‘अर्थ डे’ पर नदी की बात, क्योंकि नदी बचेगी तभी धरती बचेगी
धरती का करीब 71 फीसदी हिस्सा पानी है, फिर बूंद-बूंद पानी को क्यों मुहताज हैं हम? आखिर कौन पी गया धरती का सारा पानी? शायद ये सवाल पूछने का हक इंसान को है ही नहीं, क्योंकि इस अभूतपूर्व संकट के लिए वही जिम्मेदार है.
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दुनिया में हर 90 सेकेंड में एक बच्चा गंदा पानी पीने से मर जाता है. हर खास दिन पर बधाई देने का चलन जोर पकड़ रहा है तो आज लोग हैप्पी अर्थ डे भी कह रहे हैं लेकिन हर डेढ़ मिनट में एक बच्चे की मौत का आंकड़ा अर्थ डे को हैप्पी वाले एहसास से वंचित कर देता है. वक्त खुश होने का है भी नहीं, यह वक्त है विकास के नाम पर प्रकृति के साथ अब तक किए गए अनगिनत पापों के प्रायश्चित का.
पीने के पानी का ऐसा संकट कि दुनिया में एक बड़ी आबादी गंदा पानी पीने को मज़बूर है, लेकिन ऐसे लोग भी हैं जिन्हें गंदा पानी भी नसीब नहीं. बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं लोग. भारत भी अपवाद नहीं. लातूर से बूंद-बूंद पानी के लिए जद्दोजहद की खबर रोज आ रही है लेकिन देश में हजारों लातूर हैं. हर जगह की खबर नहीं आती. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि अफ्रीका और एशिया में महिलाओं और बच्चों को पानी के लिए रोजाना औसतन 6 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. पूरी दुनिया का हिसाब लगाएं तो महिलाएं और बच्चों का 12.5 करोड़ घंटे प्रति दिन पानी का इंतज़ाम करने में गुजर जाते हैं.
धरती का करीब 71 फीसदी हिस्सा पानी है, फिर बूंद-बूंद पानी को क्यों मुहताज हैं हम? आखिर कौन पी गया धरती का सारा पानी? शायद ये सवाल पूछने का हक इंसान को है ही नहीं, क्योंकि इस अभूतपूर्व संकट के लिए वही जिम्मेदार है. धरती रहने के लिए थी लेकिन विकास और तरक्की के नाम पर इंसान धरती को ही खाने लगा. जमीन के टुकड़े से निकलने वाले पैसों की खनक ने इसे और स्वादिष्ट बना दिया. तालाब-कुएं पाट दिए गए. शहरों में तो और भी बुरा हाल है. ज़मीन के एक एक इंच पर क्रंक्रीट की परत बिछा दी गई. आखिर पानी ठहरे तो भी तो कहां? ऐसे में नदी एक उम्मीद थी लेकिन वो भी हमारी गंदगी ढोने का एक जरिया भर बन कर रह गई.
दिल्ली में यमुना की बदहाल स्थिति |
इस देश में नदी को मां का दर्जा हासिल है. उसकी पूजा की जाती है लेकिन हमने जीवन को खुशहाल बनाने वाली इस नदी का जो हश्र किया है, वह केवल शर्मनाक ही नहीं बल्कि घोर पाप भी है. देश की हर नदी का एक ही हाल है लेकिन हम यहां सभी नदियों की बात नहीं करेंगे. कर भी नहीं सकते. अगर हम केवल देश की राजधानी से गुजरने वाली यमुना की बात करें तो ही ये साफ हो जाएगा कि पूरे देश में नदियों की क्या स्थिति है.
