लेखनी! अब वो बस आत्महत्या करना चाहती है...
हाल फिल्हाल के दिनों में लेखकों का दोहरा चरित्र है वो असल जीवन में कुछ और हैं मगर अपने लेखन में आदर्शवादिता की बातें करते हैं. जब लेखक कलम उठाए तो इस जिम्मेदारी के साथ कि वो अपने प्रति खुद कितना ईमानदार है.
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सहम जाती है वह. बुरी तरह से. जब दिखायी देता है उसका जन्मदाता. नहीं चाहती है कि वह उसे दिखे. कतई नहीं. वह जब-जब दीखता है, तब-तब उसे लगता है कि एक पल में मानों वह सौ बार मर रही हो. उसके अंदर भरे हुए एक-एक लफ्ज लावा बन कर दहकने लगते हैं और वह अंदर ही अंदर बुरी तरह से सुलगने लगती है. ऐसे में उसका मन करता है कि वह चीखे. उसे देखते ही उस पर जोर से चिल्लाये और पूरी ताकत से कहे कि मैं आत्महत्या करना चाहती हूँ... हाँ,मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ आत्महत्या करना चाहती हूँ.
वर्तमान में ज्यादातर लेखक लिखते कुछ और हैं, असल जिंदगी में कुछ और होते हैंअपने होने पर शर्मिंदा है वह. ऐसा नहीं है कि उसके गठन में कोई कमी रह गई हो. भरी-पूरी है. देखने में सुघड़. चित्तआकर्षक. लोग उसकी प्रशंसा भी करते हैं। कुछ लोग तो उस पर इतने आसक्त हुए कि उस पर बिना कुछ लिखे माने ही नहीं. फिर भी वह अपने होने पर शर्मिंदा है. यह सच है. और यह सच तब और भी मुखुर हो जाता है, जब वह अपने सामने खुद के रचयिता को देखती है. अपने निहाल रचयिता को देखते हुए जब स्वयं को निहारती है, तो अपने को महज झूठ का एक पुलिंदा समझती है वह.
यों तो वह अपने जिल्द में ही महदूद रहती है, मगर जब उसका रचयिता उसे हाथ लगाता है, तो वह सिमट जाना चाहती है. भरपूर सिमट कर मात्र एक बिंदू बन जाना चाहती है. उसका मन करता है कि जैसे ही उसका रचयिता उसे छूए वह 'डोंट टच मी!' कह कर उसे डपट दे. उसे अपने रचयिता के हाथ, हाथी के दांत नजर आते हैं. जिसकी हल्की-सी छुअन से उसका सारा जिस्म छलनी हो जाता है.
जब-जब उसका रचियता उसको उलटा-पलटा है, तब-तब उसकी ऐसी ही हालत हुयी है. वह चाहती है कि वह अपने रचयिता से भरसक दूर रहे, भले ही उसे एहसान फरामोश, खुदगर्ज वगैरह क्यों न समझा जाए! इस कवायद में कई बार वह दराज से गिरी भी. मगर वह यह देख कर अवाक् रह गयी कि उसके गिरने को महज इत्तफाक माना गया.
आज का लेखक अंधकार में घिरा प्रकाश फैलाने का काम कर रहा है
कई बार वह सोचती है कि वह आखिर बनी किसके लिये है. उसे जन्म किस लिये दिया गया है. उसके रचे जाने के बाद उसका किससे वास्ता है. कई बार वह स्वयं से दृढ़ स्वर में कहती है कि भले ही उसका रचयिता से राबता हो,मगर वास्ता तो उसके अपने पाठकों से ही है. इसलिए उसे अपने रचयिता के विषय में नहीं, बल्कि पाठक के बारे में सोचना चाहिए. मगर दूसरे पल वह खुद से कहती है कि जीते जी मक्खी नहीं निगली जाती. जब-जब उसका अपने लेखक से साबका होता है, तो यह सबक उसे सहसा याद आ जाता है. वह क्या करे! पाठक तो मात्र उसे जानते है, मगर वह अपने रचयिता यानी लेखक को जानती है. वह भी बखूबी. रचयिता जब-तब दिख जाता है उसे.
कभी अपना बायोडेटा रचते हुए, तो कभी कोई पुरस्कार और स्मृति चिह्न घर लाते हुए. वह देखती है कि रचयिता अंगवस्त्र को अपने अंग लगाए इधर-उधर घर में कैसे टहला करता है. यह दृश्य देखती है वह जब, तो उसके दिल में एक हूक-सी उठती है. याद नहीं पड़ता कि वह कभी किसी हृदय विदारक खबर पर बेतरह बैचेन हुआ हो और उसे विषय से इतर भी देखा हो. वह प्रायः सुनती है कि उसका रचयिता उसके पुराने संस्करण खत्म होने की या नये संस्करण आने की बात करता रहता है.
