मुनव्वर राणा जैसा शायर सरकार के विरोध में पटरी से क्यों उतरता गया?
मुनव्वर राणा (Munnawwar Rana) हमारे दौर के एक बेहद मकबूल शायर के रूप में जाने जाते रहे हैं. पर राणा कुछ समय से लगातार विभिन्न मसलों पर इस तरह की टिप्पणियां कर रहे हैं, जो उनकी शख्सियत से तो कत्तई मेल नहीं खाती.
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मुनव्वर राणा (Munnawwar Rana) हमारे दौर के एक बेहद मकबूल शायर (Poet) के रूप में जाने जाते रहे हैं. वे देशभर के मुशायरों-कवि सम्मेलनों में पिछले पांच दशकों से लेकर आज के दिन भी छा जाते हैं. उन्होंने अपनी रचनाओं से अपने को अबतक एक संवेदनशील शायर के रूप में पहचान बनाई थी. राणा गजलों के अलावा संस्मरण भी लिखते रहे हैं. पर राणा कुछ समय से लगातार विभिन्न मसलों पर इस तरह की टिप्पणियां (Statements) कर रहे हैं, जो उनकी शख्सियत से मेल नहीं खाती. इसमें कोई दिक्कत नहीं है कि अगर किसी मसले पर उनकी राय बाकी से अलग हो. लोकतंत्र में हर इंसान को अपनी बात को कहने का अधिकार है. दिक्कत तो यह हो रही है कि बुढ़ापे में वे बेहद गटरनुमा और बदबूदार भाषा बोलने लगे हैं. राणा जी ने भारत (India) के पूर्व चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति रंजन गोगई (CJI Ranjan Gogoi) को लेकर जिस भाषा का इस्तेमाल किया है उसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी. उन्होंने ऐसा क्यों किया समझ से परे है.
वजह कुछ भी हो लेकिन एक साहित्यकार या किसी भी सभ्य इंसान से उम्मीद होती है कि वह हर तरह के लोगों का ज़िक्र मर्यादित भाषा के साथ ही करेगा. दरअसल राणा आरोप लगा रहे हैं गोगई पर कि उन्होंने राज्य सभा का सदस्य बनने के लिए राम मंदिर मसले पर हिन्दुओं का पक्ष लिया. इसका मोटा-मोटी मतलब तो यह हुआ कि आप सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मान ही नहीं रहे हैं. हालांकि जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था तब राणा और शेष सारे मुसलमान नेता यह कह रहे थे कि वे कोर्ट के फैसले को मानेंगे.
जैसे जैसे बयान सामने आ रहे हैं साफ़ है कि मुनव्वर राणा की शायरी जितनी अच्छी है उनकी सोच उतनी ही घटिया है
अब चूंकि फैसला उनके मन-माफिक नहीं आया तो ये गोगई पर ही आरोप लगाने लगे. वे यह भी क्यों भूल गए हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक पांच सदस्सीय बेंच ने सर्वानुमति से दिया था. उसमें एक मुस्लिम जज भी था. मुनव्वर राणा ने कहा है, 'रंजन गोगई जितने कम दाम में बिके, उतने में हिंदुस्तान की एक ‘वेश्या’ भी नहीं बिकती है.' जो शायर मां की महानता पर गजल रचता है और जिसकी अपनी भी दो बेटियां है, वह किसी अन्य स्त्री पर इतना घटिया आरोप कैसे लगा सकता है?
ये राणा से कभी यह उम्मीद तो नहीं थी. मैं उनसे कई बार मिला हूं और उन्हें कई कवि सम्मेलनों में ससम्मान आमंत्रित भी कर चुका हूं. मुझे उनकी इस घटिया हरकत से सच में गहरा आघात लगा है. यह लाजिमी भी है. जब हम किसी शख्स का ह्रदय से आदर करें और वह हमारी अपेक्षाओं पर खरा न उतरे तो मन तो उदास और खिन्न हो ही जाता है.राणा ने अपने लाखों प्रशंसकों को दुखी किया है.
अगर राणा मुझे कभी भी भविष्य में मिलेंगे तो मैं उनसे कहूंगा कि आप तो मां पर बहुत शानदार कलम चलाते थे, क्या आपको पता नहीं कि एक वेश्या भी मां होती है. वह भी किसी की बहन और बेटी भी है. आप और आपकी शायरी पर लानत है. तो देख लें कि गंगा-जमुना तहजीब की बातें करने वाला नकली ढकोसलापंथी शख्स राम मंदिर बनने से कितना दुखी है. एक बार राणा ने देश की नौटंकी कला की जान गुलाब बाई पर भी इसी तरह की छींटाकशी की थी. उन्हें यह नहीं पता कि नौटंकी हमारे सांस्कृतिक जीवन की अनमोल निधि है. हमारा गौरव है.
