सुबह-सुबह मिर्चपुर गांव में स्थित वाल्मिकि बस्ती को गांव के जाटों ने घेर लिया था. सूबे सिंह उस रात अपने घर की छत पर सोए हुए थे. सुबह जब उन्होंने इस घेरेबंदी को देखा तो छत से नीचे उतरने की बजाय सीढ़ी की कुंडी बंद करके छत पर ही एकांत में दुबक गए. बाहर हजारों की संख्या में मौजूद जाटों की भीड़ आक्रामक होती जा रही थी. बूढ़े सूबे सिंह दुबक कर छत के एक कोने में अपने भगवान को याद कर रहे थे. साढ़े दस बजते-बजते इस उन्मादी भीड़ ने घरों के ऊपर मिट्टी का तेल और डीजल छिड़क कर उनमें आग लगाना शुरू कर दिया. आग में घिरा एक घर सूबे सिंह का भी था. जब लपटें ऊपर उठने लगीं तब सूबे सिंह जान बचाने के लिए चिल्लाने लगे. उनकी आवाज सुनकर उन्मादी भीड़ के कुछ लोग छत से उन्हें घसीटते हुए नीचे ले आए और उनके ऊपर भी मिट्टी के तेल से भरा कनस्तर उड़ेल दिया. यह सब गांव के सामने हो रहा था.
फार्म हाउस में रह रहा दलित परिवार. फोटो: विकास कुमार
सूबे सिंह की जान खतरे में देखकर कुछ वाल्मीकि युवकों ने हिम्मत कर भीड़ से लोहा लिया और किसी तरह उन्हें भीड़ से छुड़ाकर सुरक्षित स्थान पर ले गए.
बस्ती के बाकी दूसरे घर भी धू-धू कर जलने लगे थे. इन्हीं में एक घर बजुर्ग ताराचंद का था जो अपनी 18 साल की विकलांग बेटी सुमन के साथ घर पर ही छूट गए थे. भीड़ ने उन्हें जलाकर मार दिया था.
घटना के वक्त जलाया गया मकान. फोटो: विकास कुमार
घटना के चार साल बाद जब पीड़ित दलित परिवार ये वृतांत हमें सुना रहे थे तो हम मिर्चपुर का मतलब ठीक-ठीक समझ पाए थे. लेकिन अभी और समझना बाक़ी था. फ़ार्महाउस से हम उस गांव में पहुंचे जहां जातीय हिंसा का यह चक्र चला था. मिर्चपुर के वालमिकी बस्ती तक जाने वाली सड़क तब मिट्टी थी. जाटों के इलाक़े तक सड़क पक्की थी. पता नहीं अब कैसी है?
जैसे ही हम उस बस्ती में पहुंचे तो लगा कि हम किसी अति सुरक्षा वाली जगह पर आ गाए हैं. सामने एक मैदान में सीआरपीएफ के जवानों का कैंप था. उनकी बड़ी-बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं. वालमिकी टोले के पास बंकर बने हुए थे जिसमें सीआरपीफ के जवान खड़े थे. ऐसा इसलिए कि कुछ दलित परिवार घटना के बाद भी रह गाए थे और शासन अपनी नाक बचाने के लिए उन्हें पूरी सुरक्षा दे रहा था. ताकि वो यहां रहें और सब ठीक होने की गवाही दें. जब हम बस्ती में घूम रहे थे तो एक जाट बुजुर्ग अपने घर के आगे की नाली साफ़ कर रहा था और देश-समाज का कचरा करने के लिए पत्रकारों को गरिया रहा था.
बस्ति के पास सीआरपीएफ का जवान. फोटो: विकास कुमार
जले हुए घरों के अवशेष चार साल बाद भी ज्यों के त्यों थे. अब बारी थी जाटों के मिर्चपुर को देखने समझने की. गांव की सरपंच का नाम था-कमलेश कुमारी. कमलेश कुमारी जाट परिवार से थीं. उनके घर का पता हमें वहां रह रहे दलितों ने चुपके से बताया था. बड़े से घर के आगे एक छोटा सा दलान था. वहां कुछ लडके बैठे हुए थे. जब हमने सरपंच जी के बारे में पूछा तो एक आदामी ने कहा- 'हां, पत्रकार साहब कहो? के बात है?'
हमने कहा कि आप ही कमलेश कुमारी हैं? तो बग़ल वाले लड़के ने बीच में काटते हुए कहा- 'ये उनके पति हैं, आप बात कहो?'
ख़ैर, थोड़ी हो-हुज्जत के बाद कमलेश कुमारी आईं लेकिन बोली कुछ नहीं. बोले उनके पति जो एक दिन पहले ही जेल से छूट के आए थे. बोले वो लड़के भी जो वहां बैठे थे. उनके मुताबिक़ ये कोई घटना ही नहीं थी. मीडिया वालों ने बना दी क्योंकि दलितों का पक्ष लेने में मीडिया को मज़ा आता है. उनके मुताबिक़ दलितों ने अपने घर में ख़ुद ही आग लगाई थी और कोई पलायन नहीं हुआ था. जो बाहर रह रहे हैं वो बेहतर काम-काज के लिए रह रहे थे. तब भी जाटों के लिए मिर्चपुर इतना सा ही था और उम्मीद है कि आज भी इतना सा ही होगा.
तब जब हम मिर्चपुर से लौट रहे थे तो दोनों पक्षों को लेकर बात रखने की मजबूरी थी. कभी-कभी ऐसा लगता था कि अगर जाटों की बात सही हुई तो? लेकिन आज इस बात पर मोहर लग गई है कि दलितों का मिर्चपुर सही था, जाटों का ग़लत.
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