मगर अरसा हो गया उसके मुख से अनुकरण शब्द को सुने हुए. वह अपने राइटर को बताना चाहती है कि राइटर और कॉपी राइट में अंतर होता है. वह उसको समझाना चाहती है कि कॉपी राइटर महज विज्ञापन के लिए लिखता है. कई बार इस चक्कर में वह खुद को एक विज्ञप्ति समझने लगती है. कभी-कभी तो वह शून्य में देखते हुए बड़बड़ाती है. राइटर... फाइटर... फाइटर... राइटर... जब कभी वह ऐसा करती है, तो उसके रचयिता को लगता कि हवा की वजह से उसके पन्ने फड़फड़ा रहे हैं.
लेखकों को कलम उठाने से पहले सोचना चाहिए कि जो वो लिख रहे हैं, असल जीवन में भी वो वैसे ही हों
कई बार वह सोचती है कि कहीं उसे मतिभ्रम तो नहीं हुआ है. कभी उसे लगता है कि घर सही है, पर पता गलत है. कभी उसे लगता है कि पता सही है, पर घर गलत है. कभी-कभी तो वह अपने होने पर ही संदेह कर बैठती है. कई बार उसे लगता कि कही गलती से किसी और का नाम तो नहीं लिख गया है उसके ऊपर. क्योंकि उसे इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि जो प्रूफ को लेकर इतना सजग है, वह खुद के रफू को लेकर चिंतित क्यों नहीं है. वह सोचती है कि वर्षों बाद भी वो तो नहीं बदली. वक्त की दीमक, खिड़कियों से आती हवाएं, एसी की ठंडक, नियॉन की रौशनी, उसके मिजाज को नहीं बदल पाये हैं.
मुख्यपृष्ठ की चमक भले ही कुछ कम हुयी हो,मगर उसकी आत्मा अभी भी पाक-शफ्फाक है. जबकि वह साफ देख रही है कि रचयिता का मुख भले ही चमक रहा हो, हां मगर उसका व्यक्तित्व का पृष्ठ जर्जर हो चला है. वरना पक्षधरता को अपनी पीठ पीछे क्यों रखता वह! वह पढ़ सकती है उसकी प्रतिबद्धता की काया पर बड़ी और गहरी दरारें को. जिसे वह वक्तव्य, भूमिका, आशीर्वचन, बयान, समीक्षा, दो शब्द के पैबंद लगाकर छुपाना चाहता है.
कई बार तो निंदारस और सोमरस को उन दरारों में उडे़ल कर उन्हें भरने का उपक्रम करता-सा दिखता है वह. वह दुनिया से तो छुपा सकता है, मगर उससे छुपाना मुश्किल है. वह साफ देख सकती है इन दरारों कें अंदर क्या है. इन दरारों में गहरे तक पैबस्त मवाद दिखता है उसे. आत्ममुग्धता की मवाद. जिसे देखकर उसे घिन आती है. तब तो और ज्यादा जब वह देखती है कि आत्ममुग्धता की यह मवाद उसके रचयिता को शहद-सा स्वाद देती है.
लेखक के चरित्र को देखकर अब कलम शून्य में देखते हुए बड़बड़ाती है
इधर क्या हो रहा है उसके साथ. इधर वह अपनी भरी-पूरी काया को अकसर निहारा करती है. निहारते हुए वह स्वयं से कहती है कि कि भले ही खुद कितनी भारी-भरकम क्यों न हो,मगर एक छोटी-सी ख्वाहिश रखना उसके लिए गुनाह हो गया है. उसका सुख-चैन से जीना मुहाल हो गया है. क्या है आखिर उसकी यह छोटी-सी ख्वाहिश! यही न कि उसका रचयिता कभी उसके पास बैठे और उसे सुने.
सुने ही नहीं महसूस करे. और वह पढ़े, जो उसने लिखा है. और याद करे कि उसने उसको कैसी जिंदगी दी है और स्वयं कैसी जिंदगी जी है! वह चाहती है कि केवल पन्ने ही नहीं पन्नों के साथ खुद को भी पलटे वह. मगर लेखक पर खुद को स्थापित और स्थापित करने की धुन तारी है. प्रशस्तिगान के आगे उसकी सिसिकियां कहां सुनायी देती है उसे.
अजब जिंदगी जी रही है वह। वह आत्मग्लानि से भरी हुयी है,जब कि उसके अंदर प्यारी बातें लिखी हुयी हैं. वह दूसरे को रौशनी बांट रही है,मगर सामने उसके अंधकार है. वह क्रांति की संदेश वाहक है,मगर वह खुद एक सामंत के चंगुल में है. कई सस्करणों के बाद भी वह एक रूप है, मगर उसे अपने सामने एक बहरूपिया के दर्शन होते हैं. ऐसे में किताब फिर क्या करे! वह आत्महत्या करे न तो क्या करे.
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