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दिल्ली में यमुना केवल 22 किलोमीटर की दूरी तय करती है और इस 22 किलोमीटर में उसका कत्ल करने में दिल्ली कोई भी कोताही नहीं बरतती. यमुनोत्री से निकलने वाली यमुना करीब 1400 किलोमीटर का सफर तय कर इलाहाबाद के संगम में गंगा में समा जाती है. दिल्ली तक के 375 किलोमीटर तक के सफर में यमुना का हाल इतना बुरा नहीं होता, जितना दिल्ली में घुसते ही हो जाता है. यहां गंदगी और प्रदूषण से उसका स्वागत होता है. महज 22 किलोमीटर के सफर में दिल्ली यमुना का वो हाल करती है कि अगर यमुना का वश चलता तो वो शायद दिल्ली से गुजरने से ही मना कर देती.
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दिल्ली के कचरे का 60 फीसदी हिस्सा बिना किसी ट्रीटमेंट के सीधे यमुना में गिरा दिया जाता है. 22 नाले पूरी दिल्ली की गंदगी यमुना में लाकर गिराते हैं और यमुना में 80 फीसदी प्रदूषण इन नालों के चलते ही है. औद्योगिक कचरा भी सीधे यमुना में. यमुना का पानी इतना गंदा और जहरीला हो गया है कि नहाने लायक भी नहीं है. दिल्ली में 22 नालों ने यमुना को भी नाले में तब्दील कर दिया है. मरियल-सूखी यमुना को दिल्ली में देखिएगा तो आपको ऐसा लगेगा कि नदी सिसकती हुई आगे बढ़ रही है. उसके आंसू कभी सफेद फोम तो कभी गुलाबी फोम के रूप में भी पानी के सतह पर तैरने लगते हैं. लेकिन यमुना गुहार लगाए भी तो किससे? जिस दिल्ली से गुहार लगाना था, उसका ये हश्र तो वही दिल्ली करती है.
प्रदूषित यमुना पर ये झाग हमेशा तैरते रहते हैं |
बरसों से सबको पता है कि यमुना मर रही है और दिल्ली उसकी क़ातिल है. यमुना को बचाने के लिए करोड़ों रुपयों के प्रोजेक्ट्स भी चल रहे हैं लेकिन अब तक कितने रुपये यमुना के लिए बहाए गए और कितने रुपये भ्रष्टाचार की यमुना में बह गए, ये तो जांच का विषय है क्योंकि यमुना की हालत में तो कोई सुधार नहीं है. तमाम नदियों की हालत सुधारने के लिए करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं. इन योजनाओं की सच्चाई की पोल यमुना ही खोल देती है. जब दिल्ली में महज 22 किलोमीटर में यमुना की रक्षा संभव नहीं हो पा रही है तो बाकी नदियों की बात क्या करनी! जाहिर है जब तक भ्रष्टाचार की गंगा-यमुना बहती रहेगी, तब तक गंगा-यमुना समेत देश की तमाम नदियां खून के आंसू रोती रहेंगी और हम बूंद-बूंद पानी को तरसते रहेंगे.
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अभी हाल ही मथुरा गया था. नाव पर यमुना-भ्रमण के दौरान बुजुर्ग नाविक ने सही कहा था कि मथुरा के कालियानाग से तो कन्हैया ने यमुना महारानी को बचा लिया था लेकिन दिल्ली में बैठे कालियानाग का कोई इलाज नहीं हो रहा है. दिल्ली में यमुना को जहरीला बनाने वाले कालियानाग के वध के लिए यमुना महारानी को भी शायद कान्हा का इंतज़ार है. आज हर नदी में कालियानाग हैं, इसलिए एक कान्हा के बस का कुछ नहीं. वक्त आ गया है कि हम सब कान्हा बन जाएं और नदी को बचाने के काम में जुट जाएं.
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अर्थ डे पर यही शपथ लेने की जरूरत है. धरती बचानी है तो अपने हिस्से का काम खुद करना होगा, सिर्फ सरकार का मुंह ताकने और एक घंटे के लिए बत्ती गुल करने से कुछ नहीं होगा. अगर कुछ भी नहीं कर सकते तो कम से कम नदियों में गंदगी फेंकना बंद कर दें. ये भी एक बड़ा योगदान होगा. क्या आप ये काम कर सकेंगे? याद रखिए नदी बचेगी तभी धरती बचेगी.
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