नौटंकी हमारी लोक सांस्कृतिक परंपरा का जीवंत प्रवाह है. गुलाब बाई ने नौटंकी नाट्यशैली को शिखर तक पहुंचाया, उसे सींचा, नया जीवन दिया. एक तरह से वे राणा जैसे शायरों से कम नहीं. उनके बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी हिकारत और पितृसत्ता की हिंसा का परिचायक है. यह अपनी जड़ों को न पहचानने की नालायकी भी है. गुलाब बाई अपनी कला के शिखर पर पहुंची, जहां राणा न तो अबतक पहुंच पाये हैं न ही इस जिन्दगी में कोई उम्मीद है.
राणा के नक्शे-कदम पर उनकी पुत्रियां भी चल रही हैं. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सीएए, एनआरसी के विरोध प्रदर्शन में भाग लेने आई राणा की बेटी सुमैया राना ने कहा था कि 'हमें ध्यान रखना है कि हमें इतना भी तटस्थ नहीं होना है कि हमारी पहचान ही खत्म हो जाए. पहले हम मुसलमान हैं और उसके बाद कुछ और हैं. हमारे अंदर का जो दीन है, जो इमान है, वह जिंदा रहना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि हम अल्लाह को भी मुंह दिखाने लायक न रह जाएं.'
राणा को अपनी बेटी की इतनी गंभीर टिप्पणी पर कायदे से उसे सार्वजनिक रूप से फटकार लगानी चाहिए थी. पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी. इसका मतलब तो यही है कि अपनी बेटी की अभद्र टिप्पणी में उनकी पूरी सहमति थी. तो यही माना जाए न कि राणा अपनी बेटी के विचारों के साथ खड़े हैं ? अब तो यही लगता है उनकी बेटियां भी उन्हीं के विचारों को प्रचारित कर रही हैं.
दरअसल मुनव्वर राणा की शायरी का कोई ठोस आधार भी नहीं है. उन्होंने ‘मुहाजिरनामा’ नाम से एक गजल कही है. यह उन लोगों का कथित दर्द बयां करती हुई कृति है जो बंटवारे के वक़्त भारत से पाकिस्तान चले गए थे. उनको वहां के लोगों ने मुहाजिर कहकर बुलाना शुरू कर दिया. पर क्या मुनव्वर राणा को पता है कि वे जिनके हक में शायरी कर रहे हैं, उन्हें कभी किसी ने भारत छोड़ने के लिए भी कहा था क्या? क्या उन्हें इस बात की भी जानकारी है कि मुहाजिरों ने कराची में जाकर उलटे सिंधी हिन्दुओं को मारा भी था?
ये मुहाजिर ही पाकिस्तान आंदोलन को ताकत दे रहे थे. जब इन मुहाजिरों ने स्थानीय सिंधी, बलोच और पंजाबी बिरादरियो के हकों को मारना चालू किया और उसका स्वाभाविक विरोध हुआ तो इन्हें भारत वापस आने की इच्छा सताने लगा. तब इन्हें जन्नत की हकीकत समझ में आई. उन्हें तो अब भी पाकिस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं. पर इससे क्या होता है. कहते हैं कि लम्हों ने खता की थी और सदियों ने सजा पाई. अब तो उन्हें क्रूर इस्लामिक देश पाकिस्तान में ही मुहाजिर बनकर ही रहना होगा.
बहरहाल बात यह है कि राम मंदिर मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और फिर राम मंदिर के शिलान्यास के बाद मुनव्वर राणा और असदुद्दीन ओवैसी जैसे सांप्रदायिक लोगों का दर्द अब सबके सामने आ गया है. ये राम मंदिर का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विरोध कर रहे हैं. राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया चालू होने के साथ ही इन्हें भारत की धर्मनिरपेक्षता खतरे में नजर आने लगी है.
इन्हें तब सब कुछ सही लग रहा था जब कश्मीर घाटी के लाखों हिन्दुओं को उनके अपने घर से ही निकाला गया था. तब राणा और ओवैसी जैसों की जुबानें सिल गई थीं. या यूँ कहें कि ये मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे- जश्न मना रहे थे. ये सब देश देख रहा है. क्या देश कभी भी इन दोगले चरित्र के नेताओं को अब कभी सम्मान के भाव से देखेगा? सवाल ही नहीं उठता
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