Bakrid 2020 History: बकरीद क्यों मनाते हैं इसे मनाना ज़रूरी क्यों है?
मुसलमानों (Muslims)के बड़े त्योहारों में से एक है बकरीद (Bakreid)का त्योहार, जिसे सभी मुसलमान बड़ी धूमधाम के साथ मनाते हैं. इसका इतिहास और इसका महत्व क्या है और यह मनाते कब हैं इसको लेकर मुसलमानों में एकमत है. यह कुर्बानी कब और कैसे शुरू हुई इसकी कहानी भी दिलचस्प है.
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किसी भी धर्म में कोई भी त्योहार हो उसका एक महत्व होता है और एक इतिहास होता है. हर धर्म के मानने वाले उस त्योहार को बड़े ही आस्था के साथ मनाते हैं. ऐसा ही एक त्योहार है ईद-उल-जुहा यानी बकरीद (Bakreid). इस त्योहार का भी अपना अलग महत्व है और अपना एक इतिहास है. बाकी सभी इस्लामिक त्योहारों (Islamic Festival ) की तरह यह त्योहार भी इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार ही मनाया जाता है. इस्लामिक कैलेंडर चांद के चक्कर के साथ निर्धारित होता है जबकि ग्रेगोलियन कैलेंडर सूर्य के चक्कर के साथ तय होता है. चांद और सूर्य के चक्कर में फर्क होता है ये फर्क करीब 10 दिन कुछ घंटों का होता है. इसीलिए साल दर साल इस्लामिक त्योहार 10 से 11 दिन घट जाता है. बकरीद मनाने की परंपरा इस्लाम धर्म में पैगंबर मोहम्मद (Prophet Muhammad) साहब से पहले से चली आ रही है.
बकरीद को लेकर तैयारियां जोरों पर हैं तो ये जानना भी जरूरी है कि क्यों मनाई जाती है बकरीद
इस्लाम धर्म में 1 लाख 24 हज़ार नबी (इस्लाम धर्म के प्रचार प्रसार करने वाले) हैं. जिनमें सबसे आखिरी नबी हज़रत मोहम्मद साहब हैं. उनसे पहले 1 लाख 23 हजार 999 नबी इस दुनिया में आ चुके थे. इन्हीं में से एक नबी हज़रत इब्राहीम साहब हैं. जिनके बेटे हज़रत इस्माइल भी नबी थे. इन्हीं दोनों ने मिलकर मुसलमानों का सबसे पवित्र स्थल 'काबा; का निर्माण किया था.
काबा को 'अल्लाह का घर' माना जाता है जिसकी नींव सबसे पहले नबी हजरत आदम साहब ने रखी थी. कहा जाता है कि हज़रत इब्राहीम के जमाने तक मक्का शहर में आबादी नहीं हुआ करती थी. हज़रत इब्राहीम ने ही मक्का शहर को आबाद किया था. बकरीद का त्योहार भी इसी मक्का शहर से शुरू हुआ और इसकी शुरुआत कब और कैसे हुयी इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बात करते हैं.
क्यों मनाई जाती है बकरीद
बकरीद का त्योहार भी इन्हीं दोनों बाप-बेटे (इब्राहीम-इस्माईल) की याद में ही मनाया जाता है. इस त्योहार का ज़िक्र पवित्र किताब कुरान में भी मौजूद है. यह त्योहार कुर्बानी और त्याग का त्योहार होता है. हज़रत इब्राहीम बहुत ही विद्धान व्यक्ति थे. अल्लाह ने उनका इम्तेहान लेने के लिए उनसे उनकी सबसे पसंदीदा चीज़ की कुर्बानी मांगी. हज़रत इब्राहीम को सबसे ज़्यादा प्यार अपने बेटे हज़रत इस्माईल से था.
उन्होंने फैसला किया कि वह अपने बेटे की ही कुर्बानी देंगे क्योंकि अल्लाह ने सबसे पसंदीदा की ही कुर्बानी मांगी थी. बताया जाता है कि हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे को भी अपने इस फैसले के बारे में बताया वह भी तैयार हो गए और दोनों लोग मिना नामक मैदान में गए और हज़रत इस्माईल ने बाप को आंखों पर पट्टी बांध कर कुर्बानी करने को कहा ताकि उनके दर्द को देख हज़रत इब्राहीम अपना फैसला न बदल लें और कुर्बानी अधूरी न रह जाए.
