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Updated: 29 अप्रिल, 2018 08:04 PM
शरत प्रधान
शरत प्रधान
 
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क्या हमारे राजनेता वास्तव में इतने मासूम हैं या फिर सच में वे ये सोचते हैं कि गरीब दलित इतने भोले होते हैं?

आश्चर्यजनक रूप से वे मानते हैं कि सिर्फ बातों या प्रतीकों के जरिए ही वो लोगों को इतना प्रभावित कर सकते हैं कि जनता उनके लिए लहालोट हो उठेगी. खैर, प्रतीकात्मकता उस समय फायदा पहुंचाती है जब "कैटल क्लास" मतदाताओं के बीच जागरूकता बहुत कम होती है. खोखली बातों और संकेतों से लोगों को आसानी से मुर्ख बनाया जा सकता है और उनके वोट बटोरे जा सकते हैं.

वो तो भला हो शिक्षा और सूचना और प्रौद्योगिकी के कारण बढ़ती जागरूकता का कि समाज के सबसे छोटे तबके से आने वाला व्यक्ति भी नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की इस चालाकी को अब समझने लगा है. और हमारे राजनेताओं को इतनी सी बात नहीं समझ पाने के लिए बच्चे की तरह भोला होना होगा.

लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित करने वाली बात तब सामने आई जब यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसा कदम उठाया. उनसे ऐसे बचकाने हरकत की आशा नहीं की जा सकती थी. भगवाधारी मुख्यमंत्री, जिनकी पहचान लोगों के नेता के रुप में रही है और जो लोगों की नब्ज पकड़ना जानता है, उन्होंने दलित परिवार के साथ खाना खाने का एक बड़ा दिखावा किया है.

योगी आदित्यनाथ के पीआर मशीनरी ने इस बात को फैलाने में कोई कोर कसर न रह जाए. पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के कंधई-माधोपुर गांव में एक दलित घर में खाना खाते हुए भगवाधारी मुख्यमंत्री की तस्वीरों को सभी समाचार पत्रों ने प्रमुखता से छापा. और इस खबर को भी बड़ी ही प्रमुखता फैलाया गया कि  मुख्यमंत्री ने स्थानीय ग्रामीणों के साथ एक चौपाल का भी आयोजन किया था.

लेकिन जिस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया वो ये कि आदित्यनाथ ने मेजबानी के लिए जिस घर को चुना वो एक संपन्न दलित परिवार था. एक आम दलित परिवार के घर की परिस्थिति से अगल उस घर में हर चीज मौजूद थी. भले ही मुख्यमंत्री ने अपना भोजन करने के लिए फर्श पर बैठना चुना, लेकिन ये एक ऐसा घर था जहां एक मिडिल क्लास परिवार के घर का हर आराम स्पष्ट रूप से उपलब्ध था.

BJP, SP, BSP, Dalitदलित कार्ड खेलने की मजबूरी!

दो दिन बाद 26 अप्रैल को आदित्यनाथ ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले के मेहंदीपुर गांव में भी भोजन के लिए एक और दलित परिवार के घर जाकर खाना खाने का उपक्रम दोहराया. यहां चौंकाने वाली बात ये भी थी कि मेजबानी के लिए मुख्यमंत्री ने ग्राम प्रधान को चुना. ग्राम प्रधान सत्तारूढ़ दल का नजदीकी होने के साथ साथ एक संपन्न परिवार की सारी बुनियादी सुविधाओं से लैस भी है.

पहले वाले मेजबान की तुलना में खुद को बेहतर साबित करने के मकसद से प्रधान ने मुख्यमंत्री के लिए नए बर्तन खरीदे. यहां तक कि मुख्यमंत्री के लिए रखी गई आसन भी नई थी. और साथ ही उन्होंने ये भी सुनिश्चित किया कि मुख्यमंत्री को गांव के नल का पानी नहीं बल्कि बोतलबंद पानी ही परोसा जाए. लेकिन फिर भी सरकार ने इस बात को भुनाने के मकसद से प्रचारित किया कि मेजबान एक दलित था.

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के गठबंधने के बाद से बनी कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए बीजेपी, दलितों के साथ-साथ दूसरी पिछड़ी जातियों के एक वर्ग को लुभाने में जी जान से जुटी है. हमेशा एक दुसरे से लड़ने वाली दोनों पार्टियों ने एक दुसरे का हाथ थामकर अचानक ही बीजेपी नेतृत्व को झटका दे दिया है. 2019 के चुनावों में नरेंद्र मोदी के राजनीतिक नियति की परीक्षा होगी. इस कारण से भाजपा अब अपने हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण वाले जांचे परखे फॉर्मूले पर काम करना शुरु कर दिया.

एसपी और बीएसपी के बीच लगभग ढाई दशक पुरानी दुश्मनी और कट्टरता ने दलितों और ओबीसी को बांट दिया था. जिसका फायदा बीजेपी को पूरी तरह से मिला. हालांकि, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के राज्य विधानसभा में जाने से खाली हुई दो लोकसभा सीटों पर हाल ही में हुए उपचुनाव में बीजेपी को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था. इस हार ने सत्ताधारी पार्टी को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया.

और एसपी-बीएसपी गठबंधन के कारण ही मिले इस हार ने भाजपा को अपने पुराने ट्रैक पर लौटने के लिए मजबूर कर दिया. मायावती और अखिलेश यादव द्वारा अपने गठबंधन को 2019 के आम चुनावों में भी बनाए रखने की घोषणा ने भाजपा को इस गठबंधन से निपटने के नए तरीकों को खोजने पर मजबूर कर दिया है. अब उनकी प्राथमिकता "फूट डालो शासन करो" की पुरानी नीति है.

योगी आदित्यनाथ ने पहले ही ओबीसी को तीन श्रेणियों में विभाजित करने की अपनी योजना के बारे में बता दिया है- पिछड़ा, सबसे पिछड़े और अति पिछड़ा. इसी तरह, वो दलितों को- जाटव और गैर-जाटवों के बीच बांटने का प्रस्ताव भी दे चुके हैं. जाहिर है, ये इस बात की तरफ इशारा देना है कि चूंकि ओबीसी आरक्षण कोटा का सबसे ज्यादा हिस्सा यादव ले जाते हैं, इसलिए आरक्षण में विभाजन से वंचित ओबीसी लोगों को बराबर का हिस्सा मिलना सुनिश्चित होगा. दलितों को विभिन्न श्रेणियों में बांटकर ये संदेश देना चाह रहे हैं मायावती ने गैर-जाटवों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी क्योंकि वो खुद जाटव समुदाय से आती हैं.

उत्तर प्रदेश में इस रणनीति का एक इतिहास है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में इसका इस्तेमाल किया था. अखिलेश यादव ने भी मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के समय इसका इस्तेमाल किया. लेकिन उस समय केंद्र सरकार द्वारा इस मंजूरी नहीं मिली. अब क्योंकि लखनऊ और दिल्ली दोनों ही जगह भाजपा सत्ता में है, इसलिए योगी आदित्यनाथ के लिए अपनी इन योजनाओं को अमली जामा पहनाने में दिक्कत नहीं होगी.

इस बीच, एक दलित घर में भोजन करना इस "फूट डालो और शासन करो" वाली रणनीति की शुरुआत है. अब ये मनचाहा नतीजा देता है या नहीं ये इस बात पर निर्भर करेगा कि ओबीसी और दलित कितने भोले बने रहेंगे.

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लेखक

शरत प्रधान शरत प्रधान

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार हैं.

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