बताया जाता है कि हज़रत इब्राहीम ने अपने आंखों पर पट्टी बांध ली और अपने बेटे की गर्दन पर छुरी चला दी. इसी बीच अल्लाह ने फरिश्तों को भेज दिया और हज़रत इस्माईल की जगह एक दुम्बे (अरबी भेड़) को लिटा दिया. जब हज़रत इब्राहीम ने अपनी आंख खोली तो सामने दुम्बे को कटा हुआ देखा और बेटे हज़रत इस्माईल को जिंदा देखा. वो यह देख कर बेहद मायूस हो गए और सोचने लगे कि उनकी कुर्बानी अधूरी रह गई. वह अपनी पंसदीदा चीज़ को कुर्बान नहीं कर सके.
इसी बीच अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम को संदेश भेजा कि उनकी कुर्बानी कबूल कर ली गई है वह इम्तेहान में कामयाब हो गए हैं. अल्लाह ने अपने संदेश में हज़रत इब्राहीम से वादा भी किया कि वह इस कुर्बानी को कभी धूमिल नहीं होने देगें बल्कि कयामत (दुनिया का आखिरी दिन) तक इसकी याद मनायी जाएगी. इसी को लेकर अल्लाह ने कुरान में हुक्म (आदेश) भी दिया है कि हर मुसलमान इसकी याद कुर्बानी करके ज़रूर मनाए.
बकरीद क्यों कहते हैं
इस्लाम धर्म में मुख्यत दो ईद है. ईद-उल-फित्र और ईद-उल-जुहा. इसमें एक को ईद (मीठी ईद) व दूसरे को बकरीद (बकरे वाली ईद) के नाम से भी जाना जाता है. असल नाम ईद-उल-फित्र व ईद-उल-जुहा ही है लेकिन भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश जैसे हिंदी और उर्दू भाषी देशों में इसे आसानी से समझ लेने के कारण ईद व बकरीद के नाम से जाना जाता है.
कब होती है बकरीद
ईद-उल-फित्र यानी ईद इस्लामिक महीना रमज़ान महीने के खत्म होने के बाद शव्वाल महीने की पहली तारीख को मनाई जाती है जबकि बकरीद इस्लामिक महीने के 11 वें महीने ज़िलहिज (हज के महीने) की दसवीं तारीख को मनाई जाती है. इसीलिए बकरीद का दिन 9 दिन पहले ही मालूम चल जाता है. इसी महीने मुसलमानों का सबसे प्रमुख कार्य हज भी होता है.
क्या करते हैं बकरीद के दिन
बकरीद के दिन सभी मुसलमान नए कपड़े पहन कर सबसे पहले नमाज़ के लिए जाते हैं. इस दिन सामुहिक नमाज़ ईदगाह में होती है. यह नमाज़ भी ईद के जैसे ही होती है. इसके बाद कुर्बानी दी जाती है. हालांकि कुछ लोग कुर्बानी करने के बाद ही नमाज़ पढ़ने के लिए जाते हैं. इस दिन भी सभी घर में मीठे पकवान बनाए जाते है्ं.
कुर्बानी के क्या हैं नियम
असल कुर्बानी दुम्बे (अरबी भेड़) पर होती है. लेकिन यह जानवर हर जगह नहीं पाया जाता इसलिए बकरा, भेड़, ऊंट जैसे जानवरों पर भी कुर्बानी दी जाती है. कुर्बानी का जानवर खरीदने की भी शर्ते हैं और कुर्बानी करने के भी नियम हैं. जिसमें जानवर की उम्र उसकी तबीयत वगैरह देखने का भी हुक्म है. बीमार या विकलांग जानवर की कुर्बानी करना मना है.
कुर्बानी के बाद क्या होता है
जानवर की कुर्बानी करने के बाद उसके मांस के तीन हिस्से करने होते हैं. एक हिस्सा गरीब और ज़रूरतमंदों को देना ज़रूरी है जबकि दूसरा हिस्सा पड़ोसी व रिश्तेदारों के लिए होता है. तीसरा हिस्सा यानी एक तिहाई हिस्सा ही खुद के लिए रखा जाता है.
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